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शनिवार, 10 जुलाई 2010

मेरी उम्मीदें

बेक़ाबू अकसर हो जाती हैं मेरी उम्मीदें
मेरी बात नहीं मानती हैं मेरी उम्मीदें

हर रोज़ सुला देता हूं अपने ही हाथों
पर सुबह जाग जाती हैं मेरी उम्मीदें

जानती हैं तुम हो दरिया के उस किनारे
फिर भी ज़ोर मारती हैं मेरी उम्मीदें

पस्त नहीं होती तेरी उदासीनता से
मुझे मज़बूर करती हैं मेरी उम्मीदें

इन्हें शायद दर्द का अंदाज नहीं होता
तभी तो दर्द बढ़ाती हैं मेरी उम्मीदें

मन को दिखाती हैं ढेर सारे सपने
फिर मुझको रुलाती हैं मेरी उम्मीदें

पैदा हो गईं ये पता नहीं कैसे ये
मुझे लाचार करती हैं मेरी उम्मीदें

ज़हर देना ही पड़ेगा इन्हें एक दिन
मेरे दर्द की सबब हैं मेरी उम्मीदें

माफ करना हे मेरे सपनों की परी
सब मुझसे लिखवाती हैं मेरी उम्मीदें

हरिगोविंद विश्वकर्मा

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