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मंगलवार, 2 अगस्त 2011

हाउसवाइफ़ स्त्री की नियति

हरिगोविंद विश्वकर्मा
मुंबई से सटे डोंबिवली में सुनील सालन नाम का शख़्स रहता है। पिता से काफी संपत्ति मिली है। अच्छा खाता कमाता है। उम्र चालीस के ऊपर है। 19 साल पहले प्रेम-विवाह किया था। 10 साल में तीन बच्चे हुए। फिर पहली पत्नी से बिना तलाक़ लिए दूसरा प्रेम-विवाह कर लिया। दूसरी से भी दो बच्चे। यानी दो बीवियां और पांच बच्चे। आजकल वह तीसरे प्रेम-विवाह की तैयारी कर रहा है। हैरान करने वाली बात है कि लोकल पुलिस ख़ामोश है। मानपाड़ा पुलिस कहती है, सालन की दोनों बीवियों या रिश्तेदारों को आपत्ति ही नहीं तब पुलिस क्या करे। हां, एक रिश्तेदार को आपत्ति ज़रूर है पर दूसरी बीवी का भाई है जिसे पत्नी का दर्जा ही नहीं हासिल सो आपत्ति बेमानी है। सालन ने जब दूसरी शादी की थी तब भी किसी को आपत्ति न थी। संभव है वह आगे चौथी, पांचवी या उससे अधिक शादियां करे क्योंकि किसी को कोई आपत्ति ही नहीं। यानी अगर आपत्ति नहीं तो करते रहो शादी पर शादी... है न विचित्र वाकया।
सालन तो मिसाल भर है। पुरुष-प्रधान भारतीय समाज में बड़ी तादाद में पुरुषों के पास दो-तीन बीवियां हैं। नारी को बराबरी का दर्जा देने की पैरवी करने वाले कई लोगों ने भी एक से अधिक शादी की है। कुछ बिना तलाक के तो कुछ फ़र्ज़ी तलाक लेकर। यानी कंसेंट के नाम पर बीवी से स्टैंपपेपर पर दस्तख़त करवा लिया। हालांकि दुनिया की कोई अदालत ऐसे तलाक़ मंज़ूर नहीं करती। सच पूछो तो पति-पत्नी के वैधानिक अलगाव को ही सही तलाक़ को माना जाता है जो फ़ैमिली कोर्ट जारी करती है। पति-पत्नी, विधिवत अलग होने के लिए याचिका दाख़िल करते हैं। फिर नोटिस जारी होता है, बयान दर्ज होता हैं। अलग होने की ठोस वजह पूछी जाती है। इसके बाद भी रिश्ता ख़त्म करने से पूर्व सुलह का एक और मौक़ा दिया जाता है। और, सुलह की हर संभावना ख़त्म होने पर ही तलाक़नामा जारी होता है।
हालांकि, चालाक और संपन्न पुरुषों ने इसका भी तोड़ निकाल लिया है। वे वकीलों और कोर्ट-कर्मचारियों की मिली-भगत से वैध तलाक़नामा हासिल कर लेते हैं। वकीलों और कोर्ट-कर्मियों के ख़तरनाक गठजोड़ के चलते वे शादियां भी टूट रही हैं जो कम से कम क़ानून के डर से निभाई तो जा सकती थीं। दरअसल, अनपढ़, लाचार पत्नियों को फुसलाकर अदालत लाया जाता है जहां वकील उसका बयान और दस्तख़त लेकर आधिकारिक तलाक़नामा हासिल कर लेते हैं। सबसे बड़ी बात यह सामाजिक अपराध करने में वकीलों को तनिक भी झिझक या अपराधबोध नहीं होता। पुरुषों, वकीलों और कोर्ट-कर्मियों का ये नापाक गठजोड़ पति को परमेश्वर मानने वाली नारी को पराजित कर देता है। मुंबई या य शहरों में रहने वाले यूपी-बिहार या दूसरे राज्यों के पुरुष इसी तरह दो बीवियां रखते हैं। पहली गांव में दूसरी शहर में। इसमें, दरअसल, समस्या तब आती है जब कोई विवाद होता और मामला पुलिस स्टेशन या कोर्ट पहुंचता है।
वैसे मान्यता है कि शादी-संस्थान का प्रावधान इसलिए किया गया ताकि एक पुरुष एक स्त्री के साथ शांतिपूर्ण जीवन गुजारे और संतान पैदा करे जिससे कुदरत का जीवनचक्र चलता रहे। इसीलिए अगर इस्लाम को छोड़ दें तो हर मजहब में एक ही शादी का प्रावधान है। वैसे कई मुस्लिम देशों में भी एक से ज़्यादा निकाह की रवायत ख़त्म कर दी गई है। भारत में भी एक से अधिक निकाह यानी पहली बीवी के होते दूसरी शादी की वैधता पर बहस चल रही है। बहस तब शुरू हुई जब 1986 में राजस्थान पुलिस ने लियाक़त अली को पहली बीवी के रहते निकाह करने पर नौकरी से निकाल दिया जिसे राजस्थान हाईकोर्ट ने भी सही ठहराया। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी 2010 में उस फैसले पर मुहर लगा दी। देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा कि कोई कर्मचारी बीवी के होते दूसरा निकाह करेगा तो नौकरी से हाथ धो बैठेगा। यानी धर्म का बहाना लेकर भी कोई दूसरी शादी करेगा तो कोर्ट दख़ल देगी चाहे पुरुष मुस्लिम ही क्यों न हो। टर्की और ट्यूनीशिया में पत्नी के होते निकाह ग़ैरक़ानूनी है। मिस्र, सीरिया, जॉर्डन, इराक, यमन, मोरक्को और यहां तक कि पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी वैवाहिक मसलों पर फैसला अदालतें सुनाती हैं। लेकिन भारत में तमाम आलोचना के बाद ये आज भी जारी है। इस्लाम के इसी प्रावधान का फायदा उठाकर कई औरतें दूसरी स्त्रियों से पति छीनती रही हैं।
अगर बिगमी क़ानून के ट्रायल पर गौर करें तो उसकी रफ़्तार कछुआ चाल से भी धीमी है। मुकदमे के निपटारे में कई दशक लग जाते हैं। दिल्ली के 41 वर्षीय जगदीश प्रसाद ने पहली पत्नी से तलाक विए बिना 1970 में दूसरी शादी कर ली। पत्नी ने अदालत गई पर तीस हज़ारी कोर्ट में मुक़दमे के निपटारे में 37 साल लग गए। अगस्त 2008 में फ़ैसला आने के समय जगदीश 78 साल का हो चुका था। हालांकि अदालत ने उसे बिगमी को दोषी क़रार दिया गया और सज़ा और ज़ुर्माना हुआ लेकिन इतनी लंबी अदालती लड़ाई तोड़कर रख देती है। इसीलिए स्त्री क़ानून के झमेले में न पड़कर पति की इच्छा को स्वीकार कर लेती है।
पुरुष-महिला के बीच समानता की बढ़-चढ़कर बात हो रही है। मगर सालन जैसे लोगों का बार-बार शादी करके इस दावे को झुठलाता है। स्त्री को मनोरंजन की वस्तु समझने वालों पर अंकुश लगाने के लिए कठोर क़ानून समय की मांग है। दरअसल, सालन की दोनों बीवियां उसकी तीसरी शादी का विरोध इसलिए भी नहीं कर पा रही हैं क्योंकि वे जीवन-यापन के लिए पति पर बुरी तरह निर्भर हैं। उनके पास किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं है। विरोध मुसीबत को न्यौता देने के समान है। रहने-खाने को मिला है, वही बहुत। विरोध करने पर उससे भी हाथ धोना पड़ सकता है। इसीलिए न चाहते हुए भी पति की ज्यादती क़बूल कर रही हैं। अन्यथा जैसे कोई पुरुष अपनी बीवी के जीवन में किसी दूसरे पुरुष की कल्पना तक नहीं कर पाता। उसी तरह महिला भी पति के जीवन में दूसरी स्त्री कैसे सहन करेंगी। लेकिन सामाजिक असुरक्षा के चलते वे भारी मन से पति की इच्छा को स्वीकार करती हैं। मतलब औरत अगर कमा नहीं रही है, खालिस हाऊसवाइफ़ है तो 21वीं सदी में भी अबला ही है। समय की मांग है कि स्त्री को सही मायने में इम्पॉवर किया जाए। उत्तराधिकार क़ानून पर सख़्ती से अमल हो। इसमें बेटी को पिता की संपत्ति में हिस्सेदार तो बनाया गया है लेकिन इस क़ानून पर अमल परंपरा के ख़िलाफ़ माना जाता हैं। आउटडेटेड परंपराएं बेटी को पराया धन कहती हैं और पिता की संपत्ति में उसका हिस्सा नहीं मानती। तभी तो आज भी बेटियां शादी के बाद मायके से चली जाती हैं और पैतृक-संपत्ति पर उनका दावा ख़त्म हो जाता है। बेटा या बेटे पिता की दौलत पर ऐश करते हैं। सालन की तरह।


लेखक टीवी 9 मुंबई से संबद्ध हैं।