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बुधवार, 17 दिसंबर 2014

पाकिस्तान क्या अब समझेगा मौतों की टीस? समस्या का एकमात्र है युद्ध ही है!

हरिगोविंद विश्वकर्मा
भारत एक भावुक देश है। यहां के लोग भी भावुक हैं। तभी तो पेशावर के बाल-नरसंहार (संभवतः यह दुनिया का पहला ऐसा नरसंहार है जिसमें केवल बच्चे मारे गए हैं) पर यहां लोग दुखी हैं। कई लोग तो विचलित है और रो भी रहे हैं। दूसरों के दर्द से दुखी होना मानव स्वभाव है। भारत के लोग भावुक स्वभाव के हैं इसलिए इंसानियत के ज़्यादा क़रीब हैं। लेकिन यह ध्यान देना होगा कि आंसू किसी समस्या के समाधान नहीं होते। अगर आंसुओं से समस्याएं हल होतीं तो भारत, ख़ासकर कश्मीर, से आतंकवाद कब का चला गया होता, लेकिन भारत और भारत के अभिन्न अंगकश्मीर में आतंकवाद आज भी ज़िंदा है। लोकसभा के चुनाव प्रचार में कांग्रेस को चुप रहने के लिए कोसने वाले नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सीज़ फ़ायर के उल्लंघन में पाकिस्तानी सेना के हाथ 135 लोगों की मौत इसकी गवाह है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि जब 26/11 के मुंबई आतंकी हमले के बाद मासूस लोगों को श्रद्धाजलि देने का कोई कार्यक्रम पूरे पाकिस्तान में कहीं नहीं हुआ था। उस समय वे लोग यह कहकर इससे ख़ुश हो रहे थे कि भारत को गहरा दर्द दिया है। लेकिन इसके विपरीत भारत भर में बहुत ढेर सारे जगह श्रद्धा सुमन अर्पित करने के प्रोग्राम हो रहे हैं। यानी भारत  और भारत के लोग पीड़ित होते हुए भी पाकिस्तान के साथ हमदर्दी रखते हैं।

दरअसल, जो बच्चे पेशावर सैनिक स्कूल में मारे गए, वे ज़्यादातर उन सैनिक अफ़सरों के बेटे हैं जो इन राक्षसों को भारत पर हमला करने के लिए तैयार किया था। ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि पाकिस्तान आर्मी और आईएसआई ने जो बारूद भारत में आग लगाने के लिए बनवाया था वह उनके घर में ही फट गया। यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि आतंकवाद पाकिस्तान और पाकिस्तानी आर्मी के लिए भस्मासुर बन गया है। जैसे भस्मासुर पार्वती को पाने के लिए शंकर भगवान की जान का दुश्मन बन गया था उसी तरह आतंकवाद पाकिस्तान का दुश्मन बन गया है। यानी जिसे पाकिस्तान ने भारत के लिए पाला, खाद पानी दिया अब वही आतंकवाद उसके गले में फांस की तरह अटक गया है। आतंकवादी पाकिस्तान के नियंत्रण से बाहर हो गए हैं।

सवाल यह है, क्या अब क़रीब 150 बच्चों की हत्या के बाद पाकिस्तान होश आएगा? क्या वह असमय मरने वालों का दर्द समझेगा? जिसे उसका पड़ोसी पिछले 20 साल से भुगत रहा है। इस बात का कोई संकेत नहीं मिला है कि पाकिस्तानी हुक़्मरानों को अपने ब्लंडर का एहसास होगा। क्योंकि पाकिस्तानी  बच्चों की मौत आंसू बहाने वालों में हाफ़िज़ सईद भी है जो अपने आप में मौत देने वाला संस्थान है। सईद को अब भी प्रोटेक्ट करने का सीधा सा अर्थ है पाकिस्तान कभी नहीं सुधरेगा। चाहे जितने पेशावर हमले हो जाएं। समस्या पाकिस्तानी लीडरशिप या पाकिस्तानी आर्मी में नहीं है। समस्या वहां की जनता में हैं। जो भारत को हिंदू राष्ट्र मानती है और हिंदू राष्ट्र से नफ़रत करने वाले का दिल खोलकर समर्थन करती है। वहां की जनता ठीक होती तो पाकिस्तानी लीडरशिप या पाकिस्तानी आर्मी रात भर में सुधर गए होते। यानी खोट पाकिस्तानी जनता में है, जो भारत का विरोध करने वाले नेताओं को वोट देती है। यह उसी तरह का ब्लंडर है जैसे भारत में हिंदुओं के क़त्लेआम की बात करने वाले एमआईएम के विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी (यू-ट्यूब पर उसका टेप उपलब्ध है) को वोट देना। जो आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के मुसलमान दिल खोल कर कर रहे हैं।

बहरहाल, यह भी कटु सच है आतंकवादियों का सईद जैसे लोग ब्रेनवॉश करते हैं। उन पर जेहाद का भूत सवार कर देते हैं और आतंकवादी मौत के साक्षात् रूप बन जाते हैं। इन आतंकवादियों को अपनी ग़लती का एहसास तक तक नहीं होता जब तक वे पकड़े नहीं जाते और की तरह अंडा सेल में नहीं रख दिए जाते। सैयद ज़बिउद्दीन अंसारी उर्फ अबू जिंदल उदाहरण है, अबू गिरफ़्तारी के बाद से मुंबई के ऑर्थर रोड जेल में अंडा सेल में है। अजमल कसाब की तरह वह भी मानसिक रोगी हो गया है। जेल अधिकारी कहते हैं अंडा सेल में आने के बाद उसके सिर से जेहाद का भूत उतर गया है। वह चिड़चिड़ा और विक्षिप्त हो गया है। अब वह कभी-कभी सईद और लश्कर-ए-तैयबा के नेताओं को गाली देता है।

दरअसल, पाकिस्तान को समझना होगा कि आतंकवाद का कोई क्लासिफ़िकेशन नहीं होता। आतंकवादी केवल आतंकवादी यानी दहशतगर्द या टेररिस्ट होता है। उसका कोई मजहब धर्म या राष्ट्रीयता नहीं होती। जैसे आतंकवादी इस्लामिक आतंकवादी नहीं हो सकता वैसे ही आतंकवादी कश्मीरी आतंकवादी नहीं हो सकता। आतंकवादी तो केवल आतंकवादी होता है, केवल हत्यारा होता है। यानी पाकिस्तान आतंकवादियों को कश्मीरी आतंकवादी कहकर उन्हें संरक्षण नहीं दे सकता अगर देगा तो वे आतंकवादी पेशावर की तरह के नरसंहार को अंजाम देते रहेंगे।

यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत एक कायर देश की तरह अपने यहां आतंकवाद के लिए पाकिस्तान को दोषी ठहराता है। भारत को यह समझना होगा इससे काम नहीं चलेगा। उसे आतंकवादियों के लिए नया कठोर क़ानून बनाना होगा। ताकि उन्हें जेल में रखने की बजाय मार दिया जाए। जब तक आतंक और आतंकियों के ख़िलाफ़ कठोर कार्रवाई नहीं होती इसे रोक पाना मुश्किल होगा। अपने यहां हमले के लिए किसी और को दोषी ठहराने या सबूत देने का दौर चला गया। मगर भारत अब भी आतंकी वारदातों में पाकिस्तान के शामिल होने का दुनिया को सबूत देता है। यह काम यह कथित तौर पर परमाणु हथियार बना लेने वाला देश 20 साल से कर रहा है और अपने जवानों और नागरिकों को कायर बना रहा है। जबकि उसे राष्ट्रीय पॉलिसी बनाकर पाकिस्तान में घुसकर आतंकवादियों को मारना चाहिए। भारत के पास यह मौक़े कई बार आ चुके हैं। चार बार तो ख़ुला मौक़ा था लेकिन हर बार भारत ने अपने कायराना इरादा का प्रदर्शन करने के अलावा कुछ नहीं कर पाया। पहला मौक़ा कारगिल युद्ध के समय आया था, भारत को उसी समय सारा हिसाब चुकता कर लेना चाहिए था, पर अटलबिहारी वाजपेयी कारगिल का लेकर शांत हो गए। दूसरा मौक़ा संसद पर आतंकी हमले के समय आया तब वाजपेयी दूसरी बार चूक गए थे। तीसरा मौक़ा मुंबई पर आतंकी हमले के समय आया उस समय कमज़ोर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चूक गए। उनसे इतने साहस की उम्मीद भी नहीं थी। चौथा मौक़ा तीस साल में सबसे ताक़तवर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिला। जब अभी हाल ही में आतंक ने कश्मीर के उरी सेक्टर पर हमला किया। चुनाव में खूब दहाड़ने वाले मोदी भी इस बार चूक गए। युद्ध से दूर रहने की नीति से भारत का बहुत भला नहीं हुआ है। जनता महंगाई से वैसे भी परेशान है। युद्ध से महंगाई मान लो दोगुनी हो जाएगी, उसे जनता झेल लेगी। वैसे भी इस जनता ने 1998 में परमाणु विस्फोट के बाद प्रतिबंध झेला ही था। यह रोज़-रोज़ की किच-किच ख़त्म होनी चाहिए। मान लो इस युद्ध में भारत की एक फ़ीसदी जनता मर जाती है लेकिन यह भी सच है कि तब तक पाकिस्तान में कोई श्रद्धांजलि देने वाला भी नहीं बचेगा। लेकिन सवाल फिर वही, गांधीवाद के फ़र्ज़ी सिद्धांत पर चलने वाला भारत क्या इतनी हिम्मत दिखाएगा?

समाप्त

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

क़त्लेआम की बातें लोगों को पसंद क्यों आ रही हैं?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
क्या भारतीय समाज हिंसक हो रहा है। ज़रा-ज़रा सी बात पर लोग लड़ने-झगड़ने लगे हैं। आए दिन होने वाले सांप्रदायिक तनाव इसके गवाह हैं। आख़िर ख़ून-ख़राबा यानी क़त्ल-ए-आम की बातें लोगों को पसंद क्यों आ रही हैं? अनपढ़ लोग अगर दंगे-फ़साद की राह पर जाते तो बात समझ में आती कि अज्ञानी हैं, उनमें समझ नहीं है, लेकिन यहां तो पढ़े लिखे यहां तक कि कॉन्वियन्स लोग और सेक्यूलर पत्रकार भी धर्म के नाम पर मरने-मारने की बात कर रहे हैं।

आने वाला समय बहुत सुखद संकेत नहीं कर रहा है। देश में अच्छे दिन नहीं, बहुत ही बुरे दिन की दस्तक हो रही है। फिलहाल, इस देश में हर जगह धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण बहुत तेज़ी से हो रहा है। अपने आपको सेक्यूलर कहने वाले लोग अप्रासंगिक हो रहे हैं। इसका फ़ायदा भारतीय जनता पार्टी यानी बीजेपी और मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एमआईएम को हो रहा है।

इस बार अक्टूबर में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव पर गौर करें तो अभिजात्य वर्ग के नेता असदुदीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम को काफ़ी समर्थन मिला। चुनाव के समय असदुद्दीन तो नहीं उनके छोटे भाई विधायक अकबरुद्दीन ने ज़रूर तूफानी प्रचार किया। अकबर की मुंबई, ठाणे के मुंब्रा, औरंगाबाद, नांदेड और परभणी में हुई चुनावी सभाओं में भारी भीड़ होती थी।

ईसाई महिला से निकाह करने का बावजूद 43 साल के अकबर को बेहद कट्टर ख़ासकर हिंदुओं के ख़िलाफ़ बहुत ही आपत्तिजनक बयान देने के लिए जाना जाता है। चंद साल पहले उन्होंने हिंदू समुदाय के ख़िलाफ़ बहुत ही ख़तरनाक बयान दिया था। यू-ट्यूब पर उपलब्ध उस बयान को जो भी सुनता है सन्न रह जाता है, पसीने छूट जाते हैं। लोगों को यकीन ही नहीं हुआ कि दूसरे मजहब के ख़िलाफ़ कोई ऐसा बयान दे सकता है। ख़ासकर धर्मनिरपेक्ष संविधान पर चलने वाले भारत में। बहरहाल, उस बयान के चलते अकबर को गिरफ़्तार भी किया गया था और काफी जद्दोजहद के बाद उन्हें बेल मिली थी।

अगर इतिहास पर नज़र डालें तो हिंदुओं के ख़िलाफ़ इस तरह का ज़हर कभी किसी मुस्लिम नेता ने नहीं उगला। यहां तक कि 1946 में मुस्लिम लीग के मोहम्मद अली जिन्ना या अली बंधु भी। इतिहासकारों और उनकी किताबों के मुताबिक विभाजन के समय मुस्लिम लीग की ओर से हिंदुओं के मारकाट के लिए ऐक्शन प्लान ज़रूर चलाया गया था लेकिन सब गुप्त रूप से। पब्लिक फ़ोरम पर ऐसा बयान किसी ने नहीं दिया था जैसा बयान अकबर ने हैदराबाद में दिया।

बुद्धिजीवी तबक़े का मानना है कि ऐसे में मुसलमानों द्वारा अकबर की भर्त्सना होनी चाहिए थी यानी उनका बहिष्कार किया जाना चाहिए था। जैसे गैर-मराठियों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने वाले राज ठाकरे को इस बार मराठी समाज ने रिजेक्ट कर दिया। लेकिन अकबर को तो मुसलमानों का बहुत भारी समर्थन मिला। कई मुस्लिम बुद्धिजीवी और पत्रकार एमआईएम के टिकट पर चुनाव लड़ने की इच्छा जता रहे हैं। इसका अर्थ तो यही हुआ कि मुसलमान वोटर्स अकबर के हिंदुओं के ख़िलाफ़ बयान का अपने वोटों के जरिए दिल खोलकर स्वागत कर रहे हैं। एमआईएम को इतना अधिक पसंद कर रहे हैं कि इस बाहरी पार्टी को महाराष्ट्र एसेंबली में इंट्री मिल गई। पार्टी ने मुंबई की 14 सीटों समेत राज्य में कुल 24 विधानसभा क्षेत्र में उम्मीदवार खड़े किए थे। जिनमें अपने आपको सेक्यूलर घोषित करने वाले न्यूज़ चैनल एनडीटीवी के पुणे संवाददाता रहे इम्तियाज जलील औरंगाबाद पश्चिम से और वारिस यूसुफ पठान ने भायखला से जीत दर्ज की। तीन सीटों पर दूसरे नंबर पर रही और नौ साटों पर तीसरे स्थान पर बाक़ी दस सीटों पर भी पार्टी को भरपूर वोट मिले। सबसे अहम, एमआईएम के किसी भी उम्मीदवार की ज़मानत जब्त नहीं हुई। 2012 में नांदेड़ नगरपालिका में एमआईएम के 12 नगरसेवक चुने गए थे।

कहने का मतलब, इस देश के धर्मनिरपेक्षता या सेक्युलिरिज़्म की राजनीति करने वाले लोग बड़ी तेज़ी से हाशिए पर जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, सेक्यूलर लोग संघ परिवार, बीजेपी या नरेंद्र मोदी को जितनी गाली देते हैं, संघ और मोदी उतना ही फायदा मिलता है। 2002 के बाद हर किसी ने मोदी को हत्यारा मोदी कहा जिसकी परिणति 2014 के आम चुनाव में बीजेपी को 282 सीट के रूप में हुई। कहने का मतलब हिंदुओं को भी अब लगने लगा है कि बीजेपी में ही उनका भविष्य सुरक्षित है।

बहुमत में मुसलमानों का कट्टरवादी सियासत की जानिब उन्मुख होना उतना चिंतित नहीं करता। लेकिन मुस्लिम समाज जिस तरह अकबर को पसंद कर रहा है, वह ख़तरनाक संकेत हैं। कांग्रेस से पहले से ही मुंह मोड़ चुके मुसलमान वोटर आने वाले दिनों में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस को वोट नहीं देंगे। वे केवल और केवल एमआईएम को वोट देंगे। तब इस देश का धर्म के आधार पर पूरी तरह ध्रुवीकरण हो जाएगा।

अगर इतिहास में जाएं तो पिछली सदी के आरंभ में माहौल ऐसा ही था। अंग्रेज़ों ने देश बंग-भंग के जरिए अलगाववाद को जो पौधा रोपा उसके उगते हैं 1906 में इसी माहौल में जनाब सैयद अहमद खान खान ने मुस्लिम लीग की स्थापना की। महज 41 साल की उम्र में इस पौधे ने देश का धर्म के आधार पर विभाजन कर दिया। तो क्या यह देश एक और विभाजन की ओर बढ़ रहा है? भले ही वह कई सदी बाद आए। लिहाज़ा, अभी से चौकन्ना होने की ज़रूरत है, कि कही देर न हो जाए।

समाप्त

बुधवार, 5 नवंबर 2014

सचिन तेंदुलकर के दावे कितने सच?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
आजकल सचिन तेंदुलकर अपनी किताब 'प्लेइंग इट माई वे' को बेचने के लिए, पूर्व कोच ग्रेग चैपल के बारे में खूब बयान दे रहे हैं। अब सवाल यह पैदा होता है कि अगर भारतीय क्रिकेट को ग्रेग चैपल से इतना खतरा था तो संचिन तेंदुलकर ने उसी समय आवाज क्यों नहीं उठाई। तब वह टीम के बेहद सीनियर खिलाड़ी थे और भारतीय क्रिकेट का कोई अगर नुकसान कर रहा था तो उसे फौरन उसे हटाने की मांग कर सकते थे लेकिन सचिन ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उलटे सचिन ग्रेग चैपल के मार्गदर्शन में खेलते रहे। यहां तक कि जब ग्रेग चैपल ने जब सौरव गांगुली को निशाना बनाना शुरू किया तब भी एकदम सचिन चुप थे। और तटस्थ होकर खेलते रहे। सचिन की यही चुप्पी उनकी भारतीय क्रिकेट के प्रति निष्ठा पर एक गंभीर सवाल खड़ा करती है। अब किताब बेचनी है तो वह भी नटवर सिंह और संजय बारू की तरह सनसनी परोस रहे हैं।

एक ऐसे खिलाड़ी जिसे भारत रत्न दिया जा चुका हो उससे अपनी किताब बेचने के लिए इस तरह के हथकंडे का सहारा नहीं लेना चाहिए था, लेकिन सचिन अब किताब को बेचने के लिए उसमें उन घटनाओं का जिक्र कर दिया है, जिनकी सत्यता संदिग्ध है।

जो भी हो सचिन तेंदुलकर अगस्त के बाद फिर चर्चा में है। सचिन और लता मंगेशकर और अमिताभ बच्चन हर काम केवल और केवल अपने या अपने परिवार या अपनी कंपनी के फ़ायदे के लिए करते हैं। ये महान व्यक्तित्व इतनी ऊंचाई तक पहुंचने के बावजूद कभी निहित स्वार्थ से ऊपर नहीं ऊठ पाए। यह आदत इनके महान क़द को छोटा कर देता है।

सचिन का दमन साफ नहीं है। कांग्रेस द्वारा राज्यसभा सदस्य बनाने जाने के बाद भी वह विज्ञापनों की शूटिंग के लिए ख़ूब समय निकालते रहे हैं, क्योंकि उससे मोटी रकम मिलती है। इसीलिए, क्रिकेट को अलविदा कहने के बावजूद महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली के सचिन विज्ञापन से सबसे ज़्यादा कमाई करने वाले मॉडल हैं। सचिन आज भी बहुराष्ट्रीय कंपनी अविवा, कोकाकोला, अदिदास, तोशीबा, फ़्यूचर ग्रुप, एसएआर ग्रुप, स्विस घड़ी कंपनी ऑडिमार्स से जुड़े हुए हैं। कई छोटी-मोटी कंपनियों के प्रॉडक्ट भी बेचते रहते हैं। तभी तो 2013 में फ़ोर्ब्स ने उनकी कमाई 22 मिलियन डॉलर बताई थी। दरअसल, राज्यसभा में सचिन जाएं या न जाएं, उनको उतना ही पैसा (वेतन-भत्ता) मिलेगा। लिहाज़ा संसद में बैठकर वक़्त जाया करने की बजाय वह अपना कीमती वक़्त कॉमर्शियल शूटिंग्स को देते हैं।

क्रिकेटर के रूप में सचिन ने कभी कोई ऐसी पारी नहीं खेली जिससे भारत को जीत मिली हो। इसीलिए, “विज़डन की 100 बेस्ट इनिंग्समें सचिन की कोई पारी नहीं है। जबकि सुनील गावस्कर, वीवीएस लक्ष्मण, राहुल द्रविड़, सौरव गांगुली, गुलडप्पा विश्वनाथ, कपिलदेव और वीरेंद्र सेहवाग जैसे अनेक भारतीय बल्लेबाज़ हैं जिनकी कोई न कोई पारी विज़डन का 100 बेस्ट पारियों में रही है।

सचिन की टेस्ट मैच, वनडे और टी-20 मैचों में बल्लेबाज़ी का बारीक़ी से अध्ययन करें तो जब भी भारत संकट में रहा, वह सस्ते में पैवेलियन लौट गए। टेस्ट मैच में एक बार पाकिस्तान के ख़िलाफ़ भारत मैच जीतने की पोज़िशन में था लेकिन शतक बनाने के थोड़ी देर बाद ही सचिन आउट हो गए और भारत मैच हार गया। सचिन ने 200 टेस्ट की 329 पारियों में 53 के औसत से 15921 रन बनाए लेकिन उनके ज़्यादातर शतक ड्रा हुए मैचेज़ में रहे। वह गेंदबाज़ों की तूफानी या शॉर्टपिच गेंद कभी विश्वास से नहीं खेल पाए। उन्हें डेनिस लिली, माइकल होल्डिंग, गारनर, मार्शल आदि की गेंदे खेलने का अवसर तो नहीं मिला। हां, अपने मसय में उन्होंने डेल स्टेन, डोनाल्ड, मैकग्रा, ली, वकार, इयान, विशप या मलिंगा की गेंदों के सामने उनके खाते में बहुत ज़्यादा रन नहीं हैं। उनका खेल बांग्लादेश या जिंबाब्वे की फिसड्डी टीमों के ख़िलाफ़ सबसे उम्दा रहा है। उनका करीयर बेस्ट अविजित 248 भी बांग्लादेश के ख़िलाफ़ ही है। दरअसल, यूएनआई में नौकरी के दौरान इन पंक्तियों के लेखक ने काफ़ी रिसर्च के बाद सचिन पर इसी तरह की एक बढ़िया रिपोर्ट फ़ाइल की थी लेकिन उसे सचिन विरोधी क़रार देते हुए एजेंसी ने रिलीज़ नहीं की क्योंकि उस समय सचिन के बारे में निगेटिव लिखना तो दूर कोई सोचता भी नहीं था।

सचिन ने राज्यसभा की मर्यादा को ही नहीं घटाया बल्कि, भारतरत्न पुरस्कार की प्रतिष्ठा में भी बट्टा लगा दिया है। भारत रत्न पुरस्कार पा चुका खिलाड़ी टीवी पर लोगों से एक ख़ास किस्म के प्रोडक्ट ख़रीदने की अपील करता है। जबकि दुनिया जानती है सारे किरदार टीवी विज्ञापन में झूठ बोलते हैं। सचिन एक आम अभिनेता या खिलाड़ी के रूप में यह झूठ बोलते तो कोई हर्ज़ नहीं था, लेकिन यह झूठ सचिन भारत रत्न के रूप में बोलते हैं। इसका निश्चित तौर पर ग़लत संदेश जाता है।


बहरहाल, अब सचिन को अपनी किताब बेचने के लिए ग्रेग चैपल का वह व्यवहार याद आ गया। काश सचिन चैपल का वह पक्षपात पहले ही उजागर कर दिए होते।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

3,787 भारतीयों का हत्यारा एंडरसन बिना सज़ा भोगे मर गया

3,787 भारतीयों का हत्यारा एंडरसन बिना सज़ा भोगे मर गया
सरकार और न्यायपालिका के गाल पर तमाचा
हरिगोविंद विश्वकर्मा
भोपाल के करीब चार हजार मासूमों का हत्यारा अंततः मगर गया। उसे भारत लाकर सजा नहीं दी जा सकी. यह भारत सरकार की असफलता तो है ही, उससे ज़्यादा सड़ी हुई भारतीय न्याय-व्यवस्था की असफलता है। अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड का प्रमुख और भोपाल गैस त्रासदी में भगोड़ा वारेन एंडरसन बिना दंड भोगे ही मर गया। एंडरसन की मौत 29 सितंबर को ही हो गई थी लेकिन खबर अब सामने आई है।

जो न्याय-व्यवस्था किसी केस की सुनवाई 30 साल में भी न कर सके, वह बेकार उसे तुरंत बदलने की ज़रूरत है। उसे इंसाफ़ करने के और नाटक करने से रोका जाना चाहिए। तमाम जज आख़िर करते क्या रहे। अभी तक मुकदमे का निपटारा नहीं हो सका।

हादसे के बाद एंडरसन गिरफ्तार भी हुआ था, लेकिन कुछ ही घंटों में कोर्ट द्वारा उसे जमानत पर छोड़ दिया गया। अदालत को पता था एंडरसन रिहा होते ही अमेरिकी भाग जाएगा। फिर उसे जमानत क्यों दी। ढेर सारे अपराधी अदालत द्वारा रिहा कर दिए जाते हैं और बाद में फरार हो जाते हैं। यानी भोपाल के लोगों को इंसाफ न मिल पाने की सबसे ज्यादा जवाबदेही भारतीय आदालतों पर हैं। इसके बाद से उसे अमेरिका से भारत लाने का नाटक हुआ। नाटक तो नाटक होता है लिहाजा कामयाबी कैसे मिलती। एक कोर्ट ने उसे भगोड़ा घोषित जरूर किया। लेकिन हुआ कुछ नहीं। अब एंडरसन की मौत के साथ ही इंसाफ की उम्‍मीद भी खत्‍म हो गई।

30 साल पहले 1984 में 2-3 दिसंबर की रात में भोपाल में कार्बाइड के प्‍लांट से गैस रिसने से मध्य प्रदेश सरकार के मुताबिक कुल 3,787 मौते हुई थी। गैर सरकारी आकलन का कहना है कि मौतों की संख्या 10 हजार से भी ज्यादा थी। पांच लाख से ज्यादा लोग घायल हो गए थे, बहुतों की मौत फेफड़ों के कैंसर, किडनी फेल हो जाने और लीवर से जुड़ी बीमारी के चलते हुई।

भोपाल के लोगों को इसलिए भी इंसाफ नहीं मिल पाया क्योंकि सारे मरने वाले और विकलांग होने वाले प्रजा वर्ग के लोग थे। सत्ता वर्ग के लिए वे कीड़े-मकोड़े से ज्यादा हैसियत नहीं रखते. इसीलिए वे इंसाफ से वंचित रहे। इतने ढेर सारे लोगों की हत्या करने वाले को सत्ता वर्ग के लोगों ने बचा लिया क्योंकि वह उन्ही की जमात का था।

ये मूर्ख सोचते हैं सत्ता वर्ग के लोग उनका ध्यान रखेंगे। कितने गलतफहमी में जीते हैं ये भोलेभाले लोग। भगवान इनमूर्खों को सद्बुद्धि दे। ये हितैषी औरदुश्मन में फर्क कर सकें।

वर्ष 1989 में, यूनियन कार्बाइड ने भारत सरकार को इस आपदा के कारण शुरू हुए मुकदमे के निपटान के लिए 47 करोड़ डॉलर दिए थे। वह भी सत्ता वर्ग के लोग डकार गए।

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में सरकार बनाने का विकल्प केंद्र सरकार को क्यों दिया?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
सुप्रीम कोर्ट के लिए मेरे मन में वही सम्मान है जो पूरे देशवासियों के मन में है. इसलिए मैं पूरे सम्मान के साथ देश की सबसे बड़ी अदालत से पूछना चाहूंगा कि आख़िर किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को दो विकल्प दियाः पहला जल्दी से दिल्ली में सरकार बनाई जाए या दूसरा, विधानसभा चुनाव कराए जाएं. जबकि सुप्रीम कोर्ट को भी यह पता है कि दिल्ली विधानसभा में न तो भारतीय जनता पार्टी के पास सरकार बनाने लायक बहुमत है, न ही आम आदमी पार्टी के पास. अगर उपराज्यपाल की पहल पर बीजेपी सरकार बनी तो शक्ति-परीक्षण के दौरान हर दल अपने विधायकों के लिए ह्विप जारी करेगा. तब कांग्रेस या आप का जो विधायक अपने दल का निर्देश नहीं मानेगा और बीजेपी सरकार को किसी भी सूरत में समर्थन देगा, दल-बदल क़ानून के तहत उसकी सदस्यता ख़त्म हो जाएगी. ऐसे में 29 सदस्यों वाली संभावित बीजेपी सरकार काम कैसे करेगी? वह दिल्ली की जनता के लिए क़ानून कैसे बनाएगी?

67 सदस्यों वाली दिल्ली विधानसभा में बीजेपी के पास 29 सीट और आप के पास 27 सीट और कांग्रेस के पास 8 सीट है. तीनों दलों ने ऐलान कर दिया है कि एक दूसरे का किसी भी सूरत में समर्थन नहीं करेंगे. जब तीनों दल में कोई तालमेल ही नहीं, कोई सहमति नहीं, तब दिल्ली में सरकार कैसे बन सकती है?  यानी सरकार बनाने का एक मात्र रास्ता है विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त हो. यानी सुप्रीम कोर्ट के इस विकल्प से विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त की पूरी आशंका है. यह बात सुप्रीम कोर्ट के जज न जानते हो, यह नहीं कह सकते.

ऐसे में माननीय सुप्रीम कोर्ट को साफ़-साफ़ कहना चाहिए था कि जब किसी के पास सरकार बनाने लायक बहुमत ही नहीं है, तब यथाशीघ्र राज्य में विधानसभा चुनाव कराए जाने चाहिए जिससे दिल्ली की जनता को लोकप्रिय सरकार मिल सके. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कुछ नहीं किया. जिससे थोड़ी भी समझ रखने वाला नागरिक हैरान है. सुप्रीम कोर्ट को संविधान का संरक्षक भी माना जाता है, लिहाज़ा, संरक्षक को त्रिशंकु विधानसभा में ग़ैरक़ानूनी या ग़ैरसंवैधानिक काम होने से रोकने की पहल करनी चाहिए थी. न कि एक महीने का समय देना चाहिए था जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने किया है.

इस सूरत-ए-हाल में आम आदमी सोचने लगता है कि सुप्रीम कोर्ट का पांच सदस्यों की संविधान पीठ ने इस तरह का हैरान करने वाला फ़ैसला क्यों लिया? क्या चाहते हैं देश के सबसे प्रतिष्ठित जज? ख़ासकर ऐसे समय जब अभी हाल ही में रिटायर हुए मुख्य न्यायाधीश hr सदाशिवम को केरल का राज्यपाल बनाया गया है. क्या केंद्र सरकार ने एक रिटायर मुख्य न्यायाधीश को राज्यपाल बनाकर यह संकेत दे दिया कि सरकार का पक्ष लेने वाले जजों का ख़याल रखा जाएगा. देश में न्यायपालिका, ख़ासकर शीर्ष न्यायपालिका, ही एकमात्र ऐसा संस्थान रहा है जहां, लोग अब भी उम्मीद के साथ देखते हैं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट को केंद्र सरकार को एक महीने का समय देने से पहले संभावित पहलुओं पर ग़ौर नहीं करना चाहिए था. आपकी क्या राय है? क्या आप सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सहमत हैं?
http://harigovindvishwakarma.blogspot.com/2014/08/blog-post_50.html

शनिवार, 6 सितंबर 2014

सोमवार, 1 सितंबर 2014

Separated in 1965 war, couple awaits reunion by Hari Govind Vishwakarma

Tuesday, August 22, 2006, Chandigarh, India

Hari Govind Vishwakarma
Poonch LoC Point (J&K), August 21
An Indian woman and her Pakistani husband, married 41 years ago, are still waiting for their honeymoon. because they live a kilometer apart on either side of LoC.
Although the five crossing points along the LoC have opened in past one year under confidence-building measure between India and Pakistan uniting thousands of divided families across the border could bring no end to the tragic saga of Barkat bi and her husband Niaz Mohammad, who are in their 70s.
Barkat bi, living in frontier belt at Jallas village of Poonch district of Jammu and Kashmir since 1965, was separated from her husband Niaz Mohammad 41 years ago. Niaz Mohammad lives in Hajeera area of the PoK. She is still waiting to be united with her husband living just a kilometer away.
Jallas is the last Indian village which till recently was situated in the danger zone because of shelling from across the LoC.
The couple was separated during the 1965 Indo-Pak war. Niaz Mohammad was left on the other side of 'ceasefire line' which was later converted into the LoC.
Even after the war ended, there were no means of communication between the couple living on the two sides of the LoC. Telephone lines are still snapped between the two areas on both the sides.
But as the movement of civilians started due to initiative taken by India and Pakistan, the link between the couple was established.
''We had married each other after falling in love and tied the knot in fifties in our village in Poonch,'' says Barkat bi remembering her years of suffering and endless wait for her husband.
She further stated, ''It was the feeling of love which could not separate us emotionally even though we were separated physically.
“There was no way I could forget my love. The peace between the two countries is not just a word for both of us. It is the difference between life and death.''
Barkat bi still preserves the old family photographs and see them many times a day. The lady has not lost hopes and has applied to get permission to go across the LoC to embrace her missing love.

When asked whether she is still excited about her honeymoon, she says " yes I am waiting my soulmate for fresh honeymoon after 41 long years". — UNI 

नरेंद्र मोदीः चायवाले से प्रधानमंत्री बनने तक का सफर


हाल ही मे (March 2014) गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के संपूर्ण पर लिखी मेरी किताब "नरेंद्र मोदीः एक शख़्सियत" का प्रकाशन हुआ है। मैगज़िन साइज़ (A4) में 60 पेज की यह किताब नरेंद्र मोदी की पूरी जीवन यात्रा है। इस किताब का प्रकाशन देश की अग्रणी प्रकाशन संस्थान पॉयनियर बुक कंपनी (जो मेरी सहेली, हेम मेकर, न्यूवूमैन और माझी सहेली जैसी बेहद लोकप्रिय पत्रिकाओं को प्रकाशन करती है) ने प्रकाशित किया है। महज 25 रुपए की यह किताब देश भर के बुक स्टॉल्स पर उपलब्ध है। जो लोग नरेंद्र मोदी के बारे में कम या औसत जानकारी रखते हैं, उन्हें इस किताब को ज़रूर पढ़नी चाहिए।

Photo: हाल ही मे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के संपूर्ण पर लिखी मेरी किताब "नरेंद्र मोदीः एक शख़्सियत" का प्रकाशन हुआ है। मैगज़िन साइज़ (A4) में 60 पेज की यह किताब नरेंद्र मोदी की पूरी जीवन यात्रा है। इस किताब का प्रकाशन देश की अग्रणी प्रकाशन संस्थान पॉयनियर बुक कंपनी (जो मेरी सहेली, हेम मेकर, न्यूवूमैन और माझी सहेली जैसी बेहद लोकप्रिय पत्रिकाओं को प्रकाशन करती है) ने प्रकाशित किया है। महज 25 रुपए की यह किताब देश भर के बुक स्टॉल्स पर उपलब्ध है। जो लोग नरेंद्र मोदी के बारे में कम या औसत जानकारी रखते हैं, उन्हें इस किताब को ज़रूर पढ़नी चाहिए।

रविवार, 31 अगस्त 2014

स्मरणः सचमुच बहुत कठिन होता है सोनिया से मिलना

कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो चुके सांसद जगदंबिका पाल सिंह सही कह रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलना सचमुच बहुत कठिन होता है। चंद लोगों को छोड़कर आम कांग्रेसियों से भी वह बमुश्किल ही मिल पाती हैं। 

1999 की गर्मियों में जब शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल को लेकर काग्रेस से बग़ावत की थी, तब कांग्रेस संकट में थी। उस समय मैंने भी सोनिया गांधी से मिलने की कोशिश की थी। दरअसल, मैं सोनिया का इंटरव्यू लेना चाहता था। सो मिलने की हिमाकत की। हालांकि तब मेरे जैसे छोटे से पत्रकार के लिए यह असंभव सा कार्य था, फिर भी मैंने मिलने को ठान लिया था।

बहुत कोशिश के बाद मिला तो, 
लेकिन अंततः उनका औपचारिक इंटरव्यू नहीं मिल सका। दरअसल, रिपोर्टिंग के दौरान मैं हर जगह अपना सूत्र बना लेता था। 10 जनपथ में भी एक सूत्र बना लिया था। अपने उस सूत्र के ज़रिए कई दिन लगातार फ़ील्डिंग करता रहा। जब सूत्र बोलता था, तब फोन करता था। क़रीब 10 दिन की अनवरत मेहनत के बाद मौक़ा मिल ही गया। 27 या 28 मई 1999 की शाम थी वह। सूत्र ने कहा था कि 4 बजे 10 जनपथ के मेन गेट पर पहुंच जाना। मैं निर्धारित समयसे पहले ही गेट पर पहुंच गया। वहां तैनात गार्डों को बताया कि मुझे सोनिया गांधी से मिलना है। सब के सब हंसने लगे। वे लोग हैरानी से मुझे देखने लगे, क्योंकि तब जो भी सोनिया से मिलने आते थे, सब वीआईपी टाइप लोग होते थे और बहुत महंगी कार में सवार होकर आते थे। उनके पास मोबाइल फोन होते थे। तब मोबाइल स्टैटस सिंबल के रूप में भारत में आ चुका था, लेकिन मेरे पास न तो मोबाइल था, न ही कार थी। महंगी कार की बजाय, मैं डीटीसी की बस से उतर कर पैदल ही 10 जनपथ के गेट तक गया था। मुझे पैदल आते गार्डों ने भी देख लिया था। 

बहरहाल, मेरे दोबारा आग्रह पर 
गोर्डों ने मुलाकातियों की सूची देखी तो उसमें मेरा भी नाम था।

अपना नाम सूची में देखकर मुझे विश्वास हो गया कि आज मैडम से मुलाक़ात हो जाएगी। वरना अपने सूत्र पर भी बहुत भरोसा नहीं था मुझे। इसके बावजूद गार्डों ने मुझे गोट पर ही रोक कर रखा। शाम शार्प 4 बजे मुझे अंदर जाने की इजाज़त मिली। गेट के अंदर जाने वाला मैं इकलौता विजिटर था। 

गेट की सुरक्षा केबिन में मेरी बहुत ही सघन तलाशी हुई थी। मेरी बॉलपेन तक को भी बहुत बारीक़ी से चेक किया गया था। शायद उनको लगा होगा कि कहीं मेरे पास कोई कैप्सूल बम तो नहीं है। खैर, जब अंदर प्रवेश किया तो, कैंपस में एक बहुत बड़ा लॉन नज़र आया। बंगले के कोई 50 मीटर पहले वहीं मुझे रुककर इंतज़ार करने को कहा गया। मैं रुक कर इंतज़ार करने लगा।

मैंने देखा कि दिल्ली कांग्रेस के बहुत बड़े-बड़े नेता लॉन में इंतज़ार कर रहे हैं। मैंने दाढ़ी के कारण सज्जन कुमार को पहचान लिया। दूसरे किसी नेता को पहचान नहीं सका। बहरहाल, 20 मिनट इंतज़ार करने के बाद मैंने देखा कि सुरक्षा गार्डों से घिरी सोनिया गांधी आ रही थीं। उनके साथ उनके निजी सहायक विंस्टन जार्ज और कांग्रेस नेता (जिन्हे मैंने बाद में पहचान सका) इमरान किदवई भी थे, हालांकि तब मैं दोनों को पहचानता नहीं था। 

वहां मौजूद सभी लोग अचानक एक लाइन से खड़े हो गए। कांग्रेस के लोग भी उसी क़तार में खड़े हो गए। मुझे उस समय यह हैरानी हुई कि कांग्रेस के लोग भी मैडम से इस तरह मिलते हैं, क्योंकि तब तक मैं सोचता था कि कांग्रेस के धुरंधर नेता उनसे अकेले मिलते होंगे।

बहरहाल, सोनिया गांधी मेरी बाईं ओर से लोगों से मिलते हुए आ रही थीं। विंस्टन जार्ज और इमरान किदवई के अलावा पांच सुरक्षा गार्ड (कमांडो) भी थे। दो सुरक्षा गार्ड सोनिया गांधी के साथ थे, जबकि दो कमांडो खड़े लोगों के पीछे चल रहे थे। इसके अलावा एक सुरक्षा गार्ड पंक्ति में खड़े लोगों के पीछे पीछे क़रीब से फ़लो कर रहा था। एक कैमरामैन भी था जो हर मुलाक़ाती और सोनिया गांधी की फोटो खींच रहा था। 

क़तार में मुझसे ठीक पहले एक महिला खड़ी थी। शायद वह भी दिल्ली कांग्रेस की नेता थी। कम से कम वह शीला दीक्षित नहीं थीं। बहरहाल, जब सोनिया उसके पास पहुंचीं तो वह बहुत भावुक हो गई और फूट-फूटकर रोने लगी। दरअसल, बग़ावत के बाद सोनिया गांधी के प्रति कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बहुत अधिक सहानुभूति थी। कांग्रेसियों के अनुसार सोनिया गांधी ने भारतीय परंपरा को अपना लिया था और साड़ी का पल्लू बहू की तरह सिर पर रखती थीं, पर पवार, संगमा और तारिक के अलावा भाजपा के लोग भी उन्हें विदेशी कहते थे।

बहरहाल, सोनिया ने उस महिला को गले लगा लिया था। वह सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ बग़ावत से बहुत दुखी लग रही थी। तब सोनिया गांधी हिंदी नहीं बोल पाती थीं। लिहाज़ा, मैंने सुना कि वह अंग्रेज़ी में ही महिला को सांतवना दे रही हैं, लेकिन महिला थी कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। सोनिया गांधी क़रीब 10 मिनट उसके पास खड़ी रहीं और ढांढस बंधाती रही। मुझे लगा वाक़ई सोनिया गांधी सच्ची भारतीय बहूं हैं, वरना वहां इतनी देर क्यों रुकतीं। मैंने सोनिया गांधी को भी भावुक होते देखा। 10 मिनट बाद सोनिया गांधी के चुप कराने पर वह महिला शांत हो गई। मुझे उसी समय लगा सोनिया गांधी नेता चाहे जैसी हो, बहुत अच्छी महिला हैं, भावुक किस्म की महिला, जिसमें इंसानिया भरा है।.

मैं भी बेसब्री से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। बहरहाल जब वह मेरे पास पहुंची तो मैंने बहुत साहस करके पूछ ही लिया. “मैंडम, विल यू विकम द प्राइम मिनिस्टर, इफ गेट मेज़ारिटी इन द इलेक्शन? वीकॉज दं पीपुल ऑफ इंडिया सी यू एज अ बहू, डाटर-इन-लॉ।" 

जैसे ही मैंने यह सवाल किया सब लोग टेंशन में आ गए। मैं ख़ुद बहुत टेंशन में था। पसीना छूट रहा था।

सोनिया गांधी हैरान होकर कुछ सेकेंड मुझे देखती रहीं। शायद वह जानने की कोशिश कर रही थीं, कि मैं कौन हूं, जो उनसे इस तरह का सवाल पूछने की कोशिश की। 

क़रीब 20-25 सेकेंड बाद उन्होंने बहुत धीरे से “नो” कहा। 

मैं कुछ और सवाल पूछ पाता, उससे पहले ही उन्होंने इमरान किदवई को बुलाया और कहा, “आई नीड सच पीपल, जस्ट टाक टू हिम ऐंड इफ़ ही इज़ इंटरेस्टेड आस्क हिम टू वर्क फ़ॉर पार्टी।” 

इमरान किदवई ने मुझसे कहा कि आप मैडम से अलग से मिल लीजिएगा। अभी मैडम को लोगों से मिलने दीजिए।

उसी दौरान फोटोग्राफर ने सोनिया गांधी से मिलते हुए मेरी फोटो भी खींची। बहरहाल, एक मिनट और कुछ सेकेंड की उस मुलाकात के बाद सोनिया गांधी आगे बढ़ गईं।

मज़ेदार बात यह रही कि जब में सोनिया गांधी से बात कर रहा था, तो पीछे के गार्ड ने आहिस्ता से मेरी पैंट की बेल्ट पीछे से पकड़ ली थी, ताकि मैं सोनिया गांधी की ओर और अधिक न बढ़ सकूं।

बहरहाल, मुलाक़ात करने वाले 30-35 लोग थे। सबसे मिलने में शाम के सवा छह बज गए। जब मुलाक़ात का दौर ख़त्म हो गया तो सोनिया गांधी अंदर चली गईं। जाते समय उन्होंने इमरान किदवई को शायद मुझसे मिलने को कहा, क्योंकि सोनिया गांधी के अंदर जाते के फ़ौरन बाद फिर इमरान किदवई मेरे पास आ गए।

मुझसे बिना कुछ पूछे ही उन्होंने कहा, "आप कल 24 अकबर रोड (कांग्रेस मुख्यालय) आइए. आपसे बात करनी है।" 

उस समय मुझे लगा, वाकई सोनिया गांधी का इंटरव्यू मिल जाएगा। मैं बहुत उत्साहित और रोमांचित था।

सो दूसरे दिन 24 अकबर रोड पहुंच गया। वहां तो बहुत अधिक इंतज़ार करवाने के बाद इमरान मुझसे मिले और मुझे जनार्दन द्विवेदी से मिलने को कहा। मुझे सोनिया गांधी का इंटरव्यू चाहिए था, सो जनार्दन द्विवेदी के पास गया। कहा जाता है कि उन दिनों वह सोनिया गांधी का भाषण लिखा करते थे। वह मुझसे नहीं मिले। अपने सहायक से दूसरे दिन आने को कहलवा दिया। मैं दूसरे दिन भी गया पर वह नहीं मिले। उनके सहायक ने अगले दिन आने को कहा। पांच बार टालने के बाद आख़िरकार वह मुझसे मिले ज़रूर, लेकिन बहुत अनिच्छा के साथ। उस समय मुझे साफ़ लगा कि सोनिया गांधी का इंटरव्यू नहीं मिल सकता, क्योंकि उनके आसपास चमचों का बहुत स्ट्रांग घेरा होता है।

लिहाज़ा, मैंने व्यर्थ का चक्कर लगाना छोड़ दिया। क़रीब दो साल तक मैं दिल्ली में रहा। इस दौरान दिल्ली की हर प्रमुख शख़्सियत चाहे वह साहित्यकार हो, पत्रकार हो, कलाकार हो या राजनेता हो, से मिला। कमलेश्वर से मिलने उनके बंगले पर पहुंच गया। बहुत प्रेम से मिले और अपने बैठक में बिठाया और शरबत पिलाया। अटलबिहारी वाजपेयी तब प्रधानमंत्री थे, मैं उनसे मिलने 7 रेसकोर्स पहुंच गया। उनसे संक्षिप्त मुलाक़ात हुई। उन्हें एक पत्र दिया। बाद में पीएमओ से उस पत्र का जबाव आया, लेकिन कार्रवाई कुछ नहीं हुई। उसी दौरान तब शरद पवार, वीवी सिंह, कांशीराम समेत क़रीब-क़रीब सभी शीर्ष नेताओं से उनके बंगलों पर मिला। कई लोगों से मिल भी नहीं पाया, लेकिन कोशिश सबसे मिलने की की। 

वयोवृद्ध सीताराम केसरी तो मुझे अच्छी तरह पहचानने लगे। उनके निजी सहायक नन्हकी और टेलीफोन ऑपरेटर शिवजी और बंगले के सभी कर्मचारियों से घनिष्ठ रिश्ता सा बन गया था। केसरी के यहां से मेरे कार्यालय में अकसर फोन आता था। उसी दौरान मेरे सीनियर पत्रकार अनिल ठाकुर जी को केसरी का एक इंटरव्यू चाहिए था, पर केसरी किसी को इंटरव्यू नहीं देते थे। तो अनिल जी का इंटरव्यू मैंने ही किया। जिसका मुझे 400 रुपए पारिश्रमिक मिला। 

मगर दुर्भाग्य से तंगी के उस दौर में 400 रुपए पर डीटीसी बस में किसी पाकेटमारों ने हाथ साफ़ कर दिया. बहरहाल, जब केसरी बीमार होकर एम्स में भर्ती हुए तो मुझे अख़बार पढ़कर सुनाने के लिए बुलावाते थे। वह बमुश्किल उठ पाते थे। केसरी के पुराना किला रोड के बंगले पर मेरी कई कांग्रेस नेताओं से मुलाकात हुई, जिनमें स्वर्गीय माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट भी थे। विलासराव देशमुख भी केसरी से मिलने उनके बंगले पर आते थे। सिंधिया केसरी को बहुत मानते थे क्योंकि नरसिंह राव के समय कांग्रेस छोड़ने के बाद केसरी ही उन्हें और विलासराव देशमुख को वापस कांग्रेस में लेकर आए थे।

इन लोगों से मेरी पुराना किला वाले बंगले पर कई मुलाक़ात हुई, क्योंकि मैं केसरी के बंगले पर अक्सर चला जाता था। वह लोगों की बड़ी मदद करते थे। केसरी के बंगले पर कई बहुत ही बड़े पत्रकारों को भी आते मैं देखता था। कई लोगों को देखकर मुझे हैरानी भी होती थी। बहरहाल, उन्हीं दिनों अचानक घर से फोन आने पर वापस मुंबई चला आया। मुंबई में उसी साल यूएनआई में नौकरी मिल गई और फिर कभी दिल्ली गया ही नहीं।

बुधवार, 27 अगस्त 2014

व्यंग्य : अच्छे दिन’ आ जाओ प्लीज!

वहां बहुत बड़ी भीड़ थी. लोगों में जिज्ञासा थी. सब के सब एक बंकर में झांकने की कोशिश कर रहे थे. जानना चाहते थे, उस ओर कौन है? दरअसल, कहा जा रहा था, अच्छे दिन आया, मगर बंकर में छिप गया. वह निकल ही नहीं रहा था. अच्छे दिन के छिपने की बात जंगल के आग की तरह फैली. अच्छे दिन को देखने के लिए आसपास के लोग जुटने लगे. इतनी भीड़ जुट रही थी तो बाज़ारवादी पीछे क्यों रहते. कंपनियों के विज्ञापन की बड़ी बड़ी होर्डिंग लग गई. अच्छे दिन आ जाओ. वेलकम अच्छे दिन. विज्ञापनों की भरमार लग गई.

वहीं एक ग़रीब महिला चिल्ला रही थी. ज़ोर-ज़ोर से बोल रही थी, -अच्छे दिन आ जाओ. निकल आओ अच्छे दिन. देखो न, लोग तुम्हारा कितना इंतज़ार कर रहे हैं. तुम्हें गले लगाना चाहते हैं. तुम्हें प्यार करना चाहते हैं. तुम्हें देखने को व्याकुल हैं. तुम इतना इंतज़ार क्यों करवा रहे हो. देश तुम्हारा इंतज़ार तीन महीने से कर रहा है. अब तो निकल आओ. मेरे लाडले अच्छे दिन. मेरे प्यारे अच्छे दिन. मेरे बाबू अच्छे दिन. मुझे तुम पर लाड़ आ रहा है.

लेकिन अच्छे दिन था कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था. ज़िद्दिया गया था. पता नहीं क्या मांग थी उसकी, बाहर आने के लिए. उसकी शर्त कोई नहीं जानता था. बस सभी लोग मन से चाह रहे थे, अच्छे दिन बाहर आ जाए. कई लोग उसे कोस भी रहे थे कि इतना भाव खा रहा है. आ ही नहीं रहा है. लगता है विपक्ष से मिल गया है.

वहां की भीड़ भी अच्छे दिन को देखना चाहती थी. लिहाज़ा, लोग मनुहार कर रहे थे, अच्छे दिन आ जाओ. लेकिन अच्छे दिन अपनी ज़िद पर अड़ा था. वह आना ही नहीं चाहता था. निकल ही नहीं रहा था. सो, पास में अच्छे दिन आने के लिए आरती शुरू हो गई. कई लोग दुआएं करने लगे. ढेर सारे लोगों ने प्रे करना शुरू कर दिया. कुछ लोग वाहे गुरु से गुहार करने लगे. कैसे नहीं मानेगा, अच्छे दिन को तो अब आना ही पड़ेगा.

अच्छे दिन के बस आने की ख़बर मीडिया में आ गई. टीवी न्यूज़वाले पहुंच गए. सभी चैनलों की ओबी वैन खड़ी है गई. रिपोर्टर राउंड द क्लॉक लाइव देने लगे. अख़बारों में एक्सक्लूसिव रिपोर्ट छपने लगी. चाय वाले भी आए. खान-पान वाले आ गए. छोटे से गांव में रौनक इतनी बढ़ी कि शहर बन गया. लोग यही कह रहे थे, बस अच्छे दिन अब आया कि तब. पूरा देश अच्छे दिन का इंतज़ार करने लगा. जो आया लेकिन बंकर में छिप गया था.

एक बार टीवी में आ गया तो पूरा देश जान गया. जो जहां था, वहीं खड़े होकर अच्छे दिन का इंतज़ार करने लगा. चंद दिनों में पूरा देश जान गया, देश में अच्छे दिन आ गया है. वह किसी सीमावर्ती जगह किसी बंकर में छिप गया है. अपनी सेना उसे बाहर निकलकर ज़मीन पर लाना चाहती है.

हर ज़बान पर था, अच्छे दिन बस आने वाला ही है. लोग चुनाव के समय सुन रहे थे. सो अच्छे दिन के लिए जमकर वोट डाला था. सुना था, अच्छे दिन के आते ही भारत ग़रीबी-अमीरी का भेद मिट जाएगा. यहां ख़ूब कल-कारखाने लगेंगे. बेरोज़गारों को रोज़गार मिल जाएगा. कई लोगों को तो दो-दो तीन-तीन नौकरियां मिल जाएंगी. महंगाई दुम दबाकर भागेगी. सभी चीज़ों के दाम कम होंगे. हो सकता है हर चीज़ मुफ़्त मिलने लगे. अच्छे दिन के आने के बाद 24 घंटे बिजली मिलेगी.

भारत में अच्छे दिन के आने की रिपोर्ट सरहद पार गई. पाकिस्तान और चीन में ख़बर फैल गई, भारत में अच्छे दिन आ गया. पाकिस्तानी सेना से इसके बाद नहीं रहा गया. अच्छे दिन पर क़ब्ज़ा करने के लिए गोलीबारी करने लगी. भारत भी कम नहीं है. कसम ले लिया है, अहिंसा का पालन करते हुए अच्छे दिन की हिफ़ाज़त करेगा. उधर लद्दाख सीमा से चीनी सैनिक भी भारतीय सीमा में घुस रहे हैं. वे भी अच्छे दिन को देखना चाहते हैं. उन्हें डर हैं, अच्छे दिन के आ जाने से भारत उन्हें तरक़्क़ी में पीछे न छोड़ दे. दुनिया में सबसे ताक़तवर न हो जाए.

उधर, अच्छे दिन के आ जाने और बंकर में छिप जाने की ख़बर उड़ती हुई पीएमओ तक पहुंच गई. प्रधानमंत्री के सलाहकारों ने पीएम को मुबारक़वाद दी, अच्छे दिन आ गया है. बस उसके बंकर से बाहर निकालने की देर है. यह काम लाठीचार्ज और गोली चलाने में उस्ताद भारतीय पुलिस चुटकी में कर सकती है. यह काम उसे ही सौंप दिया जाना चाहिए. अच्छे दिन दुम दबाकर बाहर निकल आएगा.

प्रधानमंत्री ने सलाहकारों को लताड़ा, अच्छे दिन जी की मैं कितनी व्यकुलता से इंतज़ार कर रहा हूं. तुम लोगों को नहीं मालूम. इसीलिए तुम लोग उनके लिए असम्मान भरी बात कह रहे हो. जाओ अच्छे दिन जी के स्वागत की तैयारी करो. हम अच्छे दिन जी को सिर आंखों पर बिठाएंगे.

इसके बाद पूरा का पूरा पीएमओ बंकर के पास शिफ़्ट हो गया. गांव की बुढ़िया से कहा गया, प्रधानमंत्री के आने की ख़बर अच्छे दिन को दे. उससे कहे, अच्छे दिन बाहर आए. वह ज़रूर बाहर आ जाएगा. आख़िरकार गांव के लोगों ने पहली बार अपने आसमान में हेलिकॉप्टर उड़ते देखा.

प्रधानमंत्रीजी आ गए, प्रधानमंत्रीजी आ गए. अब तो अच्छे दिन को आना पड़ेगा. लोग चिल्लाने लगे.
बंकर के सामने कुर्सी लगाई गई. प्रधानमंत्री उस पर बैठ गए. बुढ़िया आदेश पाकर फिर बंकर के पास गई. धीरे से बोली –अच्छे दिन, आ जाओ. प्रधानमंत्रीजी तुम्हारा स्वागत करने के लिए ख़ुद आए हैं.

धीरे-धीरे हरकत हुई. बंकर से एक नंग-धड़ंग लड़का निकला. वह कांप रहा था. उसकी चड्ढी गीली हो गई थी. लोगों को लगा. अच्छे दिन उसके बाद निकलेगा.

तभी वहां के बच्चे चिल्लाने लगे, -यह तो अच्छे लाल है. यह तो अच्छे लाल है. यह अच्छे दिन नहीं है.

हां, माई बाप, मैं भी अच्छे दिन अच्छे दिन सुन रही थी. लिहाज़ा अपने बेटे अच्छे लाल का नाम अच्छे दिन कर दिया. उसे अच्छे दिन अच्छे दिन पुकारने लगी और वह शरमाकर बंकर में छिप गया था. बुढ़िया ने कांपते हुए बताया.

उसी समय होर्डिंग में एक व्यक्ति प्रकट हुआ. वह मुस्कराकर था. सिर हिलाते हुए गाने लगा, ऊल्लू बनाविंग-ऊल्लू बनाविंग!
 

  

यू-टर्न लेकर अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली राज ठाकरे ने

हरिगोविंद विश्वकर्मा
राज ठाकरे ने नागपुर में 24 अगस्त को चुनाव न लड़ने का ऐलान करके अपने पांव पर एक तरह से कुल्हाड़ी मार ली है. इसका कई मोर्चे पर राज को नुकसान उठाना पड़ेगा. पार्टी अब अधूरे मन से चुनाव लड़ेगी. वैसे राज के फ़ैसले से सबसे ज़्यादा हानि ख़ुद उनकी होगी एक राजनेता के रूप में. वह कभी परिपक्व नेता नहीं बन पाएंगे. दरअसल, किसी भी नेता या पब्लिक लाइफ़ में उतरने वाले व्यक्ति को हर उस मंच का अनुभव होना ही चाहिए, जहां डिबेट होता है. यानी जहां आपका विरोध करने की हिम्मत रखने वाले लोग भी बैठे हों. ऐसे में नेता के हर भाषण का बारीक़ी से विश्लेषण होगा और उसे मुहतोड़ जबाव दिया जाएगा. इससे नेता ख़ुद महसूस करता है कि कहां उसने ग़लत बोल दिया या कहां उसका वक्तव्य सही था. अपनी बातों के काट जाने से वह सावधान होगा और अगली बार और तैयारी एवं अध्ययन के बाद ही अपनी बात कहेगा. इस प्रक्रिया से गुज़रने के बाद हर नेता धीरे-धीरे परिपक्व यानी सीज़न्ड हो जाता है. इसलिए, हर नेता का विधानसभा या लोकसभा चुनाव लड़ना ज़रूरी होता है. अगर उसे हारने से डर सता रहा है तो वह विधानपरिषद या राज्यसभा में जा सकता है. लेकिन उसे वाद-विवाद वाले फ़ोरम का मंच ज़रूर शेयर करना चाहिए.

अगर ठाकरे परिवार की बात करें तो वह इस तरह के डिबेट वाले एक्सपोज़र से अब तक पूरी तरह वंचित रहा है. इस परिवार की दूसरी पीढ़ी राजनीति में है. लेकिन अभी तक किसी ने चुनाव नहीं लड़ा और न ही किसी सदन की सदस्यता ली. इससे इस परिवार के नेताओं के भाषणों में वह मैच्यौरिटी नहीं दिखी जो किसी सीज़न्ड पॉलिटिशियन्स में आमतौर पर होगी चाहिए. इस परिवार के नेता बाल ठाकरे के दौर से आए दिन बेहद विवादित, असंवैधानिक और लोगों को नाराज़ करने वाले बयान देते रहे हैं. इसके चलते तो एक बाल ठाकरे की नागरिकता छह साल के लिए छीन ली गई थी. यानी छह साल वह वोट ही नहीं दे पाए. दरअसल, बाल ठाकरे देश के बहुत अच्छे नेता हो सकते थे, लेकिन अगर उन्होंने चुनाव लड़ा होता तब. चुनाव न लड़ने से या संसद या विधानसभा की बहस के वंचित रहने से उनके विचारों में वह परिपक्वता नहीं दिखी जो आमतौर पर होना चाहिए थी. एक बार तो उन्होंने अपनी एक सभा में एक जज तक को भला-बुरा कह दिया था, जिसके लिए उन्हें बाद में ख़ेद जताना पड़ा. उनके ख़िलाफ़ अकसर मानहानि के मुक़दमे दायर होते थे, जो अगर वह संसदीय परंपरा में उतर कर वाद-विवाद में हिस्सा लिए होते तो शायद न होता.


दरअसल, ठाकरेज़ (सभी ठाकरे) की समस्या यह रही कि कम उम्र या वाद-विवाद का सामना किए बिना वे पार्टी के मुखिया बना दिए जाते रहे हैं. जब शिवसेना का जन्म हुआ और बाल ठाकरे प्रमुख बने तब वह 40 साल के नहीं थे. तब तक उन्होंने कोई चुनाव भी नहीं लड़ा था. लिहाज़ा, पार्टी का सर्वेसर्वा बन जाने से नेता चमचों से घिर जाता है. चमचे किसी भी राजनेता के व्यक्तित्व के विकास में सबसे बड़ी बाधा होते हैं. दरअसल, चमचे, नेता के सही को सही तो कहेंगे ही, उसके ग़लत को भी डर के मारे सही कहने लगते है. इससे नेता अपनी कही हुई ग़लत बात को भी सही मानने लगता है. यहीं से उसका वैचारिक पतन शुरू हो जाता है. बाल ठाकरे के साथ यही हुआ. चमचों ने उन्हें वैचारिक रूप से ग़रीब बना दिया. अगर वह चुनाव लड़े होते. लोकसभा का अनुभव लिए होते. तब निश्चित तौर पर लोकसभा की बहस उन्हें परिपक्व कर देती और तब वह शर्तिया देश के प्रधानमंत्री भी बन सकते थे. बाल ठाकरे में वह क़ाबिलियत तो थी ही जो राष्ट्रीय नेता में होनी चाहिए. यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं कि भीमराव अंबेडकर के बाद महाराष्ट्र की धरती पर पैदा होने वाले बाल ठाकरे अब तक के सबसे लोकप्रिय और सर्व मान्य नेता रहे. जैसे इस देश की जनता नरेंद्र मोदी पर यक़ीन कर लिया, एक बार बाल ठाकरे पर भी यक़ीन कर लेती. तब शायद देश को प्रधानमंत्री देने का महाराष्ट्र के लोगों का सपना पूरा हो जाता.

अब राज ठाकरे का भी यही हाल है. राज का मराठी मानुस का पूरा दर्शन ही असंवैधानिक है. उनके ख़िलाफ़ अब तक कोई सख़्त कार्रवाई नहीं हुई, इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने जो बोला वह संविधान के अनुसार था. दरअसल, महाराष्ट्र या मुंबई में केवल मराठी लोगों को प्रवेश देने के लिए संविधान में परिवर्तन करना होगा. संविधान में साफ़-साफ़ लिखना होगा कि दूसरे प्रांत के लोग यहां रोज़ी-रोटी के लिए नहीं आ सकते हैं. तब ही कोई नेता कहेगा कि देश के दूसरे प्रांत के लोग मुंबई या महाराष्ट्र में क़दम न रखें जो वह जायज होगा. लेकिन जब तक संविधान में यह परिवर्तन नहीं हो जाता किसी नेता को किसी भारतीय नागरिक को देश के किसी कोने में जाने या रोज़ा-रोटी कमाने से रोकने का कोई हक़ नहीं है. अगर कोई नेता ऐसा करता है, तो संविधान का उल्लंघन का मामला दर्ज करके उसके ख़िलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए.

इसीलिए, 31 मई की शाम जब राज ठाकरे ने सोमैया ग्राउंड में ऐलान किया था कि वह विधानसभा चुनाव लड़ेंगे और अगर चुनाव में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को बहुमत मिला तो सत्ता वही संभालेंगे. यानी राज ठाकरे ने खुद को पार्टी का सीएम उम्मीदवार घोषित कर दिया था. चुनाव में उनकी पार्टी का चाहे जो हश्र होता, लेकिन राज तो शर्तिया चुनाव जीत जाते. वह पांच साल विधान सभा में जाते और जो कुछ बोलते जब उन्हें जवाब मिलता की उनका बयान या उनकी फिलॉसफी कितनी सही है कितनी ग़लत. यह यहा-कदा दिल्ली या अन्य जगह जाते. वहां भी भाषण करते. तब पता चलता वह किस तरह की बातें करते हैं. तो आम तौर पर सभी ने राज ठाकरे के विधान सभा चुनाव लड़ने के फ़ैसले का स्वागत किया था. क्योंकि अब तक लोग राज ठाकरे का जो भाषण देखते-सुनते हैं उसमें गहराई नहीं होती, उसमें उच्छश्रृंखलता दिखती है जो किसी राजनेता को वैचारिक रूप से हलका करती है. लोकसभा चुनाव के दौरान राज ठाकरे ने भी हर चैनल को इंटरव्यू दिया. हिंदी बोलने की अपनी कसम तोड़ दी लेकिन हर इंटरव्यू में वह वैचारित रूप से कमज़ोर नज़र आए. उस कमजोरी को दूर करने का मौक़ा उन्हें ऐसेंबली में निश्चित तौर पर मिलता.


राजनीतिक हलक़ों माना जा गया कि राज ठाकरे ने नरेंद्र मोदी के पदचिन्हों पर चलते हुए चुनाव से पहले खुद को सीएम उम्मीदवार घोषित किया था. यानी जिस तरह बीजेपी ने लोकसभा चुनाव से पहले मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर चुनाव लड़ा, राज उसकी पैटर्न को अपनाना चाहते थे. उन्होंने मोदी पैटर्न अपनाया पर किया कुछ नहीं. मोदी ने प्रधानमंत्री पद का बीजेपी प्रत्याशी बनाए जाने के बाद तूफानी दौरे शुरू कर दिए. लेकिन राज ठाकरे ने चुनाव लड़ने का ऐलान करने के बाद चुपचाप घर में बैठ गएकुछ नहीं किया. यहां तक कि राज से ज़्यादा ऐक्टिव उनके चचरे भाई उद्धव ठाकरे रहे. उद्धव फ़िलहाल, महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा मेहनत करने वाले राजनेता हैं. वह पूरे राज्य का दौरा कर रहे हैं. उनका रोज़ाना कहीं न कहीं प्रोग्राम रहता है. राज ठाकरे के विधानसभा चुनाव का बिगुल फूंकने जो उनके कार्यकर्ताओं में जो जोश आया था, राज के यू-टर्न लेने से वह जोश ठंडा पड़ गया. अगर विधान सभा चुनाव में इस बार एमएनएस पिछली बार से कम सीटें जीते तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. लिहाज़ा, कह सकते हैं कि राज ठाकरे के चुनाव लड़ने से पीछे हटने को उनके लिए चुनाव से पहले हार मान लेने का प्रतीक है.

शनिवार, 23 अगस्त 2014

डेढ़ दशक बाद अख़बार के दफ़्तर में एक शाम

लंबे अरसे, तक़रीबन 16 साल, बाद शनिवार की मेरी पूरी की पूरी शाम, जिसे हम इवनिंग शिफ़्ट भी कह सकते हैं, किसी अख़बार के दफ़्तर में गुज़री. वैसे, अख़बार के दफ़्तर में मेरी अंतिम शाम मई 1999 में अमर उजाला कारोबार के नोएडा दफ़्तर में थी. वह अख़बार का मेरा अंतिम दफ़्तर था. उसके बाद पहले यूएनआई और उसके बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आ गया. इस दौरान उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और महाराष्ट्र में यदा-कदा संपादकों से मिलने अख़बारों के दफ़्तर जाना होता था लेकिन पूरी शिफ़्ट गुज़ारने के लिए डेढ़ दशक से ज़्यादा वक़्त इंतज़ार करना पड़ा. और मौक़ा दिया बड़े भाई ओमजी ने कि एक दिन मैं अपनी पूरी शाम अख़बार के दफ़्तर में गुज़ारूं.
हुआ यूं, कि पिछले रविवार वास्तुशास्त्री-ज्योतिष दोस्त अशोक शर्माजी के साथ वैसे ही ओमजी से मिलने चला आया. बहुत दिन से मिला नहीं था. बातचीत के दौरान ही आदेश मिला कि अगले सप्ताह यहां बतौर अतिथि संपादक काम करने आना है. ओमजी का आदेश न मानने का साहस मुझमें तो नहीं है, सो सिर झुकाकर विनम्रता से कहा, आपका आदेश सिरोधार्य हैं. शनिवार साप्ताहिक अवकाश था सो टीवी 9 के दफ़्तर जाने की झंझट नहीं थी. झंझट मैंने इसलिए कहा क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रेशर झेलना हर किसी के वश में नहीं होता. इसलिए इसे आमतौर पर झंझट ही कहा जाता है. बहरहाल, मन बना लिया कि शनिवार की पूरी की पूरी शाम ओमजी के साथ ही गुज़रेगी.
लिहाज़ा, सुबह से ही दिमाग़ में कि आज शाम एब्सल्यूट इंडिया के दफ़्तर जाना है. आप किसी अख़बार के दफ़्तर में जाएं और कोई पीस न लिखें, यह कहां संभव है. प्रिंट के संपादक होते ही ऐसे घाघ हैं कि किसी से भी कॉलर पकड़कर लिखवा लें. बड़े भाई ओमजी की तो बात ही निराली है. वह तो सौम्यता की प्रतिमूर्ति हैं. फिर, पत्रकारिता का कखगघ उन्हीं के सानिध्य में जो सीखा. इसलिए, सुबह ही सोचने लगा किस टॉपिक पर लिखूं. व्यंग्य लिखूं, कोई फ़ीचर लिखूं या फिर कोई सीरियस पोलिटिकल कमेंट लिखू दूं. इराक़ में आईएसआईएस आतंकवादी का कैमरे के सामने अमेरिकी पत्रकार जेम्स फ़ॉली का सिर क़लम करने की दिल दहलाने वाली घटना जेहन में कई दिन बीत जाने के बाद भी गुमड़ रही थी, तो ग़ाज़ा में इज़राइल हमास संघर्ष में रोज़ाना हो रही मौतें भी मन को मथ रही थी. नरेंद्र मोदी के शासन में एलओसी और आईबी पर लगातार पाकिस्तानी रेंज़र्स की गोलीबारी और 75वां सीज़फ़ायर वाइलेशन भी मथ रहा था. याद आया, चुनाव प्रचार के दौरान मोदी सीज़फ़ायर वाइलेशन पर बहुत बोलते थे, अब एकदम चुप हैं. आरएसपुरा सेक्टर में दो भारतीयों की हत्या पर भी बीजेपी हुक़्मरान ख़ामोश हैं. इसी तरह मोदी की सभाओं में एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन मुख्यमंत्रियों की हूटिंग के बाद रांची में नरेंद्र सिंह तोमर को काले झंडे दिखाने पर बीजेपी-जेएमएम में क्लैश जैसा इशू भी जेहन में था. इस बीच स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन का बयान सुनकर हंसी आ गई कि देश के प्रमुख स्वास्थ्य संस्थानों में भ्रष्टाचार वह कतई सहन नहीं करेंगे. हर्षवर्धन गले में ईमानदारी का बोर्ड लटकाए घूमते हैं. दरअसल, हेल्थ मिनिस्टर ने यह बयान एम्स से भ्रष्टाचार उजागर करने वाले अधिकारी संजीव चतुर्वेदी को हटाने के बाद दिया था. इस पर भी लिखने का मन हुआ. वैसे, घर से निकलते-निकलते मायावती की पीसी भी सुन ली थी, उन्हें मलाल था, मोदी को तीन महीने होने वाले हैं पीएम बने, अभी अच्छे दिनों का कुछ अता-पता नहीं. अच्छे दिन का इंतज़ार मायावाती ही नहीं, देश का हर आदमी कर रहा है, लेकिन चौंकाया मायावती की आगे की बात ने. मायावाती के मुताबिक, अच्छे दिन लाने के लिए तीन महीने का वक़्त पर्याप्त होता है. बहरहाल, मीरारोड में ट्रेन ली तो नए मॉडल की ट्रेन में भी गंदगी काफी दिखी. सीट के नीचे तो कचरे का ढेर सा था. मैंने उसे यह समझकर नज़रअंदाज़ किया कि मोदी ने कहा है कि सफाई अभियान दो अक्टूबर को गांधी जयंती से शुरू होगा. लिहाज़ा, रेलवे वाले थोड़ी गंदगी कर लें, ताकि उसे ही साफ़ करें. इसलिए सफ़ाई रेल कर्मचारी आजकल थोड़ी मोहलत में हैं और ट्रेन गंदी. वैसे भी दो अक्टूबर से सफ़ाई पर धकाधक काम करने वाले हैं, हर ट्रेन को चमकाने वाले हैं. ट्रेन से अंधेरी उतरा तो सीढ़ियों पर भागमभाग दिखी. लोग बेतहाशा भाग रहे थे. पता चला ऐन मौक़े पर लेडी अनाउंसर ने घोषणा कर दी कि प्लेटफ़ॉर्म 5 की चर्चगेट फॉस्ट लोकल 3 नंबर प्लेटफ़ॉर्म पर आएगी. इसलिए दो तीन मिनट बचाने के लिए मुंबई के लोकल यात्री भाग रहे थे. लोगों को धक्के मार रहे थे.
बहरहाल, एब्सल्यूट इंडिया दफ़्तर पहुंचने पर दफ़्तर में ओमजी ने बड़ा सम्मान दिया. पता नहीं मैं डिज़र्व करता हूं या नहीं. अपने पूरे स्टॉफ़ से परिचय करवाया. कभी सहकर्मी रहे बसंत मौर्य और आदित्य दुबे समेत कई साथियों से पुराना परिचय था. सबके साथ फोटो खिंचवाई. और आदेश दिया, मैं ऑफ़िस में अपना अनुभव क़लमबद्ध करूं. मेरे लिए यह बहुत मुश्किल भरा काम था. पर करना ही था, फरमान जो था. यह भी कहा कि आज हर पेज की हेडिंग और लेआउट चेक भी चेक करूं. बातचीत के दौरान फ़ीचर पेज बन गया. जिसमें स्व. प्रो. उडुपी राजगोपालाचार्य (यूआर) अनंतमूर्ति की कहानी कामरूपीथी. यह देखकर लगा सचमुच ओमजी मुंबई की हिंदी पत्रकारिता को बदल रहे हैं. कहानी बड़ी थी. पूरा पेज छोटा पड़ रहे था. मैंने कह दिया, कहानी एडिट करना या उसमें काट-छांट करना साहित्यिक अपराध है, सो शेष दूसरे पेज पर दे दीजिए. ओमजी मान गए. अच्छा लगा. क़लम से लिखना तो 1998 में ही छूट गया था, सो सोचने लगा कि कंप्यूटर मिल जाता तो काम हो जाता. पुराने सहयोगी सोनू के सौजन्य से कंप्यूटर मिल गया और लिखने बैठ गया. इस दौरान पेज भी आते रहे. उन्हें चेक करता रहा और अपने बोर करने वाले अनुभव लिख डाला. और मेरी कला तो देखिए, आपसे बोरिंग लेख पढ़वा भी लिया!

हरिगोविंद विश्वकर्मा