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रविवार, 31 अगस्त 2014

स्मरणः सचमुच बहुत कठिन होता है सोनिया से मिलना

कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो चुके सांसद जगदंबिका पाल सिंह सही कह रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलना सचमुच बहुत कठिन होता है। चंद लोगों को छोड़कर आम कांग्रेसियों से भी वह बमुश्किल ही मिल पाती हैं। 

1999 की गर्मियों में जब शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल को लेकर काग्रेस से बग़ावत की थी, तब कांग्रेस संकट में थी। उस समय मैंने भी सोनिया गांधी से मिलने की कोशिश की थी। दरअसल, मैं सोनिया का इंटरव्यू लेना चाहता था। सो मिलने की हिमाकत की। हालांकि तब मेरे जैसे छोटे से पत्रकार के लिए यह असंभव सा कार्य था, फिर भी मैंने मिलने को ठान लिया था।

बहुत कोशिश के बाद मिला तो, 
लेकिन अंततः उनका औपचारिक इंटरव्यू नहीं मिल सका। दरअसल, रिपोर्टिंग के दौरान मैं हर जगह अपना सूत्र बना लेता था। 10 जनपथ में भी एक सूत्र बना लिया था। अपने उस सूत्र के ज़रिए कई दिन लगातार फ़ील्डिंग करता रहा। जब सूत्र बोलता था, तब फोन करता था। क़रीब 10 दिन की अनवरत मेहनत के बाद मौक़ा मिल ही गया। 27 या 28 मई 1999 की शाम थी वह। सूत्र ने कहा था कि 4 बजे 10 जनपथ के मेन गेट पर पहुंच जाना। मैं निर्धारित समयसे पहले ही गेट पर पहुंच गया। वहां तैनात गार्डों को बताया कि मुझे सोनिया गांधी से मिलना है। सब के सब हंसने लगे। वे लोग हैरानी से मुझे देखने लगे, क्योंकि तब जो भी सोनिया से मिलने आते थे, सब वीआईपी टाइप लोग होते थे और बहुत महंगी कार में सवार होकर आते थे। उनके पास मोबाइल फोन होते थे। तब मोबाइल स्टैटस सिंबल के रूप में भारत में आ चुका था, लेकिन मेरे पास न तो मोबाइल था, न ही कार थी। महंगी कार की बजाय, मैं डीटीसी की बस से उतर कर पैदल ही 10 जनपथ के गेट तक गया था। मुझे पैदल आते गार्डों ने भी देख लिया था। 

बहरहाल, मेरे दोबारा आग्रह पर 
गोर्डों ने मुलाकातियों की सूची देखी तो उसमें मेरा भी नाम था।

अपना नाम सूची में देखकर मुझे विश्वास हो गया कि आज मैडम से मुलाक़ात हो जाएगी। वरना अपने सूत्र पर भी बहुत भरोसा नहीं था मुझे। इसके बावजूद गार्डों ने मुझे गोट पर ही रोक कर रखा। शाम शार्प 4 बजे मुझे अंदर जाने की इजाज़त मिली। गेट के अंदर जाने वाला मैं इकलौता विजिटर था। 

गेट की सुरक्षा केबिन में मेरी बहुत ही सघन तलाशी हुई थी। मेरी बॉलपेन तक को भी बहुत बारीक़ी से चेक किया गया था। शायद उनको लगा होगा कि कहीं मेरे पास कोई कैप्सूल बम तो नहीं है। खैर, जब अंदर प्रवेश किया तो, कैंपस में एक बहुत बड़ा लॉन नज़र आया। बंगले के कोई 50 मीटर पहले वहीं मुझे रुककर इंतज़ार करने को कहा गया। मैं रुक कर इंतज़ार करने लगा।

मैंने देखा कि दिल्ली कांग्रेस के बहुत बड़े-बड़े नेता लॉन में इंतज़ार कर रहे हैं। मैंने दाढ़ी के कारण सज्जन कुमार को पहचान लिया। दूसरे किसी नेता को पहचान नहीं सका। बहरहाल, 20 मिनट इंतज़ार करने के बाद मैंने देखा कि सुरक्षा गार्डों से घिरी सोनिया गांधी आ रही थीं। उनके साथ उनके निजी सहायक विंस्टन जार्ज और कांग्रेस नेता (जिन्हे मैंने बाद में पहचान सका) इमरान किदवई भी थे, हालांकि तब मैं दोनों को पहचानता नहीं था। 

वहां मौजूद सभी लोग अचानक एक लाइन से खड़े हो गए। कांग्रेस के लोग भी उसी क़तार में खड़े हो गए। मुझे उस समय यह हैरानी हुई कि कांग्रेस के लोग भी मैडम से इस तरह मिलते हैं, क्योंकि तब तक मैं सोचता था कि कांग्रेस के धुरंधर नेता उनसे अकेले मिलते होंगे।

बहरहाल, सोनिया गांधी मेरी बाईं ओर से लोगों से मिलते हुए आ रही थीं। विंस्टन जार्ज और इमरान किदवई के अलावा पांच सुरक्षा गार्ड (कमांडो) भी थे। दो सुरक्षा गार्ड सोनिया गांधी के साथ थे, जबकि दो कमांडो खड़े लोगों के पीछे चल रहे थे। इसके अलावा एक सुरक्षा गार्ड पंक्ति में खड़े लोगों के पीछे पीछे क़रीब से फ़लो कर रहा था। एक कैमरामैन भी था जो हर मुलाक़ाती और सोनिया गांधी की फोटो खींच रहा था। 

क़तार में मुझसे ठीक पहले एक महिला खड़ी थी। शायद वह भी दिल्ली कांग्रेस की नेता थी। कम से कम वह शीला दीक्षित नहीं थीं। बहरहाल, जब सोनिया उसके पास पहुंचीं तो वह बहुत भावुक हो गई और फूट-फूटकर रोने लगी। दरअसल, बग़ावत के बाद सोनिया गांधी के प्रति कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बहुत अधिक सहानुभूति थी। कांग्रेसियों के अनुसार सोनिया गांधी ने भारतीय परंपरा को अपना लिया था और साड़ी का पल्लू बहू की तरह सिर पर रखती थीं, पर पवार, संगमा और तारिक के अलावा भाजपा के लोग भी उन्हें विदेशी कहते थे।

बहरहाल, सोनिया ने उस महिला को गले लगा लिया था। वह सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ बग़ावत से बहुत दुखी लग रही थी। तब सोनिया गांधी हिंदी नहीं बोल पाती थीं। लिहाज़ा, मैंने सुना कि वह अंग्रेज़ी में ही महिला को सांतवना दे रही हैं, लेकिन महिला थी कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। सोनिया गांधी क़रीब 10 मिनट उसके पास खड़ी रहीं और ढांढस बंधाती रही। मुझे लगा वाक़ई सोनिया गांधी सच्ची भारतीय बहूं हैं, वरना वहां इतनी देर क्यों रुकतीं। मैंने सोनिया गांधी को भी भावुक होते देखा। 10 मिनट बाद सोनिया गांधी के चुप कराने पर वह महिला शांत हो गई। मुझे उसी समय लगा सोनिया गांधी नेता चाहे जैसी हो, बहुत अच्छी महिला हैं, भावुक किस्म की महिला, जिसमें इंसानिया भरा है।.

मैं भी बेसब्री से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। बहरहाल जब वह मेरे पास पहुंची तो मैंने बहुत साहस करके पूछ ही लिया. “मैंडम, विल यू विकम द प्राइम मिनिस्टर, इफ गेट मेज़ारिटी इन द इलेक्शन? वीकॉज दं पीपुल ऑफ इंडिया सी यू एज अ बहू, डाटर-इन-लॉ।" 

जैसे ही मैंने यह सवाल किया सब लोग टेंशन में आ गए। मैं ख़ुद बहुत टेंशन में था। पसीना छूट रहा था।

सोनिया गांधी हैरान होकर कुछ सेकेंड मुझे देखती रहीं। शायद वह जानने की कोशिश कर रही थीं, कि मैं कौन हूं, जो उनसे इस तरह का सवाल पूछने की कोशिश की। 

क़रीब 20-25 सेकेंड बाद उन्होंने बहुत धीरे से “नो” कहा। 

मैं कुछ और सवाल पूछ पाता, उससे पहले ही उन्होंने इमरान किदवई को बुलाया और कहा, “आई नीड सच पीपल, जस्ट टाक टू हिम ऐंड इफ़ ही इज़ इंटरेस्टेड आस्क हिम टू वर्क फ़ॉर पार्टी।” 

इमरान किदवई ने मुझसे कहा कि आप मैडम से अलग से मिल लीजिएगा। अभी मैडम को लोगों से मिलने दीजिए।

उसी दौरान फोटोग्राफर ने सोनिया गांधी से मिलते हुए मेरी फोटो भी खींची। बहरहाल, एक मिनट और कुछ सेकेंड की उस मुलाकात के बाद सोनिया गांधी आगे बढ़ गईं।

मज़ेदार बात यह रही कि जब में सोनिया गांधी से बात कर रहा था, तो पीछे के गार्ड ने आहिस्ता से मेरी पैंट की बेल्ट पीछे से पकड़ ली थी, ताकि मैं सोनिया गांधी की ओर और अधिक न बढ़ सकूं।

बहरहाल, मुलाक़ात करने वाले 30-35 लोग थे। सबसे मिलने में शाम के सवा छह बज गए। जब मुलाक़ात का दौर ख़त्म हो गया तो सोनिया गांधी अंदर चली गईं। जाते समय उन्होंने इमरान किदवई को शायद मुझसे मिलने को कहा, क्योंकि सोनिया गांधी के अंदर जाते के फ़ौरन बाद फिर इमरान किदवई मेरे पास आ गए।

मुझसे बिना कुछ पूछे ही उन्होंने कहा, "आप कल 24 अकबर रोड (कांग्रेस मुख्यालय) आइए. आपसे बात करनी है।" 

उस समय मुझे लगा, वाकई सोनिया गांधी का इंटरव्यू मिल जाएगा। मैं बहुत उत्साहित और रोमांचित था।

सो दूसरे दिन 24 अकबर रोड पहुंच गया। वहां तो बहुत अधिक इंतज़ार करवाने के बाद इमरान मुझसे मिले और मुझे जनार्दन द्विवेदी से मिलने को कहा। मुझे सोनिया गांधी का इंटरव्यू चाहिए था, सो जनार्दन द्विवेदी के पास गया। कहा जाता है कि उन दिनों वह सोनिया गांधी का भाषण लिखा करते थे। वह मुझसे नहीं मिले। अपने सहायक से दूसरे दिन आने को कहलवा दिया। मैं दूसरे दिन भी गया पर वह नहीं मिले। उनके सहायक ने अगले दिन आने को कहा। पांच बार टालने के बाद आख़िरकार वह मुझसे मिले ज़रूर, लेकिन बहुत अनिच्छा के साथ। उस समय मुझे साफ़ लगा कि सोनिया गांधी का इंटरव्यू नहीं मिल सकता, क्योंकि उनके आसपास चमचों का बहुत स्ट्रांग घेरा होता है।

लिहाज़ा, मैंने व्यर्थ का चक्कर लगाना छोड़ दिया। क़रीब दो साल तक मैं दिल्ली में रहा। इस दौरान दिल्ली की हर प्रमुख शख़्सियत चाहे वह साहित्यकार हो, पत्रकार हो, कलाकार हो या राजनेता हो, से मिला। कमलेश्वर से मिलने उनके बंगले पर पहुंच गया। बहुत प्रेम से मिले और अपने बैठक में बिठाया और शरबत पिलाया। अटलबिहारी वाजपेयी तब प्रधानमंत्री थे, मैं उनसे मिलने 7 रेसकोर्स पहुंच गया। उनसे संक्षिप्त मुलाक़ात हुई। उन्हें एक पत्र दिया। बाद में पीएमओ से उस पत्र का जबाव आया, लेकिन कार्रवाई कुछ नहीं हुई। उसी दौरान तब शरद पवार, वीवी सिंह, कांशीराम समेत क़रीब-क़रीब सभी शीर्ष नेताओं से उनके बंगलों पर मिला। कई लोगों से मिल भी नहीं पाया, लेकिन कोशिश सबसे मिलने की की। 

वयोवृद्ध सीताराम केसरी तो मुझे अच्छी तरह पहचानने लगे। उनके निजी सहायक नन्हकी और टेलीफोन ऑपरेटर शिवजी और बंगले के सभी कर्मचारियों से घनिष्ठ रिश्ता सा बन गया था। केसरी के यहां से मेरे कार्यालय में अकसर फोन आता था। उसी दौरान मेरे सीनियर पत्रकार अनिल ठाकुर जी को केसरी का एक इंटरव्यू चाहिए था, पर केसरी किसी को इंटरव्यू नहीं देते थे। तो अनिल जी का इंटरव्यू मैंने ही किया। जिसका मुझे 400 रुपए पारिश्रमिक मिला। 

मगर दुर्भाग्य से तंगी के उस दौर में 400 रुपए पर डीटीसी बस में किसी पाकेटमारों ने हाथ साफ़ कर दिया. बहरहाल, जब केसरी बीमार होकर एम्स में भर्ती हुए तो मुझे अख़बार पढ़कर सुनाने के लिए बुलावाते थे। वह बमुश्किल उठ पाते थे। केसरी के पुराना किला रोड के बंगले पर मेरी कई कांग्रेस नेताओं से मुलाकात हुई, जिनमें स्वर्गीय माधवराव सिंधिया और राजेश पायलट भी थे। विलासराव देशमुख भी केसरी से मिलने उनके बंगले पर आते थे। सिंधिया केसरी को बहुत मानते थे क्योंकि नरसिंह राव के समय कांग्रेस छोड़ने के बाद केसरी ही उन्हें और विलासराव देशमुख को वापस कांग्रेस में लेकर आए थे।

इन लोगों से मेरी पुराना किला वाले बंगले पर कई मुलाक़ात हुई, क्योंकि मैं केसरी के बंगले पर अक्सर चला जाता था। वह लोगों की बड़ी मदद करते थे। केसरी के बंगले पर कई बहुत ही बड़े पत्रकारों को भी आते मैं देखता था। कई लोगों को देखकर मुझे हैरानी भी होती थी। बहरहाल, उन्हीं दिनों अचानक घर से फोन आने पर वापस मुंबई चला आया। मुंबई में उसी साल यूएनआई में नौकरी मिल गई और फिर कभी दिल्ली गया ही नहीं।

बुधवार, 27 अगस्त 2014

व्यंग्य : अच्छे दिन’ आ जाओ प्लीज!

वहां बहुत बड़ी भीड़ थी. लोगों में जिज्ञासा थी. सब के सब एक बंकर में झांकने की कोशिश कर रहे थे. जानना चाहते थे, उस ओर कौन है? दरअसल, कहा जा रहा था, अच्छे दिन आया, मगर बंकर में छिप गया. वह निकल ही नहीं रहा था. अच्छे दिन के छिपने की बात जंगल के आग की तरह फैली. अच्छे दिन को देखने के लिए आसपास के लोग जुटने लगे. इतनी भीड़ जुट रही थी तो बाज़ारवादी पीछे क्यों रहते. कंपनियों के विज्ञापन की बड़ी बड़ी होर्डिंग लग गई. अच्छे दिन आ जाओ. वेलकम अच्छे दिन. विज्ञापनों की भरमार लग गई.

वहीं एक ग़रीब महिला चिल्ला रही थी. ज़ोर-ज़ोर से बोल रही थी, -अच्छे दिन आ जाओ. निकल आओ अच्छे दिन. देखो न, लोग तुम्हारा कितना इंतज़ार कर रहे हैं. तुम्हें गले लगाना चाहते हैं. तुम्हें प्यार करना चाहते हैं. तुम्हें देखने को व्याकुल हैं. तुम इतना इंतज़ार क्यों करवा रहे हो. देश तुम्हारा इंतज़ार तीन महीने से कर रहा है. अब तो निकल आओ. मेरे लाडले अच्छे दिन. मेरे प्यारे अच्छे दिन. मेरे बाबू अच्छे दिन. मुझे तुम पर लाड़ आ रहा है.

लेकिन अच्छे दिन था कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहा था. ज़िद्दिया गया था. पता नहीं क्या मांग थी उसकी, बाहर आने के लिए. उसकी शर्त कोई नहीं जानता था. बस सभी लोग मन से चाह रहे थे, अच्छे दिन बाहर आ जाए. कई लोग उसे कोस भी रहे थे कि इतना भाव खा रहा है. आ ही नहीं रहा है. लगता है विपक्ष से मिल गया है.

वहां की भीड़ भी अच्छे दिन को देखना चाहती थी. लिहाज़ा, लोग मनुहार कर रहे थे, अच्छे दिन आ जाओ. लेकिन अच्छे दिन अपनी ज़िद पर अड़ा था. वह आना ही नहीं चाहता था. निकल ही नहीं रहा था. सो, पास में अच्छे दिन आने के लिए आरती शुरू हो गई. कई लोग दुआएं करने लगे. ढेर सारे लोगों ने प्रे करना शुरू कर दिया. कुछ लोग वाहे गुरु से गुहार करने लगे. कैसे नहीं मानेगा, अच्छे दिन को तो अब आना ही पड़ेगा.

अच्छे दिन के बस आने की ख़बर मीडिया में आ गई. टीवी न्यूज़वाले पहुंच गए. सभी चैनलों की ओबी वैन खड़ी है गई. रिपोर्टर राउंड द क्लॉक लाइव देने लगे. अख़बारों में एक्सक्लूसिव रिपोर्ट छपने लगी. चाय वाले भी आए. खान-पान वाले आ गए. छोटे से गांव में रौनक इतनी बढ़ी कि शहर बन गया. लोग यही कह रहे थे, बस अच्छे दिन अब आया कि तब. पूरा देश अच्छे दिन का इंतज़ार करने लगा. जो आया लेकिन बंकर में छिप गया था.

एक बार टीवी में आ गया तो पूरा देश जान गया. जो जहां था, वहीं खड़े होकर अच्छे दिन का इंतज़ार करने लगा. चंद दिनों में पूरा देश जान गया, देश में अच्छे दिन आ गया है. वह किसी सीमावर्ती जगह किसी बंकर में छिप गया है. अपनी सेना उसे बाहर निकलकर ज़मीन पर लाना चाहती है.

हर ज़बान पर था, अच्छे दिन बस आने वाला ही है. लोग चुनाव के समय सुन रहे थे. सो अच्छे दिन के लिए जमकर वोट डाला था. सुना था, अच्छे दिन के आते ही भारत ग़रीबी-अमीरी का भेद मिट जाएगा. यहां ख़ूब कल-कारखाने लगेंगे. बेरोज़गारों को रोज़गार मिल जाएगा. कई लोगों को तो दो-दो तीन-तीन नौकरियां मिल जाएंगी. महंगाई दुम दबाकर भागेगी. सभी चीज़ों के दाम कम होंगे. हो सकता है हर चीज़ मुफ़्त मिलने लगे. अच्छे दिन के आने के बाद 24 घंटे बिजली मिलेगी.

भारत में अच्छे दिन के आने की रिपोर्ट सरहद पार गई. पाकिस्तान और चीन में ख़बर फैल गई, भारत में अच्छे दिन आ गया. पाकिस्तानी सेना से इसके बाद नहीं रहा गया. अच्छे दिन पर क़ब्ज़ा करने के लिए गोलीबारी करने लगी. भारत भी कम नहीं है. कसम ले लिया है, अहिंसा का पालन करते हुए अच्छे दिन की हिफ़ाज़त करेगा. उधर लद्दाख सीमा से चीनी सैनिक भी भारतीय सीमा में घुस रहे हैं. वे भी अच्छे दिन को देखना चाहते हैं. उन्हें डर हैं, अच्छे दिन के आ जाने से भारत उन्हें तरक़्क़ी में पीछे न छोड़ दे. दुनिया में सबसे ताक़तवर न हो जाए.

उधर, अच्छे दिन के आ जाने और बंकर में छिप जाने की ख़बर उड़ती हुई पीएमओ तक पहुंच गई. प्रधानमंत्री के सलाहकारों ने पीएम को मुबारक़वाद दी, अच्छे दिन आ गया है. बस उसके बंकर से बाहर निकालने की देर है. यह काम लाठीचार्ज और गोली चलाने में उस्ताद भारतीय पुलिस चुटकी में कर सकती है. यह काम उसे ही सौंप दिया जाना चाहिए. अच्छे दिन दुम दबाकर बाहर निकल आएगा.

प्रधानमंत्री ने सलाहकारों को लताड़ा, अच्छे दिन जी की मैं कितनी व्यकुलता से इंतज़ार कर रहा हूं. तुम लोगों को नहीं मालूम. इसीलिए तुम लोग उनके लिए असम्मान भरी बात कह रहे हो. जाओ अच्छे दिन जी के स्वागत की तैयारी करो. हम अच्छे दिन जी को सिर आंखों पर बिठाएंगे.

इसके बाद पूरा का पूरा पीएमओ बंकर के पास शिफ़्ट हो गया. गांव की बुढ़िया से कहा गया, प्रधानमंत्री के आने की ख़बर अच्छे दिन को दे. उससे कहे, अच्छे दिन बाहर आए. वह ज़रूर बाहर आ जाएगा. आख़िरकार गांव के लोगों ने पहली बार अपने आसमान में हेलिकॉप्टर उड़ते देखा.

प्रधानमंत्रीजी आ गए, प्रधानमंत्रीजी आ गए. अब तो अच्छे दिन को आना पड़ेगा. लोग चिल्लाने लगे.
बंकर के सामने कुर्सी लगाई गई. प्रधानमंत्री उस पर बैठ गए. बुढ़िया आदेश पाकर फिर बंकर के पास गई. धीरे से बोली –अच्छे दिन, आ जाओ. प्रधानमंत्रीजी तुम्हारा स्वागत करने के लिए ख़ुद आए हैं.

धीरे-धीरे हरकत हुई. बंकर से एक नंग-धड़ंग लड़का निकला. वह कांप रहा था. उसकी चड्ढी गीली हो गई थी. लोगों को लगा. अच्छे दिन उसके बाद निकलेगा.

तभी वहां के बच्चे चिल्लाने लगे, -यह तो अच्छे लाल है. यह तो अच्छे लाल है. यह अच्छे दिन नहीं है.

हां, माई बाप, मैं भी अच्छे दिन अच्छे दिन सुन रही थी. लिहाज़ा अपने बेटे अच्छे लाल का नाम अच्छे दिन कर दिया. उसे अच्छे दिन अच्छे दिन पुकारने लगी और वह शरमाकर बंकर में छिप गया था. बुढ़िया ने कांपते हुए बताया.

उसी समय होर्डिंग में एक व्यक्ति प्रकट हुआ. वह मुस्कराकर था. सिर हिलाते हुए गाने लगा, ऊल्लू बनाविंग-ऊल्लू बनाविंग!
 

  

यू-टर्न लेकर अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली राज ठाकरे ने

हरिगोविंद विश्वकर्मा
राज ठाकरे ने नागपुर में 24 अगस्त को चुनाव न लड़ने का ऐलान करके अपने पांव पर एक तरह से कुल्हाड़ी मार ली है. इसका कई मोर्चे पर राज को नुकसान उठाना पड़ेगा. पार्टी अब अधूरे मन से चुनाव लड़ेगी. वैसे राज के फ़ैसले से सबसे ज़्यादा हानि ख़ुद उनकी होगी एक राजनेता के रूप में. वह कभी परिपक्व नेता नहीं बन पाएंगे. दरअसल, किसी भी नेता या पब्लिक लाइफ़ में उतरने वाले व्यक्ति को हर उस मंच का अनुभव होना ही चाहिए, जहां डिबेट होता है. यानी जहां आपका विरोध करने की हिम्मत रखने वाले लोग भी बैठे हों. ऐसे में नेता के हर भाषण का बारीक़ी से विश्लेषण होगा और उसे मुहतोड़ जबाव दिया जाएगा. इससे नेता ख़ुद महसूस करता है कि कहां उसने ग़लत बोल दिया या कहां उसका वक्तव्य सही था. अपनी बातों के काट जाने से वह सावधान होगा और अगली बार और तैयारी एवं अध्ययन के बाद ही अपनी बात कहेगा. इस प्रक्रिया से गुज़रने के बाद हर नेता धीरे-धीरे परिपक्व यानी सीज़न्ड हो जाता है. इसलिए, हर नेता का विधानसभा या लोकसभा चुनाव लड़ना ज़रूरी होता है. अगर उसे हारने से डर सता रहा है तो वह विधानपरिषद या राज्यसभा में जा सकता है. लेकिन उसे वाद-विवाद वाले फ़ोरम का मंच ज़रूर शेयर करना चाहिए.

अगर ठाकरे परिवार की बात करें तो वह इस तरह के डिबेट वाले एक्सपोज़र से अब तक पूरी तरह वंचित रहा है. इस परिवार की दूसरी पीढ़ी राजनीति में है. लेकिन अभी तक किसी ने चुनाव नहीं लड़ा और न ही किसी सदन की सदस्यता ली. इससे इस परिवार के नेताओं के भाषणों में वह मैच्यौरिटी नहीं दिखी जो किसी सीज़न्ड पॉलिटिशियन्स में आमतौर पर होगी चाहिए. इस परिवार के नेता बाल ठाकरे के दौर से आए दिन बेहद विवादित, असंवैधानिक और लोगों को नाराज़ करने वाले बयान देते रहे हैं. इसके चलते तो एक बाल ठाकरे की नागरिकता छह साल के लिए छीन ली गई थी. यानी छह साल वह वोट ही नहीं दे पाए. दरअसल, बाल ठाकरे देश के बहुत अच्छे नेता हो सकते थे, लेकिन अगर उन्होंने चुनाव लड़ा होता तब. चुनाव न लड़ने से या संसद या विधानसभा की बहस के वंचित रहने से उनके विचारों में वह परिपक्वता नहीं दिखी जो आमतौर पर होना चाहिए थी. एक बार तो उन्होंने अपनी एक सभा में एक जज तक को भला-बुरा कह दिया था, जिसके लिए उन्हें बाद में ख़ेद जताना पड़ा. उनके ख़िलाफ़ अकसर मानहानि के मुक़दमे दायर होते थे, जो अगर वह संसदीय परंपरा में उतर कर वाद-विवाद में हिस्सा लिए होते तो शायद न होता.


दरअसल, ठाकरेज़ (सभी ठाकरे) की समस्या यह रही कि कम उम्र या वाद-विवाद का सामना किए बिना वे पार्टी के मुखिया बना दिए जाते रहे हैं. जब शिवसेना का जन्म हुआ और बाल ठाकरे प्रमुख बने तब वह 40 साल के नहीं थे. तब तक उन्होंने कोई चुनाव भी नहीं लड़ा था. लिहाज़ा, पार्टी का सर्वेसर्वा बन जाने से नेता चमचों से घिर जाता है. चमचे किसी भी राजनेता के व्यक्तित्व के विकास में सबसे बड़ी बाधा होते हैं. दरअसल, चमचे, नेता के सही को सही तो कहेंगे ही, उसके ग़लत को भी डर के मारे सही कहने लगते है. इससे नेता अपनी कही हुई ग़लत बात को भी सही मानने लगता है. यहीं से उसका वैचारिक पतन शुरू हो जाता है. बाल ठाकरे के साथ यही हुआ. चमचों ने उन्हें वैचारिक रूप से ग़रीब बना दिया. अगर वह चुनाव लड़े होते. लोकसभा का अनुभव लिए होते. तब निश्चित तौर पर लोकसभा की बहस उन्हें परिपक्व कर देती और तब वह शर्तिया देश के प्रधानमंत्री भी बन सकते थे. बाल ठाकरे में वह क़ाबिलियत तो थी ही जो राष्ट्रीय नेता में होनी चाहिए. यह कहने में ज़रा भी संकोच नहीं कि भीमराव अंबेडकर के बाद महाराष्ट्र की धरती पर पैदा होने वाले बाल ठाकरे अब तक के सबसे लोकप्रिय और सर्व मान्य नेता रहे. जैसे इस देश की जनता नरेंद्र मोदी पर यक़ीन कर लिया, एक बार बाल ठाकरे पर भी यक़ीन कर लेती. तब शायद देश को प्रधानमंत्री देने का महाराष्ट्र के लोगों का सपना पूरा हो जाता.

अब राज ठाकरे का भी यही हाल है. राज का मराठी मानुस का पूरा दर्शन ही असंवैधानिक है. उनके ख़िलाफ़ अब तक कोई सख़्त कार्रवाई नहीं हुई, इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने जो बोला वह संविधान के अनुसार था. दरअसल, महाराष्ट्र या मुंबई में केवल मराठी लोगों को प्रवेश देने के लिए संविधान में परिवर्तन करना होगा. संविधान में साफ़-साफ़ लिखना होगा कि दूसरे प्रांत के लोग यहां रोज़ी-रोटी के लिए नहीं आ सकते हैं. तब ही कोई नेता कहेगा कि देश के दूसरे प्रांत के लोग मुंबई या महाराष्ट्र में क़दम न रखें जो वह जायज होगा. लेकिन जब तक संविधान में यह परिवर्तन नहीं हो जाता किसी नेता को किसी भारतीय नागरिक को देश के किसी कोने में जाने या रोज़ा-रोटी कमाने से रोकने का कोई हक़ नहीं है. अगर कोई नेता ऐसा करता है, तो संविधान का उल्लंघन का मामला दर्ज करके उसके ख़िलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए.

इसीलिए, 31 मई की शाम जब राज ठाकरे ने सोमैया ग्राउंड में ऐलान किया था कि वह विधानसभा चुनाव लड़ेंगे और अगर चुनाव में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना को बहुमत मिला तो सत्ता वही संभालेंगे. यानी राज ठाकरे ने खुद को पार्टी का सीएम उम्मीदवार घोषित कर दिया था. चुनाव में उनकी पार्टी का चाहे जो हश्र होता, लेकिन राज तो शर्तिया चुनाव जीत जाते. वह पांच साल विधान सभा में जाते और जो कुछ बोलते जब उन्हें जवाब मिलता की उनका बयान या उनकी फिलॉसफी कितनी सही है कितनी ग़लत. यह यहा-कदा दिल्ली या अन्य जगह जाते. वहां भी भाषण करते. तब पता चलता वह किस तरह की बातें करते हैं. तो आम तौर पर सभी ने राज ठाकरे के विधान सभा चुनाव लड़ने के फ़ैसले का स्वागत किया था. क्योंकि अब तक लोग राज ठाकरे का जो भाषण देखते-सुनते हैं उसमें गहराई नहीं होती, उसमें उच्छश्रृंखलता दिखती है जो किसी राजनेता को वैचारिक रूप से हलका करती है. लोकसभा चुनाव के दौरान राज ठाकरे ने भी हर चैनल को इंटरव्यू दिया. हिंदी बोलने की अपनी कसम तोड़ दी लेकिन हर इंटरव्यू में वह वैचारित रूप से कमज़ोर नज़र आए. उस कमजोरी को दूर करने का मौक़ा उन्हें ऐसेंबली में निश्चित तौर पर मिलता.


राजनीतिक हलक़ों माना जा गया कि राज ठाकरे ने नरेंद्र मोदी के पदचिन्हों पर चलते हुए चुनाव से पहले खुद को सीएम उम्मीदवार घोषित किया था. यानी जिस तरह बीजेपी ने लोकसभा चुनाव से पहले मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर चुनाव लड़ा, राज उसकी पैटर्न को अपनाना चाहते थे. उन्होंने मोदी पैटर्न अपनाया पर किया कुछ नहीं. मोदी ने प्रधानमंत्री पद का बीजेपी प्रत्याशी बनाए जाने के बाद तूफानी दौरे शुरू कर दिए. लेकिन राज ठाकरे ने चुनाव लड़ने का ऐलान करने के बाद चुपचाप घर में बैठ गएकुछ नहीं किया. यहां तक कि राज से ज़्यादा ऐक्टिव उनके चचरे भाई उद्धव ठाकरे रहे. उद्धव फ़िलहाल, महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा मेहनत करने वाले राजनेता हैं. वह पूरे राज्य का दौरा कर रहे हैं. उनका रोज़ाना कहीं न कहीं प्रोग्राम रहता है. राज ठाकरे के विधानसभा चुनाव का बिगुल फूंकने जो उनके कार्यकर्ताओं में जो जोश आया था, राज के यू-टर्न लेने से वह जोश ठंडा पड़ गया. अगर विधान सभा चुनाव में इस बार एमएनएस पिछली बार से कम सीटें जीते तो हैरानी नहीं होनी चाहिए. लिहाज़ा, कह सकते हैं कि राज ठाकरे के चुनाव लड़ने से पीछे हटने को उनके लिए चुनाव से पहले हार मान लेने का प्रतीक है.

शनिवार, 23 अगस्त 2014

डेढ़ दशक बाद अख़बार के दफ़्तर में एक शाम

लंबे अरसे, तक़रीबन 16 साल, बाद शनिवार की मेरी पूरी की पूरी शाम, जिसे हम इवनिंग शिफ़्ट भी कह सकते हैं, किसी अख़बार के दफ़्तर में गुज़री. वैसे, अख़बार के दफ़्तर में मेरी अंतिम शाम मई 1999 में अमर उजाला कारोबार के नोएडा दफ़्तर में थी. वह अख़बार का मेरा अंतिम दफ़्तर था. उसके बाद पहले यूएनआई और उसके बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आ गया. इस दौरान उत्तर प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और महाराष्ट्र में यदा-कदा संपादकों से मिलने अख़बारों के दफ़्तर जाना होता था लेकिन पूरी शिफ़्ट गुज़ारने के लिए डेढ़ दशक से ज़्यादा वक़्त इंतज़ार करना पड़ा. और मौक़ा दिया बड़े भाई ओमजी ने कि एक दिन मैं अपनी पूरी शाम अख़बार के दफ़्तर में गुज़ारूं.
हुआ यूं, कि पिछले रविवार वास्तुशास्त्री-ज्योतिष दोस्त अशोक शर्माजी के साथ वैसे ही ओमजी से मिलने चला आया. बहुत दिन से मिला नहीं था. बातचीत के दौरान ही आदेश मिला कि अगले सप्ताह यहां बतौर अतिथि संपादक काम करने आना है. ओमजी का आदेश न मानने का साहस मुझमें तो नहीं है, सो सिर झुकाकर विनम्रता से कहा, आपका आदेश सिरोधार्य हैं. शनिवार साप्ताहिक अवकाश था सो टीवी 9 के दफ़्तर जाने की झंझट नहीं थी. झंझट मैंने इसलिए कहा क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का प्रेशर झेलना हर किसी के वश में नहीं होता. इसलिए इसे आमतौर पर झंझट ही कहा जाता है. बहरहाल, मन बना लिया कि शनिवार की पूरी की पूरी शाम ओमजी के साथ ही गुज़रेगी.
लिहाज़ा, सुबह से ही दिमाग़ में कि आज शाम एब्सल्यूट इंडिया के दफ़्तर जाना है. आप किसी अख़बार के दफ़्तर में जाएं और कोई पीस न लिखें, यह कहां संभव है. प्रिंट के संपादक होते ही ऐसे घाघ हैं कि किसी से भी कॉलर पकड़कर लिखवा लें. बड़े भाई ओमजी की तो बात ही निराली है. वह तो सौम्यता की प्रतिमूर्ति हैं. फिर, पत्रकारिता का कखगघ उन्हीं के सानिध्य में जो सीखा. इसलिए, सुबह ही सोचने लगा किस टॉपिक पर लिखूं. व्यंग्य लिखूं, कोई फ़ीचर लिखूं या फिर कोई सीरियस पोलिटिकल कमेंट लिखू दूं. इराक़ में आईएसआईएस आतंकवादी का कैमरे के सामने अमेरिकी पत्रकार जेम्स फ़ॉली का सिर क़लम करने की दिल दहलाने वाली घटना जेहन में कई दिन बीत जाने के बाद भी गुमड़ रही थी, तो ग़ाज़ा में इज़राइल हमास संघर्ष में रोज़ाना हो रही मौतें भी मन को मथ रही थी. नरेंद्र मोदी के शासन में एलओसी और आईबी पर लगातार पाकिस्तानी रेंज़र्स की गोलीबारी और 75वां सीज़फ़ायर वाइलेशन भी मथ रहा था. याद आया, चुनाव प्रचार के दौरान मोदी सीज़फ़ायर वाइलेशन पर बहुत बोलते थे, अब एकदम चुप हैं. आरएसपुरा सेक्टर में दो भारतीयों की हत्या पर भी बीजेपी हुक़्मरान ख़ामोश हैं. इसी तरह मोदी की सभाओं में एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन मुख्यमंत्रियों की हूटिंग के बाद रांची में नरेंद्र सिंह तोमर को काले झंडे दिखाने पर बीजेपी-जेएमएम में क्लैश जैसा इशू भी जेहन में था. इस बीच स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन का बयान सुनकर हंसी आ गई कि देश के प्रमुख स्वास्थ्य संस्थानों में भ्रष्टाचार वह कतई सहन नहीं करेंगे. हर्षवर्धन गले में ईमानदारी का बोर्ड लटकाए घूमते हैं. दरअसल, हेल्थ मिनिस्टर ने यह बयान एम्स से भ्रष्टाचार उजागर करने वाले अधिकारी संजीव चतुर्वेदी को हटाने के बाद दिया था. इस पर भी लिखने का मन हुआ. वैसे, घर से निकलते-निकलते मायावती की पीसी भी सुन ली थी, उन्हें मलाल था, मोदी को तीन महीने होने वाले हैं पीएम बने, अभी अच्छे दिनों का कुछ अता-पता नहीं. अच्छे दिन का इंतज़ार मायावाती ही नहीं, देश का हर आदमी कर रहा है, लेकिन चौंकाया मायावती की आगे की बात ने. मायावाती के मुताबिक, अच्छे दिन लाने के लिए तीन महीने का वक़्त पर्याप्त होता है. बहरहाल, मीरारोड में ट्रेन ली तो नए मॉडल की ट्रेन में भी गंदगी काफी दिखी. सीट के नीचे तो कचरे का ढेर सा था. मैंने उसे यह समझकर नज़रअंदाज़ किया कि मोदी ने कहा है कि सफाई अभियान दो अक्टूबर को गांधी जयंती से शुरू होगा. लिहाज़ा, रेलवे वाले थोड़ी गंदगी कर लें, ताकि उसे ही साफ़ करें. इसलिए सफ़ाई रेल कर्मचारी आजकल थोड़ी मोहलत में हैं और ट्रेन गंदी. वैसे भी दो अक्टूबर से सफ़ाई पर धकाधक काम करने वाले हैं, हर ट्रेन को चमकाने वाले हैं. ट्रेन से अंधेरी उतरा तो सीढ़ियों पर भागमभाग दिखी. लोग बेतहाशा भाग रहे थे. पता चला ऐन मौक़े पर लेडी अनाउंसर ने घोषणा कर दी कि प्लेटफ़ॉर्म 5 की चर्चगेट फॉस्ट लोकल 3 नंबर प्लेटफ़ॉर्म पर आएगी. इसलिए दो तीन मिनट बचाने के लिए मुंबई के लोकल यात्री भाग रहे थे. लोगों को धक्के मार रहे थे.
बहरहाल, एब्सल्यूट इंडिया दफ़्तर पहुंचने पर दफ़्तर में ओमजी ने बड़ा सम्मान दिया. पता नहीं मैं डिज़र्व करता हूं या नहीं. अपने पूरे स्टॉफ़ से परिचय करवाया. कभी सहकर्मी रहे बसंत मौर्य और आदित्य दुबे समेत कई साथियों से पुराना परिचय था. सबके साथ फोटो खिंचवाई. और आदेश दिया, मैं ऑफ़िस में अपना अनुभव क़लमबद्ध करूं. मेरे लिए यह बहुत मुश्किल भरा काम था. पर करना ही था, फरमान जो था. यह भी कहा कि आज हर पेज की हेडिंग और लेआउट चेक भी चेक करूं. बातचीत के दौरान फ़ीचर पेज बन गया. जिसमें स्व. प्रो. उडुपी राजगोपालाचार्य (यूआर) अनंतमूर्ति की कहानी कामरूपीथी. यह देखकर लगा सचमुच ओमजी मुंबई की हिंदी पत्रकारिता को बदल रहे हैं. कहानी बड़ी थी. पूरा पेज छोटा पड़ रहे था. मैंने कह दिया, कहानी एडिट करना या उसमें काट-छांट करना साहित्यिक अपराध है, सो शेष दूसरे पेज पर दे दीजिए. ओमजी मान गए. अच्छा लगा. क़लम से लिखना तो 1998 में ही छूट गया था, सो सोचने लगा कि कंप्यूटर मिल जाता तो काम हो जाता. पुराने सहयोगी सोनू के सौजन्य से कंप्यूटर मिल गया और लिखने बैठ गया. इस दौरान पेज भी आते रहे. उन्हें चेक करता रहा और अपने बोर करने वाले अनुभव लिख डाला. और मेरी कला तो देखिए, आपसे बोरिंग लेख पढ़वा भी लिया!

हरिगोविंद विश्वकर्मा

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

व्यंग्य : हारना टीम इंडिया का एजेंडा

हरिगोविंद विश्वकर्मा
आजकल भारतीय क्रिकेट टीम खूब हार रही है. जम कर हार रही है. लगातार हार रही है. रविवार को तो लंदन के ओवल में तीसरे दिन ही हार गई. पूरी टीम ने 94 पर ऑलआट होकर इस अहम हार में बड़ा योगदान किया. वैसे, लगता है भारतीय क्रिकेट टीम ने हार को नया एजेंडा बनाया है. लगे रहो भारतीय वीरों. ऐसे ही हारते रहो. हारने का रिकॉर्ड तुमसे कोई नहीं छीन सकेगा. वह दिन दूर नहीं, जब हारने का रिकॉर्ड टीम इंडिया के नाम हो. अग्रिम बधाई. लगातार हारने के लिए शुभकामनाएं.

वैसे भी भारत में खेल को लेकर अगल पंरपरा है. जीतने को अहमियत नहीं दी जाती. खेलना ही सबसे बड़ी खेलभावना मानी जाती है. उसमें भी बिना ख़ास प्रयास के अगर हार मिल रही है, तो क्या कहना. यह तो सोने पर सुहागा जैसा है. ऐसा सौभाग्य बहुत कम लोगों को मिलता है. जहां, देश की महान जनता हारने वाले शूरवीरों को सिर आंखों पर बिठाती है. वाक़ई भारत महान देश है. यहां लोग हारकर भी महान हो जाते हैं. जैसे गांधी देश के बंटवारे के बावजूद महान हो गए. नेहरू चीन से हारने के कारण है आधुनिक भारत के प्रणेता बन गए. देश की तमाम सड़कों का नाम इन्हीं के नाम हो गया. सो, भारतीय हारों और महान बनो. पुरस्कार जीतो.

जीतने के लिए तो सब खेलते हैं. बहुत कम लोग होते हैं, जो हारने के लिए खेलते हैं. महेंद्र सिंह धोनी की अगुवाई में टीम इंडिया वहीं काम कर रही है. मतलब हार रही है. जीतने के लिए बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है. खूब पसीना बहाना पड़ता है. एकदम चौकन्ना होकर खेलना पड़ता है. ये सब तामझाम कौन करे. पैसे तो आमतौर पर उतने ही मिलने हैं. फिर हारा क्यों न जाए. हार से आमदनी पर तो कोई फ़र्क़ पड़ेगा नहीं. इसलिए टीम इंडिया हार को लगा लिया है. वह खूब हार रही है. सच्चे खेलप्रेमियों को गद्गद कर रही है.

हारना उतना भी आसान नहीं है जितना लोग समझते हैं. यानी हार कोई आसान या मोटी बुद्धि का काम नहीं है. हारने के लिए भी दिमाग़ खपाना पड़ता है. मसलन, क्या किया जाए कि हार आसानी से जाए. हार जल्द से जल्द मिल जाए. लिहाज़ा, टीम चुनते समय ख़ास ध्यान दिया जाता है. खिलाड़ियों का चयन उनके रिकॉर्ड के मुताबिक किया जाता है. उनके मौजूदा फ़ॉर्म के आधार पर उनका चुनाव नहीं होता. इससे लगातार हारने में अवरोध आने का ख़तरा रहता है. इन-फ़ार्म बल्लेबाज रन बनाकर हार के महान अभियान को रोक सकता है. इसलिए, तय किया जाता है कि टीम का चयन रिकॉर्ड के आधार पर हो. सो चयन समिति ऐसे महान खिलाड़ियों को चुनती है जो हारने में योगदान करें.

बैटिंग हो या फ़िल्डिंग दोनों में कुछ नियम का पालन करना पड़ता है. मसलन, बल्लेबाज आंख मूंदकर बल्ला चलाते हैं. ध्यान देते हैं कि गेंद बल्ले पर न लगे. नहीं तो रन बनने का ख़तरा रहता है. सो, गेंद लगे तो केवल बल्ले किनारे पर आने देते हैं. ताकि कैच उठे और स्लिप या पॉइंट पर खड़े फ़िल्डरों के हाथ चली जाए. इससे आउट होने में आसानी रहती है. यह भी कोशिश होती है, ज़्यादा से ज़्यादा अच्छे  बल्लेबाज शून्य पर आउट हों. कभी-कभार दुर्भाग्य से बल्लेबाज खाता खुल जाता है. तब है भूल-सुधार की कोशिश करता है. बल्लेबाज दहाई तक पहुंचने से पहले आउट होने की पुरी कोशिश करता है. कभी-कभी बदनसीबी या विपक्षी टीम की बदमाशी से दहाई पार कर जाता है. तब 20 या 30 रन पर पैवेलियन वापस आने की कोशिश करता है. टीम जो भी रन बनती है. उसे गेंदबाज बना देते हैं. दरअसल, शून्य पर आउट होने की टिप उन्हें नहीं मिली होती है. सो दुर्घटनावश वे चौके-छक्के मार बैठते हैं और हार को लंबा खींच देते है. वे मज़ा किरकिरा कर देते हैं. इससे हार के लिए इंतज़ार करना पड़ता है. हार देर से मिलती है.

सहजता से हारने के लिए फ़िल्डिंग करते समय भी रणनीति बनानी पड़ती है. अच्छे कैचटेकर को स्लिप, पॉइंट या कवर पर नहीं खड़ा किया जाता है. उसे उस जगह खड़ा किया जाता है, जहां गेंद कम जाती है. इससे विपक्षी बल्लेबाज के आउट होने का कम से कम ख़तरा रहता है. उसे एक जगह खड़े रहने की हिदायत होती है. वह मैदान में एक जगह खड़े-खड़े कल्पनाएं करता है. अपनी प्रेमिका के बारे में सोचता है. वह फ़िल्डर कैच या गेंद पकड़ने के लिए बिलकुल नहीं दौड़ता. आना होगा तो कैच या गेंद उनके पास आएगा. वरना जाए सीमारेखा के बाहर. इससे हारने की संभावना बलवती होती है.

गेंदबाज भी गेंद को स्टंप पर नहीं मारते. ऐसी गेंद फ़ेकने की कोशिश करते हैं, जिस पर ख़ूब रन बने. विकेट तो कतई न गिरे. विपक्षी टीम का विकेट गिरा, वह जल्द आउट हुई तो हारेंगे कैसे. सो हारने की रणनीति बनाकर गेंद फेंकी जाती है. यह भी कोशिश की जाती है कि जब बल्लेबाज जम जाए तब अच्छे गेंदबाज से गेंद कराई जाती है. इससे अच्छा गेंदबाज जमे हुए बल्लेबाज को आउट नहीं कर पाता. लिहाज़ा, राइवल टीम बड़ा स्कोर बनाती है. बड़े स्कोर के सामने हारने में सुविधा रहती है. आराम से हार जाते हैं. एक पारी के अंतर से हार कर इतिहास बनाते हैं.

ये छोटे-छोटे टिप्स हैं जो हारने में बड़े काम आते हैं. कप्तान इन पर ध्यान देता है. मज़े सा हारता है. धानी ने पिछली दोनों हार को टीम की कामयाबी बताया. इस बात पर खुशी ज़ाहिर की कि टीम इंडिया तीन दिन में ही हार गई. मैच के दो दिन बच गए. घूमने-फिरने और मौज़मस्ती करने के लिए. उम्मीद है हार का टैंपो, टीम इंडिया वनडे मैचों में बनाए रखेगी. ऑल द बेस्ट धोनी ऐंड कंपनी!

समाप्त

रविवार, 17 अगस्त 2014

क्या महात्मा गांधी को सचमुच सेक्स की बुरी लत थी?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी की कथित सेक्स लाइफ़ पर एक बार फिर से बहस छिड़ गई है. लंदन के प्रतिष्ठित अख़बार द टाइम्स के मुताबिक गांधी को कभी भगवान की तरह पूजने वाली 82 वर्षीया गांधीवादी इतिहासकार कुसुम वदगामा ने कहा है कि गांधी को सेक्स की बुरी लत थी, वह आश्रम की कई महिलाओं के साथ निर्वस्त्र सोते थे, वह इतने ज़्यादा कामुक थे कि ब्रम्हचर्य के प्रयोग और संयम परखने के बहाने चाचा अमृतलाल तुलसीदास गांधी की पोती और जयसुखलाल की बेटी मनुबेन गांधी के साथ सोने लगे थे. ये आरोप बेहद सनसनीख़ेज़ हैं क्योंकि किशोरावस्था में कुसुम भी गांधी की अनुयायी रही हैं. कुसुम, दरअसल, लंदन में पार्लियामेंट स्क्वॉयर पर गांधी की प्रतिमा लगाने का विरोध कर रही हैं. बहरहाल, दुनिया भर में कुसुम के इंटरव्यू छप रहे हैं.
वैसे तो महात्मा गांधी की सेक्स लाइफ़ पर अब तक अनेक किताबें लिखी जा चुकी हैं. जो ख़ासी चर्चित भी हुई हैं. मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार जेड ऐडम्स ने पंद्रह साल के गहन अध्ययन और शोध के बाद 2010 में गांधी नैकेड ऐंबिशन लिखकर सनसनी फैला दी थी. किताब में गांधी को असामान्य सेक्स बीहैवियर वाला अर्द्ध-दमित सेक्स-मैनियॉक कहा गया है. किताब राष्ट्रपिता के जीवन में आई लड़कियों के साथ उनके आत्मीय और मधुर रिश्तों पर ख़ास प्रकाश डालती है. मसलन, गांधी नग्न होकर लड़कियों और महिलाओं के साथ सोते थे और नग्न स्नान भी करते थे.
देश के सबसे प्रतिष्ठित लाइब्रेरियन गिरिजा कुमार ने गहन अध्ययन और गांधी से जुड़े दस्तावेज़ों के रिसर्च के बाद 2006 में ब्रम्हचर्य गांधी ऐंड हिज़ वीमेन असोसिएट्स में डेढ़ दर्जन महिलाओं का ब्यौरा दिया है जो ब्रम्हचर्य में सहयोगी थीं और गांधी के साथ निर्वस्त्र सोती-नहाती और उन्हें मसाज़ करती थीं. इनमें मनु, आभा गांधी, आभा की बहन बीना पटेल, सुशीला नायर, प्रभावती (जयप्रकाश नारायण की पत्नी), राजकुमारी अमृतकौर, बीवी अमुतुसलाम, लीलावती आसर, प्रेमाबहन कंटक, मिली ग्राहम पोलक, कंचन शाह, रेहाना तैयबजी शामिल हैं. प्रभावती ने तो आश्रम में रहने के लिए पति जेपी को ही छोड़ दिया था. इससे जेपी का गांधी से ख़ासा विवाद हो गया था.
तक़रीबन दो दशक तक महात्मा गांधी के व्यक्तिगत सहयोगी रहे निर्मल कुमार बोस ने अपनी बेहद चर्चित किताबमाई डेज़ विद गांधी में राष्ट्रपिता का अपना संयम परखने के लिए आश्रम की महिलाओं के साथ निर्वस्त्र होकर सोने और मसाज़ करवाने का ज़िक्र किया है. निर्मल बोस ने नोआखली की एक ख़ास घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है, एक दिन सुबह-सुबह जब मैं गांधी के शयन कक्ष में पहुंचा तो देख रहा हूं, सुशीला नायर रो रही हैं और महात्मा दीवार में अपना सिर पटक रहे हैं. उसके बाद बोस गांधी के ब्रम्हचर्य के प्रयोग का खुला विरोध करने लगे. जब गांधी ने उनकी बात नहीं मानी तो बोस ने अपने आप को उनसे अलग कर लिया.
ऐडम्स का दावा है कि लंदन में क़ानून पढ़े गांधी की इमैज ऐसा नेता की थी जो सहजता से महिला अनुयायियों को वशीभूत कर लेता था. आमतौर पर लोगों के लिए ऐसा आचरण असहज हो सकता है पर गांधी के लिए सामान्य था. आश्रमों में इतना कठोर अनुशासन था कि गांधी की इमैज 20 वीं सदी के धर्मवादी नेता जैम्स वॉरेन जोन्स और डेविड कोरेश जैसी बन गई जो अपनी सम्मोहक सेक्स-अपील से अनुयायियों को वश में कर लेते थे. ब्रिटिश हिस्टोरियन के मुताबिक गांधी सेक्स के बारे लिखना या बातें करना बेहद पसंद करते थे. इतिहास के तमाम अन्य उच्चाकाक्षी पुरुषों की तरह गांधी कामुक भी थे और अपनी इच्छा दमित करने के लिए ही कठोर परिश्रम का अनोखा तरीक़ा अपनाया. ऐडम्स के मुताबिक जब बंगाल के नोआखली में दंगे हो रहे थे तक गांधी ने मनु को बुलाया और कहा अगर तुम मेरे साथ नहीं होती तो मुस्लिम चरमपंथी हमारा क़त्ल कर देते. आओ आज से हम दोनों निर्वस्त्र होकर एक दूसरे के साथ सोएं और अपने शुद्ध होने और ब्रह्मचर्य का परीक्षण करें.
किताब में महाराष्ट्र के पंचगनी में ब्रह्मचर्य के प्रयोग का भी वर्णन है, जहां गांधी के साथ सुशीला नायर नहाती और सोती थीं. ऐडम्स के मुताबिक गांधी ने ख़ुद लिखा है, “नहाते समय जब सुशीला मेरे सामने निर्वस्त्र होती है तो मेरी आंखें कसकर बंद हो जाती हैं. मुझे कुछ भी नज़र नहीं आता. मुझे बस केवल साबुन लगाने की आहट सुनाई देती है. मुझे कतई पता नहीं चलता कि कब वह पूरी तरह से नग्न हो गई है और कब वह सिर्फ़ अंतःवस्त्र पहनी होती है. दरअसल, जब पंचगनी में गांधी के महिलाओं के साथ नंगे सोने की बात फैलने लगी तो नथुराम गोड्से के नेतृत्व में वहां विरोध प्रदर्शन होने लगा. इससे गांधी को प्रयोग बंद कर वहां से बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा. बाद में गांधी हत्याकांड की सुनवाई के दौरान गोड्से के विरोध प्रदर्शन को गांधी की हत्या की कई कोशिशों में से एक माना गया.
ऐडम्स का दावा है कि गांधी के साथ सोने वाली सुशीला, मनु, आभा और अन्य महिलाएं गांधी के साथ शारीरिक संबंधों के बारे हमेशा गोल-मटोल और अस्पष्ट बाते करती रहीं. उनसे जब भी पूछा गया तब केवल यही कहा कि वह सब ब्रम्हचर्य के प्रयोग के सिद्धांतों का अभिन्न अंग था. गांधी की हत्या के बाद लंबे समय तक सेक्स को लेकर उनके प्रयोगों पर भी लीपापोती की जाती रही. उन्हें महिमामंडित करने और राष्ट्रपिता बनाने के लिए उन दस्तावेजों, तथ्यों और सबूतों को नष्ट कर दिया गया, जिनसे साबित किया जा सकता था कि संत गांधी, दरअसल, सेक्स-मैनियॉक थे. कांग्रेस भी स्वार्थों के लिए अब तक गांधी के सेक्स-एक्सपेरिमेंट से जुड़े सच छुपाती रही है. गांधी की हत्या के बाद मनु को मुंह बंद रखने की सख़्त हिदायत दी गई. उसे गुजरात में एक बेहद रिमोट इलाक़े में भेज दिया गया. सुशीला भी इस मसले पर हमेशा चुप्पी साधे रही. सबसे दुखद बात यह है कि गांधी के ब्रम्हचर्य के प्रयोग में शामिल क़रीब-क़रीब सभी महिलाओं का वैवाहिक जीवन नष्ट हो गया.
ब्रिटिश इतिहासकार के मुताबिक गांधी के ब्रह्मचर्य के चलते जवाहरलाल नेहरू उनको अप्राकृतिक और असामान्य आदत वाला इंसान मानते थे. सरदार पटेल और जेबी कृपलानी ने उनके व्यवहार के चलते ही उनसे दूरी बना ली थी. गिरिजा कुमार के मुताबिक पटेल गांधी के ब्रम्हचर्य को अधर्म कहने लगे थे. यहां तक कि पुत्र देवदास गांधी समेत परिवार के सदस्य और अन्य राजनीतिक साथी भी ख़फ़ा थे. बीआर अंबेडकर, विनोबा भावे, डीबी केलकर, छगनलाल जोशी, किशोरीलाल मश्रुवाला, मथुरादास त्रिकुमजी, वेद मेहता, आरपी परशुराम, जयप्रकाश नारायण भी गांधी के ब्रम्हचर्य के प्रयोग का खुला विरोध कर रहे थे.
गांधी की सेक्स लाइफ़ पर लिखने वालों के मुताबिक सेक्स के जरिए गांधी अपने को आध्यात्मिक रूप से शुद्ध और परिष्कृत करने की कोशिशों में लगे रहे. नवविवाहित जोड़ों को अलग-अलग सोकर ब्रह्मचर्य का उपदेश देते थे. रवींद्रनाथ टैगोर की भतीजी विद्वान और ख़ूबसूरत सरलादेवी चौधरी से गांधी का संबंध तो जगज़ाहिर है. हालांकि, गांधी यही कहते रहे कि सरला उनकी महज आध्यात्मिक पत्नीहैं. गांधी डेनमार्क मिशनरी की महिला इस्टर फाइरिंग को भी भावुक प्रेमपत्र लिखते थे. इस्टर जब आश्रम में आती तो वहां की बाकी महिलाओं को जलन होती क्योंकि गांधी उनसे एकांत में बातचीत करते थे. किताब में ब्रिटिश एडमिरल की बेटी मैडलीन स्लैड से गांधी के मधुर रिश्ते का जिक्र किया गया है जो हिंदुस्तान में आकर रहने लगीं और गांधी ने उन्हें मीराबेन का नाम दिया.
दरअसल, ब्रिटिश चांसलर जॉर्ज ओसबॉर्न और पूर्व विदेश सचिव विलियम हेग ने पिछले महीने गांधी की प्रतिमा को लगाने की घोषणा की थी. मगर भारतीय महिला के ही विरोध के कारण मामला विवादित और चर्चित हो गया है. अपने इंटरव्यू में कभी महात्मा गांधी के सिद्धांतों पर चलाने वाली कुसुम ने उनकी निजी ज़िंदगी पर विवादास्पद बयान देकर हंगामा खड़ा कर दिया है. कुसुम ने कहा, बड़े लोग पद और प्रतिष्ठा का हमेशा फायदा उठाते रहे हैं. गांधी भी इसी श्रेणी में आते हैं. देश-दुनिया में उनकी प्रतिष्ठा की वजह ने उनकी सारी कमजोरियों को छिपा दिया. वह सेक्स के भूखे थे जो खुद तो हमेशा सेक्स के बारे में सोचा करते थे लेकिन दूसरों को उससे दूर रहने की सलाह दिया करते थे. यह घोर आश्चर्य की बात है कि धी जैसा महापुरूष यह सब करता था. शायद ऐसा वे अपनी सेक्स इच्छा पर नियंत्रण को जांचने के लिए किया करते हों लेकिन आश्रम की मासूम नाबालिग बच्चियों को उनके इस अपराध में इस्तेमाल होना पड़ता था. उन्होंने नाबालिग लड़कियों को अपनी यौन इच्छाओं के लिए इस्तेमाल किया जो सचमुच विश्वास और माफी के काबिल बिलकुल नहीं है. कुसुम का कहना है कि अब दुनिया बदल चुकी है. महिलाओं के लिए देश की आजादी और प्रमुख नेताओं से ज्यादा जरूरी स्वंय की आजादी है. गांधी पूरे विश्व में एक जाना पहचाना नाम है इसलिए उन पर जारी हुआ यह सच भी पूरे विश्व में सुना जाएगा.
दरअसल, महात्मा गांधी हत्या के 67 साल गुज़र जाने के बाद भी हमारे मानस-पटल पर किसी संत की तरह उभरते हैं. अब तक बापू की छवि गोल फ्रेम का चश्मा पहने लंगोटधारी बुजुर्ग की रही है जो दो युवा-स्त्रियों को लाठी के रूप में सहारे के लिए इस्तेमाल करता हुआ चलता-फिरता है. आख़िरी क्षण तक गांधी ऐसे ही राजसी माहौल में रहे. मगर किसी ने उन पर उंगली नहीं उठाई. कुसुम के मुताबिक दुनिया के लिए गांधी भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के आध्यात्मिक नेता हैं. अहिंसा के प्रणेता और भारत के राष्ट्रपिता भी हैं जो दुनिया को सविनय अवज्ञा और अहिंसा की राह पर चलने की प्रेरणा देता है. कहना न भी ग़लत नहीं होगा कि दुबली काया वाले उस पुतले ने दुनिया के कोने-कोने में मानव अधिकार आंदोलनों को ऊर्जा दी, उन्हें प्रेरित किया.
समाप्त

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

दही-हांडी पर सख़्ती क्या संस्कृति पर हमला है?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
दही-हांडी का रोचक पर्व भारत ख़ासकर महाराष्ट्र के शहरों में दशकों नहीं, सदियों से धूमधाम से मनाया जाता रहा है. कृष्ण जन्माष्टमी के दिन होने वाले इस उत्सव में युवाओं के साथ-साथ किशोर और बच्चे भी उत्साह से शिरकत करते रहे हैं. किशोरों और बच्चों को इस पर्व में इसलिए शामिल किया जाता रहा है क्योंकि, बच्चों का वजन कम होता है और मटकी फोड़ते के लिए पिरामिड बनाते समय उन्हें आसानी से कंधे पर बिठाकर मटकी तक पहुंचा जा सकता है. यह काम कोई वयस्क आदमी नहीं कर सकता. यह कहना न तो ग़लत होगा, न ही अतिरंजनापूर्ण कि दही-हांडी का खेल मूलतः बच्चों, किशोकों और नवयुवकों का ही रहा है.

हालांकि, बाल मज़दूरी को समूल नष्ट करने का संकल्प ले चुके समाजसेवकों की आपत्ति के बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने जो आदेश दिया है, कम से कम उससे तो दही-हांडी की गौरवशाली परंपरा के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है. अब ख़तरा यह है कि कहीं अदालती दख़ल के चलते भारतीय संस्कृति की यह रोचक और रोमांचकारी परंपरा सदा के लिए ख़त्म न हो जाए. तभी तो कहा जा रहा है कि अदालत की ओर से दही-हांडी के जो तरीकों बताए गए हैं, वे प्राइमा फ़ेसाई अव्यवहारिक हैं और उन पर अमल करने से बेहतर है होगा, यह पर्व ही न मनाया जाए. इसी बिना पर कई लोगों ने हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने का निर्णय लिया है.

दरअसल, सबसे पहले मुंबई पुलिस के प्रमुख राकेश मारिया ने बच्चों का सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए, 12 साल उम्र तक के बच्चों के दही-हांडी के पिरामिड में भाग लेने पर रोक लगा दी. पुलिस प्रमुख ने मुंबई के पुलिस थानों को सख़्त निर्देश दे दिया कि नई गाइडलाइंस पर कड़ाई से अमल किया जाए ताकि बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके. मुंबई के पुलिस प्रमुख ने यह क़दम बाल मज़दूरी उन्मूलन के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों के दबाव में उठाया था.

बहरहाल, अब रही सही कसर ने बॉम्बे हाईकोर्ट के आदेश ने पूरी कर दी. हाईकोर्ट ने कहा कि दही-हांडी की टांगने की ऊंचाई 20 फीट से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए. इसके अलावा नाबालिगों यानी 18 साल से कम उम्र के लड़कों को पिरामिड बनाने में शामिल नहीं किया जाना चाहिए. दरअसल, अब कहा जा रहा है कि किसी वयस्क युवक, जिसका वजन कम से कम 60 किलोग्राम तो होगा, को अगर पिरमिड में सबसे ऊपर चढ़ाया गया तो नीचे के गोविंदाओं के दबने का ख़तरा रहेगा.

दरअसल, इस अति उत्साही और रोमांचकारी भारतीय परंपरा का आरंभ भगवान कृष्ण द्वारा बाल्यकाल में गोपियों की मटकी से माखन चुराने की घटनाओं से माना जाता है. लिहाज़ा, कहा जा सकता है कि यह त्यौहार ही बच्चों, किशोरों और नवयुवकों का है. मटकी असल में बच्चे फोड़ते हैं, नवयुवक तो अपने कंधे पर बिठाकर उन्हें सहारा देते हैं और मटकी तक पहुंचाते हैं. इसलिए यह कहने में कतई हर्ज़ नहीं कि इस त्यौहार का अट्रैक्शन ही बच्चे हैं. बच्चों की भागीदारी के बिना यह अधूरा-अधूरा सा लगेगा.

राज्य की सबसे बड़ी अदालत ने कई और ऐसे इंतज़ामात करने के भी निर्देश दिए हैं, जिन पर अमल करना मुश्किल भरा ही नहीं क़रीब-क़रीब असंभव है. मसलन, हाईकोर्ट ने कहा है कि मटकी-स्थल के आसपास ज़मीन पर गद्दे बिछाए जाएं. चूंकि गोविंदा का पर्व बारिश के मौसम में पड़ता है, ऐसे में खुले आसमान के नीचे गद्दे नहीं बिछाए जा सकते. इससे और गंभीर समस्या खड़ी हो सकती है. यह आयोजकों के लिए भी व्यवहारिक नहीं होगा. हाईकोर्ट ने गोविंदाओं के लिए सुरक्षात्मक कवच और हेलमेट का इंतज़ाम करने और मटकी सड़क या रास्ते पर न टांगने की भी निर्देश दिया है. इन आदेशों का पालन करना बहुत मुश्किल भरा होगा.

वस्तुतः हाल के वर्षों ख़ासकर टीवी चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट और इस त्यौहार को प्रॉडक्ट बेचने का ज़रिए बना देने के कारण इस अति प्राचीन पर्व का बड़ा घाटा हुआ. गोविंदा मंडलों का कॉमर्शलाइज़ेशन हो गया जिससे गलाकाट स्पर्धा शुरू हो गई. जिससे मटकी की ऊंचाई और इनामी राशि भयानक रूप से बढ़ने लगी. बाज़ारीकरण के चलते यह त्यौहार हंगामें वाला पर्व बन गया, इस कारण एक बहुत बड़ा तबक़ा इन आयोजनों से चिढ़ने लगा. कहा जा सकता है कि आयोजकों और बाज़ार को संचालित करने वाली कंपनियों की ओर से इसे मुनाफ़े का जरिया बना देने के चलते इस बेहद ख़ूबसूरत त्यौहार का बंटाधार ही हो गया.

वस्तुतः दही-हांडी में मिट्टी (अब ताबां या पीतल) के बर्तन में दही, मक्खन, शहद, फल और कैश धनराशि रखे जाते हैं. इस बर्तन को धरती से 30 फ़ीट ऊपर तक टांगा जाता है. बच्चे, किशोर और नवयुवक लड़केलड़कियां पुरस्कार जीतने के लिए समारोह में हिस्सा लेते हैं. ऐसा करने के लिए नवयुवक एकदूसरे के कंधे पर चढ़कर पिरामिड बनाते हैं. जिससे सबसे ऊपर पहुंचकर आसानी से मटकी को तोड़कर उसमें रखी सामग्री को प्राप्त कर लेता है. प्रायः रुपए की लड़ी रस्से से बांधी जाती है. इसी रस्से से वह बर्तन भी बांधा जाता है. इस धनराशि को उन सभी सहयोगियों में बांट दिया जाता है, जो उस मानव पिरामिड में भाग लेते हैं.

दरअसल, मुंबई में दही-हांडी के दौरान हादसे रोकने के लिए ही नई गाइडलाइंस तैयार की गई है. हादसों को रोकने के लिए हाईकोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर की गईं, उन पर ही हाईकोर्ट ने फैसला दिया. मटकी फोड़ने के अभ्यास के दौरान दो दिन पहले 14 साल के लड़के की मौत हो गई थी. हाईकोर्ट के आदेश के बाद शहर के सभी थानों को आदेश दिया गया है कि अगर किसी गोविंदा मंडल में दही-हांडी फोड़ने वाली टीम में नाबालिग शामिल किया तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जाए. बहरहाल, अगर इस मामले में थोड़ा परिवेश और परंपरा को ध्यान में रखकर निर्णय किया गया होता तो ज़्यादा बेहतर होता. अब भी देर नहीं हुई है, इस अच्छी परपंरा को जीवित रखने की कोशिश की जानी चाहिए थी, इससे मुनाफ़ा कमाने वालों को अलग करने की ज़रूरत थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ.


शनिवार, 9 अगस्त 2014

रक्षाबंधन : स्त्री की रक्षा के लिए ही राखी की परिकल्पना

हरिगोविंद विश्वकर्मा
गहन रिसर्च के बावजूद राखी का त्यौहार कब शुरू हुआ इसका एकदम सटिक प्रमाणिक जानकारी नहीं मिल सकी. इसके बावजूद लगता तो यही है कि मानव सभ्यता के विकसित होने के बाद जब समाज पर पुरुषों का वर्चस्व हुआ, तब स्त्री की रक्षा के उद्देश्य को पूरा करने के लिए ही इस त्यौहार की परिकल्पना की गई होगी. मकसद यह रहा होगा कि समाज में पति-पत्नी के अलावा स्त्री-पुरुष में भाई-बहन का पवित्र रिश्ता कायम हो. बहरहाल, हो सकता है लेखक का आकलन शत-प्रतिशत सही न हो. लेकिन स्वस्थ्य समाज की संरचना के लिए ऐसा ही कुछ हुआ होगा. वैसे, हमारा देश उत्सवों और परंपराओं का देश है. सदियों से पूरे साल अनेक तीज-त्यौहार, पर्व, परंपराएं मनाए जाते रहे हैं. इन्हीं त्योहारों में रक्षा-बंधन यानी राखी भी है. यह त्यौहार भाई-बहन के बीच अटूट-बंधन और पवित्र-प्रेम को दर्शाता है. भारत के कुछ हिस्सों में इसे 'राखी-पूर्णिमा' के नाम से भी जाना जाता है.

स्कंध पुराण, पद्म पुराण भविष्य पुराण और श्रीमद्भागवत गीता में वामनावतार नामक कथा में राखी का प्रसंग मिलता है. मसलन, दानवेंद्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इंद्र ने विष्णु से प्रार्थना की. तब विष्णु वामन अवतार लेकर बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे. बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी. विष्णु ने तीन पग में आकाश पाताल और धरती नापकर बलि को रसातल में भेज दिया. इस प्रकार विष्णु द्वारा बलि के अभिमान को चकनाचूर कर देने से ही यह त्योहार बलेव नाम से भी मशहूर है. विष्णु पुराण के मुताबिक श्रावण की पूर्णिमा के दिन विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था. हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है.

भविष्य पुराण के मुताबिक सुर-असुर संग्राम में जब दानव हावी होने लगे तब इंद्र घबराकर बृहस्पति के पास गये. इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र करके पति के हाथ पर बांध दिया. संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था. मान्यता है कि लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से ही इंद्र विजयी हुए. उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन धागा बांधने की प्रथा शुरू हो गई.

महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पांडव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा, मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूं तब भगवान कृष्ण ने उनकी और उनकी सेना की रक्षा के लिए राखी का त्यौहार मनाने की सलाह दी थी. उनका कहना था कि राखी के धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं. जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई. द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उंगली पर पट्टी बांध दी. यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था. कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया.

राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएं उन्हों माथे पर तिलक के साथ साथ हाथ में धागा बांधती थी. इस भरोसे के साथ कि धागा विजयश्री ले आएगा. मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की सूचना मिली. रानी ने मुगल बादशाह हुमायूं को राखी भेज कर रक्षा याचना की. हुमायूं ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुंचकर कर्मावती और उसके राज्य की रक्षा की. एक अन्य प्रसंगानुसार सिकंदर की पत्नी ने पति के हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांधकर मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया. पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी और अपनी बहन को दिए हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवन-दान दिया.


रक्षाबंधन श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इसीलिए इसे श्रावणी या सलूनो भी कहते हैं. राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बांधती हैं, परंतु कई समाज में छोटी लड़कियां संबंधियों को भी राखी बांधती हैं. कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बांधी जाती है. अब तो प्रकृति संरक्षण हेतु वृक्षों को राखी बांधने की परम्परा भी प्रारंभ हो गयी है जो प्रकृति को बचाने के एक प्रयास है. ज़ाहिर है, इस तरह के प्रयास को बढ़ावा देना चाहिए. 
राखी पर सभी को शुभकामनाएं.