Powered By Blogger

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

क्या सचमुच भारत गुलाम था, जो आजाद हुआ?


पूरा देश बड़े ज़ोर-शोर और उत्साह से हर साल 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाता है। जो भी नेता देश का प्रधानमंत्री होता है, वह लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा फहराकर टीवी देखने वाली जनता को एड्रेस करता है। उसका भाषण दूर-दराज के इलाक़ों में रेडियो पर सुना जाता है और जो लोग उससे भी वंचित रहते हैं, वे दूसरे दिन अख़बार में यह सब पढ़ते हैं। हर पीएम दरअसल आदर्शवादी बातें करता है। सबसे बड़ी बात, उसकी किसी घोषणा पर अमल नहीं होता और, अगर किसी पर होता भी है, तो उससे देश के आम लोगों को कोई फ़ायदा नहीं होता। 15 अगस्त, 1947 से यही सब चल रहा है। इतना ही नहीं देश में आज़ादी का जश्न मनाने के लिए हर साल अरबों-खरबों रुपए बहा दिए जाते हैं। लोगों को याद दिलाया जाता है कि हम कभी ग़ुलाम थे, अंग्रज़ों के ग़ुलाम। इसी दिन सवा दो सौ साल से ज़्यादा समय तक रही उस ग़ुलामी से आज़ाद हुए। कांग्रेस और सेक्यूलर विचारधारा के लोग इस आज़ादी का क्रेडिट महात्मा गांधी ऐंड कंपनी को देते हैं, तो अपने को राष्ट्रवादी कहने वाले लोग सुभाषचंद्र बोस, सावरकर और भगत सिंह वगैरह को इसका श्रेय देते हैं।

आज़ादी-आज़ादी चिल्लाने और इतना तामझाम करने से आम आदमी के मन में कभी-कभी सवाल उठता है कि क्या सचमुच भारत ग़ुलाम था? क्या वाक़ई अंग्रेज़ अत्याचारी थे? क्या वास्तव में हिंद महासागर की करोड़ों जनता, जैसा कि देशभक्ति थीम पर बनने वाली फिल्मों में दिखाया जाता है, को अंग्ज़ों ने ग़ुलाम यानी बंधक बना रखा था? सबके हाथ में हथकड़ी और पैर में बेड़ी डाल रखी थी। और 15 अगस्त को अचानक सब के सब आज़ाद हो गए। सच पूछो तो 14 अगस्त 1947 की रात सत्ता-हस्तांतरण हुआ था, न कि आज़ादी की घोषणा। हां, सत्ता-हस्तांतरण में ब्रिटिश इंडिया के दो टुकड़े कर दिए गए। विश्व मानचित्र पर इंडिया यानी भारत और पाकिस्तान नाम के दो राष्ट्र अस्तित्व में आए। ऐसे में सत्ता-हस्तांतरण को आज़ादी कहना क्या सही है? संतुलित सोचने और इतिहास की मामूली समझ रखने वाला आदमी हैरान होता है कि आख़िर अंग्रेज़ों के शासन को ग़ुलामी क्यों कहा जाता है? आज भी सारा सिस्टम, पुलिस, ब्यूरोक्रेसी, ज्यूडिशियरी और क़ानून, आर्मी और गवर्नेंस सिस्टम अंग्रेज़ों का ही बनाया हुआ है, तब उनका शासन ग़ुलामी की प्रतीक कैसे हो सकता है?

यह भी सर्वविदित है कि अंग्रेज़ों का शासन ऐय्याश हिंदू सम्राटों-नरेशों और वहशी मुस्लिम सुल्तानों की तुलना में ज़्यादा सिविलाइज़्ड, लॉ-ओरिएंटेड और लॉ-अबाइडिंग था। जलियांवाला में फायरिंग की वारदात को अगर छोड़ दें, तो दूसरा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जब अंग्रेज़ों ने आम जनता पर कोई अत्याचार किया हो। हालांकि जलियांवाला बाग़ हत्याकांड की 'हाउस ऑफ़ कॉमंस' ने निंदा की थी। विंस्टन चर्चिल की पहल पर हंटर कमीशन ने जांच की और ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को पदावनत (डिमोट) करके कर्नल बना दिया गया था। उसे भारत में पोस्ट न देने का भी निर्णय लिया गया था। कहने का मतलब, अंग्रेज़ हर घटना के लिए किसी न किसी की जवाबदेही तय करते थे, जिसका स्वतंत्र भारत में नामोनिशान नहीं दिखता। फिर अंग्रेज़ी हुकूमत में सभी आदेशों का पालन यहां के स्थानीय लोग ही करवाते थे, जैसे आजकल पुलिस या सरकारी कर्मचारी करते हैं। यानी जिस शासन में स्थानीय लोगों की भागीदारी हों, उस शासन को ग़ुलामी कैसे कहा जा सकता है?

अंग्रेज़ी शासन में सामाजिक परिस्थितियों का बारीक़ी से विश्लेषण करने पर साफ़ लगता है कि गोरों के सवा दो सौ साल की अवधि में हालात उतने ख़राब नहीं थे, जितने हिंदू-मुस्लिम शासकों के दो से ढाई हज़ार साल के शासनकाल में थे। मसलन, सभ्य समाज के लिए कलंक सती प्रथा चंद्रगुप्त मौर्य के शासन से जारी थी। सती के नाम पर हर साल लाखों महिलाओं को उनके मृत पतियों की चिता पर ज़बरी ज़िंदा जला दिया जाता था। अंग्रेज़ सभ्य थे। उनको सती प्रथा नागवार और बर्बर लगी। स्त्री को इसलिए ज़िंदा जला देना, क्योंकि उसका पति मर गया, क्रूरतम घटना थी। यह जिसके भी शासन में हुआ, उसे सभ्य नहीं कहा जा सकता। इस जंगली प्रथा को अंग्रेज़ों ने सन् 1829 में पहले बंगाल में फिर अगले साल पूरे ब्रिटिश इंडिया के दूसरे हिस्से में क़ानून बनाकर बंद कर दिया। भारत की संस्कृति को गौरवशाली कहने वाले कुछ लोगों ने बेशर्मी का प्रदर्शन करते हुए सती प्रथा को रोकने के सरकार के फ़ैसले को प्रिवी कॉउंसिल में चुनौती दी, लेकिन प्रिवी कॉउंसिल के सदस्यों ने भी माना गया कि सती प्रथा जैसी जंगली व्यवस्था जारी रखने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। उस समय दास प्रथा के रूप में एक और गंदी परंपरा थी। इंसानों की ख़रीद-फ़रोख़्त होती थी। दासों को इंसान समझा ही नहीं जाता था। लिहाज़ा, अंग्रेज़ों ने 1834 में लॉ कमीशन बनाया और उसकी सिफ़ारिश पर 1860 में इंडियन पैनल कोड बनाकर सदियों पुरानी दास प्रथा को भी ख़त्म किया। अंग्रजों ने आईपीसी में महिलाओं के साथ ज़बरी सेक्स की प्रवृत्ति को रोकने के लिए ऐसा करने वाले पुरुषों को 376 सेक्शन के तहत रेप के आरोप में विधिवत सज़ा का प्रावधान किया। इससे पहले सती प्रथा, बहुतपत्नी प्रथा और दास प्रथा जैसी बुराइयों को संरक्षण देने वाले ही अपनी सुविधा के मुताबिक न्याय करते थे। जो किसी भी नज़रिए से न्याय नहीं होता था। आजकल जिस क़ानून से इंसाफ़ किया जाता है वह पूरा के पूरा आईपीसी को अंग्रेज़ों ने बनाया है।

गौरवशाली, स्वर्णकाल, सोने की चिड़िया और पता नहीं, क्या-क्या कहे जाने वाले प्राचीन और मध्यकाल में बहुपत्नीवाद की पाशविक व्यवस्था थी। पुरुष एक से ज़्यादा महिलाओं को बीवी बना कर रखता था। हिंदू-मुस्लिम शासक, राजा, सामंत, भूस्वामी, शासकों के दलाल और सत्ता का लाभ भोगने वाले लोगों के पास सेक्स के लिए कई दर्जन महिलाएं बीवी के रूप में होती थीं। ख़ुद चंद्रगुप्त मौर्य ने चार शादियां की थी। उसकी एक बीवी ग्रीक की राजकुमारी हेलेना भी थी। मुस्लिम शासकों की तो अनगिनत बीवियाँ होती थीं। उस समय हर राजा के पास एक रनिवास या हरम होता था। जहां रानी और चेरी के रूप में सैकड़ों-हज़ारों महिलाएं और अनेक किन्नर होते थे। सभी राजाओं का जीवन कमोबेश लिबिया में दौड़ा-दौड़ा कर मारे गए ऐय्याश शासक मुअम्मर गद्दाफी जैसा था। सभी राजा, नरेश और सुल्तान तबीयत से विलासी थे। हरम में ऐसी भी तरुणियां होती थीं, जिनसे राजा एकाध बार ही सेक्स कर पाता था। शेष उम्र वे नारकीय जीवन जीती थीं और मनोरोगी हो जाती थीं। मतलब, जिन्हें इतिहास की क़िताबों में गर्व से नायक या महानायक कहा जाता है, वे नायक अथवा महानायक नहीं, बल्कि ऐय्याश और वहशी थे। उन्हें विकास नहीं, बल्कि सेक्स के लिए जवान लड़की चाहिए थी। अंग्रेज़ों ने क़ानून बनाकर आईपीसी 494 के तहत राजाओं के कई शादियां करने पर रोक लगा दी। जो बाद में हिंदू मैरिज एक्ट 1955 का आधार बना। दरअसल, पूरा प्राचीन और मध्यकाल का दौर औरतों के लिए त्रासदीपूर्ण था। महिलाओं और ग़रीबों को इंसान ही नहीं समझा जाता था। उस दौर में बाल-विवाह, छूआछूत व जातिवाद जैसी बुरी प्रथाएं अपने शबाबा पर थीं! कई कथित इतिहासकार भ्रम पैदा करने के लिए प्राचीनकाल में संस्कृति को गौरवशाली बताते हुए अंग्रज़ों के शासन को ग़ुलामी करार देते हैं, जबकि इस भूखंड पर संस्कृति कभी गौरव करने लायक रही ही नहीं।

कहने का मतलब सामाजिक मुद्दों पर अंग्रेज़ नौकरशाह हिंदू-मुस्लिम शासकों से कहीं ज़्यादा संवेदनशील और दूरदर्शी थे। सबसे बड़ी बात अंग्रेज़ों ने अपने शासनकाल में विधिवत चुनाव भी करवाते थे। सन् 1920 के बाद कई बार चुनाव हुए, जिसमें अपने को स्वतंत्रता सेनानी कहने वाले कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिंदूवादी दलों के नेताओं ने शिरकत की थी। गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट के बाद 1937 के प्रॉविंशियल चुनाव में तो बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। अंतिम चुनाव आज़ादी से कुछ साल पहले कराया गया और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार भी बनी थी। अगर ग़ुलाम रहे होते तो क्या चुनाव में हिस्सा ले पाते? सरकार में शामिल हो पाते? यानी अंग्रेज़ के शासनकाल में देश में विधि का शासन था। जो क़ानून तोड़ता था, उसके ख़िलाफ़ बेशक कार्रवाई होती थी। क़ानून तोड़ने वालों के साथ आज भी वैसा ही सलूक होता है। ऐसे में सवाल उठता है, अंग्रेज़ों के इतने सभ्य शासन को ग़ुलामी क्यों कहा जाता है? जबकि हर अंग्रेज़ शासक अपने देश की संसद हाउस ऑफ़ कॉमंस के प्रति जवाबदेह होता था।

सबसे अहम अंग्रेज़ों के यहां आने से पहले भारत या इंडिया जैसे किसी देश का अस्तित्व ही नहीं था। अगर इंडिया नाम का एक राष्ट्र आज अस्तित्व में है, तो इसका श्रेय केवल और केवल अंग्रेज़ों को जाता है। वर्ना इंडियन सब-कॉन्टिनेंट फ़िलहाल देश नहीं, यूरोप की तरह छोटे-छोटे अनगिनत राष्ट्रों का भूखंड होता। यह भी जानना रोचक होगा कि इंडिया शब्द का प्रादुर्भाव कहां से हुआ?

दरअसल, यूरोप के लोग ‘पश्चिम’ की ओर स्थित अमेरिका के आसपास के द्वीपों को ‘वेस्ट’ इंडीज़ कहते थे और उधर ही व्यापार करने के लिए जाते थे। कुछ यूरोपीय व्यापारी पूरब में स्थित द्वीपों पर भी जानते थे। लिहाज़ा, पूरब की ओर स्थित एशियाई द्वीप समूहो को पूर्वी द्वीप यानी ‘ईस्ट’ इंडीज़ कहने लगे। 15 वीं शबाब्दी में ही अंग्रेज़ व्यापारियों ने पूरब की ओर व्यापार के लिए जाने का मन बनाया और महारानी की अनुमति से पूरब में स्थित एशियाई द्वीप समूहों (ईस्ट इंडीज़) में कारोबार के लिए 31 दिसंबर सन् 1600 को आख़िरी दिन ईस्ट इंडीज शब्द से प्रेरित होकर ईस्ट इंडिया कंपनी बनाई। वास्को डिगामा के 1498 में भारत (कालीकट) में क़दम रखने के बाद सौ साल में पुर्तगाल, हॉलैंड और फ्रांस समेत कई यूरोपीय देशों के व्यापारी आज के भारत और दूसरे एशियाई देशों मे पांव जमाने लगे थे। लिहाज़ा, ब्रिटेन के राजा भी भी चाहते था कि उनके व्यापारी दुनिया के पूर्वी हिस्सें में कारोबार के लिए जाएं। बहरहाल ईस्ट इंडिया कंपनी 17वीं सदी के आरंभ में भारत पहुंची। 1617 में मुग़ल शासक नुरूद्दीन मोहम्मद सलीम उर्फ जहांगीर ने अंग्रेज़ों को व्यापार की इजाज़त दे दी। इस तरह अग्रेज़ों की व्यापारिक गतिविधियां शुरू हो गईं।

तक़रीबन सौ साल तक व्यापार करने के बाद, ख़ासकर औरंगज़ेब के शासनकाल के बाद देश का शासन किसी एक व्यक्ति के पास नहीं रहा। उस समय अंग्रेज़ व्यापारियों ने गौर किया कि हिंद महासागर का भूभाग साढ़े छह सौ से ज़्यादा रियासतों और सूबों में बंटा हुआ है। राजा एक दूसरे से ही लड़ रहे हैं। लड़ाइयां भी जनता के हित के लिए नहीं, बल्कि किसी सुंदरी को हासिल करने या सीमा-विस्तार के लिए लड़ी जा रही हैं। राजाओं की इस आपसी फूट को देखकर अंग्रेज़ों को लगा कि इस भूभाग को अपने नियंत्रण में लिया जा सकता है। बस ईस्ट इंडिया कंपनी ने सुरक्षा का हवाला देकर निजी सेना का गठन किया। 1757 में प्लासी युद्ध में बंगाल नवाब सिराजुद्दौला और फ्रांसीसी सेना को हराने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन आधिकारिक रूप से शुरू भी हो गया। बाद में राजाओं -सुल्तानों और नवाबों की आपसी फूट का फ़ायदा उठाकर ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक-एक करके सबको हरा दिया और अपने अधीन कर लिया। 19वीं सदी के शुरुआत में गोरों ने कमोबेश पूरे भूभाग पर क़ब्ज़ा कर लिया था। सन् 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन अपने हाथ में ले लिया। लिहाज़ा, ईस्ट इंडिया कंपनी से ईस्ट और कंपनी शब्द हटाकर ब्रिटिश शब्द जोड़ दिया और इस भूखंड का नाम `ब्रिटिश इंडिया' हो गया जो अंततः एक देश बना। उसका शासन सीधे ब्रिटिश संसद हाउस ऑफ़ कॉमन्स से होने लगा।

अगर सोलह जनपदीय व्यवास्था को छोड़ दें तो प्राचीन भारत का इतिहास मोटा-मोटी मौर्यवंश (ईसा पूर्व 340) से शुरू होता है, लेकिन कभी भारत नाम का कोई देश अस्तित्व में नहीं रहा। चंद्रगुप्त ने मगध पर शासन किया। बाद में कई राजा हुए, जिन्होंने अलग-अलग समय पर अलग-अलग भूखंडों पर राज किया। यानी चंद्रगुप्त से हर्षवर्धन और पृथ्वीराज चौहान तक किसी को भारत का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता। आठवीं सदी में मोहम्मद बिन कासिम ने आक्रमण का सिलसिला शुरू किया। उस दौर में जनता निरक्षर और ग़रीब होती थी, लेकिन हिंदू राजाओं के पास अपार दौलत होती थी। मंदिरों में भी स्वर्ण मूर्तियां समेत स्वर्ण भंडार होता था। यही दौलत लुटेरों को लुभाती थी। इसीलिए महमूद गजनवी ने धावा बोला और सोमनाथ मंदिर समेत कई धार्मिक स्थलों को लूटा। सोमनाथ पर आक्रमण के समय की एक कथा प्रचलित है, जब गडनवी सेना लेकर सोमनाथ पर आक्रमण किया तो पुजारियों ने लोगों को बताया कि जैसे ही वह अपवित्र व्यक्ति मंदिर परिसर में घुसेगा, शिव भगवान उसे अपने नेत्रों से भस्म कर देंगे। लेकिन उनका भ्रमस तब टूटा जब गजनवी ने पूरा मंदिर लूट लिया। लुटेरे इसलिए कामयाब होते थे, क्योंकि राजा आपस में लड़ते थे और सेना में केवल राजपूत होते थे। बहरहाल, 12वीं सदी में दिल्ली सल्तनत के साथ यहां मुस्लिम शासन का आग़ाज़ हुआ। उस समय कई हिंदू राजाओं का भी शासन था। सारे राजा या सुल्तान एक दूसरे से लड़ रहे थे। 16वीं सदी के आरंभ में इब्राहिम लोदी के राज में ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने आक्रमण किया। वह लूटने के मकसद से आया था, पर पानीपत युद्ध में लोदी का सिर क़लम करने के बाद उसे लगा कि यहां लंबे समय तक राज किया जा सकता है। उसने मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की। बाबर के बाद हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगज़ेब उसके उत्तराधिकारी रहे। मुग़लों का राज्य बहुत बड़ा था, परंतु उन्हें बराबर कई हिंदू, मराठा, राजस्थानी या सिख राजाओं से चुनौती मिलती रही। यानी पूरे हिंद सब-कॉन्टिनेंट पर प्राचीन काल की तरह मध्यकाल में भी कभी किसी एक सुल्तान का क़ब्ज़ा नहीं रहा। यानी कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर अंतिम मुग़ल सुल्तान बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय तक किसी को संपूर्ण भारत का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता।

अगर प्रशासनिक नज़रिए से देखें तो ब्रिटिशकाल की किसी से तुलना ही नहीं हो सकती। राजा-सुल्तान जीवन भर मंदिर, मस्जिद, स्मारक और मक़बरे ही बनवाते रहे। जो पुजारी एवं मौलवी जैसी जाहिल-काहिल क़ौम का अड्डा बन जाता था। अस्पताल, कॉलेज या यूनिवर्सिटीज़ यहां अंग्रेज़ों ने उन्नीसवीं सदी ही बनवाए। कभी-कभी लगता है कि अंग्रेज़ आ गए, तो यहां के लोग पढ़-लिख लिए, नहीं तो अब तक गुरुकुल या मदरसे में क्रमश: संस्कृत और उर्दू पढ़ रहे होते। फ़िरंगीकाल में नेचर ऑफ़ ऐडमिनिस्ट्रेशन बहुत बेहतर था। सच यह भी है कि यहां रेल, सेना, टेलीफोन, डाकघर, पुलिस, सड़क, बंदरगाह, पुल, इमारतें वगैरह अंग्रेज़ों ने ही बनवाए? मुंबई का उदाहरण लें तो यह भूभाग प्राचीनकाल से जस का तस पड़ा था। सात छोटे द्वीपों में उजड़ा पड़ा था। इस दौरान यह द्वीप समूह पहले हिंदू शासकों फिर मुसलमानों के अधीन रहा। 1534 में गुजरात सल्तनत ने मुग़लों के डर से इसे पुर्तगालियों को दे दिया। सन् 1661 में पुर्तगालियों ने इसे इंग्लैंड के चार्लस द्वीतीय की पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन की शादी के बाद अंग्रेज़ों को दहेज में दे दिया। अंग्रेज़ों ने इसे 1668 में ईस्ट इंडिया कंपनी को लीज़ पर दे दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे डेवलप करके इसे बंदरगाह बनाया। यहां से व्यापारी जहाज आने जाने लगे। कोई सौ साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे कॉमर्शिल हब बनाने का मिशन शुरू किया।

ज़ाहिर है, कॉमर्शिल हब के लिए लंबे-चौड़े भूखंड की ज़रूरत थी, लिहाज़ा, समुद्र को पाटने का फ़ैसाल किया गया और 1782 से समुद्र को रिक्लेम करने का महाअबियान शुरू किया गया जो पचास साल से भी ज़्यादा सममय तक चला। 19वीं सदी में रिक्लेम का कार्य पूरा हो गया। सातों द्वीपों को मिलाकर एक भूभाग बना दिया गया। इसके बाद यहां अस्पताल (किंग्स सीमेन्स हॉस्पीटल 1756), स्कूल (एल्फिंसटन हाईस्कूल 1822), रेलवे (1853), मिलें (बॉम्बे स्पिनिंग ऐंड वीविंग कंपनी ताड़देव 1856), कॉलेज (मुंबई यूनिवर्सिटी 1857), बिजली एवं ट्रांसपोर्ट (बेस्ट 1873) और कारोबारी गतिविधियां (बॉम्बे स्टॉक एक्चेंज 1875) शुरू हुईं, जिसके चलते मुंबई अहम व्यवसायिक केंद्र बन गया। यानी देश फिरंगी शासन में हिंदुओं-मुस्लमानों के शासनकाल से अधिक गति विकास कर रहा था।

अंग्रेज़ों के शासन से प्रजा को कोई कष्ट नहीं था। कह सकते हैं कि परिवहन का साधन हो जाने ले लोगों का जीवन और आजीविका आसान होने लगी। हां, क़ानून बनने और देश में विधि का शासन हो जाने से राजाओं-सुल्तानों और उनके दलालों की हालत बेशक ठीक नहीं थी, क्योंकि उनकी ऐय्याशी पर अंकुश लग गया। वे चाहते थे, सत्ता उनके पास रहे, ताकि निरंकुश होकर फिर से ऐय्याशी करें। लिहाज़ा, अंग्रेज़ों का विरोध राजाओं-सुल्तानों के वारिसों के इशारे पर उनकी रोटी पर पलने वाले उनके दलालों ने शुरू किया और उसे स्वतंत्रता आंदोलन का नाम दे दिया। जबकि वह फ्रीडम स्ट्रगल नहीं, बल्कि पॉवर स्ट्रगल था। उस आंदोलन में विदेशों में पढ़े-लिखे संपन्न लोगों की भागीदारी थी। ज़मींदार व भूस्वामी उसमें इसलिए शामिल हुए क्योंकि उन्हें अपनी संपत्ति-ज़मीन की रक्षा करनी थी। आज आज़ादी का मज़ा भी वही ले रहे हैं। देश में पोलिटिकल फैमिलीज़ बन गई है। इन राजनीतिक परिवारों ने लोकतंत्र को हाईजैक कर लिया है। सबसे मज़ेदार बात कि आज़ादी मिलने का बाद भी गवर्नेंस सिस्टम अंग्रेज़ों का ही चल रहा है। जब सब कुछ वही रहना है तो फिर आज़ादी किस बात की। अगर मान ले कि अंग्रेज़ जनता को लूट रहे थे तो आज के नेता क्या कर रहे हैं।

सन् 1943 में ब्रिटिश सरकार ने हेल्थ सेवा के लिए नौकरशाह सर जोसेफ भोर की अध्यक्षता में एक कमिशन का गठन किया था, जिसने 1946 में रिपोर्ट दी। भोर कमिशन ने कहा, भारत में लोग इतना ग़रीब हैं कि इलाज के अभाव में असमय मर जाते है, लिहाज़ा, हेल्थ सर्विस उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। क्योंकि पैसे के अभाव में किसी नागरिक को अच्छी स्वास्थ सेवा से वंचित नहीं किया जा सकता। अंग्रेज़ इस सिफ़ारिश को मान कर भारत में इलाज एकदम मुफ़्त करने वाले थे, तभी विश्वयुद्ध अपने चरम पर पहुंच हया था। विश्वयुद्ध के बाद महाशक्ति बने अमेरिका ने अंग्रेज़ों से पैकअप करने को कहा और अंग्रेज़ अपने उपनिवेश को छोड़कर जाने लगे।  1947 में भारत से भी चले गए, लेकिन उनके जाने के बाद आज़ाद भारत में जोसेफ भोर मुफ़्त हेल्थकेयर वाली रिपोर्ट को धरतीपुत्रों ने डस्टबिन में डाल दिया। इससे यह साबित होता है, कि ग़ुलाम जनता के लिए जितने चिंतित गोरे थे, उतनी अपनी सरकार नहीं थी। अंग्रेज़ जब देश को छोड़ रहे थे, तब देश पर एक पाई भी क़र्ज़ नहीं था, आज हर भारतीय पर औसतन 44 हज़ार रुपए से ज़्यादा क़र्ज़ है। इसी तरह अंग्रेज़ों के समय भारतीय रुपया डॉलर के बराबर था, लेकिन आज एक डॉलर की कीमत 76 रुपए से ज़्यादा है। इन परिस्थितियों में ऐसे बहुत सारे लोग भी मिलेंगे, जो निःसंकोच कह देंगे कि इससे बेहतर को अंग्रेज़ों का शासन था। फिर गोरों के शासन को ग़ुलामी को संबोधन क्यों दिया जाता है, यहr समझ से परे है।

कोई टिप्पणी नहीं: