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रविवार, 20 दिसंबर 2015

दिल्ली गैंगरेप के क्रूरतम हत्यारे की रिहाई के लिए कौन ज़िम्मेदार?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
''अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गईं खेत'' यह कहावत दिल्ली गैंग रेप से सबसे क्रूर हत्यारे की रिहाई पर बहाए जा रहे घड़ियाली आंसू एकदम फिट बैठती है। दरअसल, पूरे तीन साल का समय था, तब किसी ने कुछ नहीं किया। न नेताओं ने, न संसद ने और न ही जनता ने। अब भावनात्मक आधार पर चाहते हैं कि नाबालिग आरोपी जेल में रहे। अगर देश का शासन भावनाओं से चलता तो बेशक आरोपी को जेल में रखा जाता, लेकिन यहां देश भावना से नहीं क़ानून से चलता है, ऐसे में उसे रिहा करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था।

इस मामले में अदालत कुछ कर ही नहीं सकता। किसी भी आरोपी को अदालत सज़ा पूरी होने के बाद जेल में नहीं रख सकती। सबसे पहली बात अदालत हर अपराधी को सज़ा क़ानून के मुताबिक़ देती है और नाबालिग आरोपी को भी सज़ा क़ानून के मुताबिक दी गई थी। अब वह क़ानून के मुताबिक़ दी गई सज़ा काट लिया, तो उसे किस आधार पर जेल में रखा जाए? दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल 19 दिसंबर को रात में सुप्रीम कोर्ट गई। आम आदमी पार्टी वाले सभी को बेवकूफ समझते हैं। दिल्ली हाईकोर्ट का फ़ैसला 18 दिसंबर को दोपहर आ गया था। तब सवाल उठता है स्वाति 24 घंटे से ज़्यादा समय तक क्या कर रहीं थीं जो दूसरे दिन रात में सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं।

दरअसल, अवयस्क आरोपी को कड़ी सज़ा दिलाने के लिए राजनेताओं, संसद और देश की जनता के पास तीन साल का समय था, लेकिन तब राजनेता, संसद और जनता दोनों कुंभकरणी नींद सोए रहे। लिहाजा, जब अवयस्क आरोपी (जो अब वयस्क हो चुका है) को रिहा कर दिया गया तो सभी लोग विरोध दर्ज करवा रहे हैं। 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में चलती बस में पैरामेडिकल की छात्रा के साथ गैंगरेप से हर आदमी सदमे में था। गली-मोहल्ला हो, सड़क हो, बस-ट्रेन हो या फिर देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद, हर जगह लोग दुखी और ग़ुस्से में थे। कहीं लोग आक्रोश व्यक्त कर रहे थे तो कहीं धरना प्रदर्शन। बलात्कारियों को सज़ा-ए-मौत देने की पुरज़ोर पैरवी की जा रही थी। कहीं-कहीं तो रिएक्शन और आक्रोश एकदम एक्स्ट्रीम पर था, लोग इस तरह रिएक्ट कर रहे हैं कि अगर उनका बस चले तो रेपिस्ट्स को फ़ौरन फ़ांसी के फ़ंदे से लटका दें।

देश में अचानक बने जनादेश के दबाव के चलते केंद्र सरकार ने महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते य़ौन अपराध को रोकने के लिए कठोर क़ानून बनाने का मन बनाया और 23 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में सीन सदस्यों वाली एक कमेटी का गठन कर दिया। कमेटी के दूसरे सदस्य रिटायर्ड जज लीला सेठ और सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम थे। कमेटी को महिलाओं पर यौन अत्याचार करने वालों को कठोरतम दंड के प्रावधान की सिफारिश करनी थी। लोगों को यह भी उम्मीद बंधी थी कि बलात्कारियों को फ़ांसी की सज़ा देने और जेवुलाइल की उम्र 18 से घटाकर 16 साल करने का प्रावधान किया जाएगा। जस्टिस वर्मा ने दिन रात काम करते हुए केवल 29 दिन में ही 630 पेज की रिपोर्ट पूरी करके 23 जनवरी 2013 को केंद्र सरकार को सौंप दी। कमेटी को देश और विदेश से केवल 80 हजार सुझाव ही मिले। सवा अरब आबादी वाले देश में केवल 80 हज़ार लोगों सुझाव दिए, इससे पता चलता है कि लोग रेप की वारदात को लेकर कितने संवेदनशील हैं।

वर्मा कमेटी की रिपोर्ट निराशाजनक रही, क्योंकि कमेटी ने नाबालिग की उम्र न तो 18 साल से घटाकर 16 साल किया, न ही रेप को रेयर ऑफ़ रेयरेस्ट नहीं माना। मतलब जस्टिस वर्मा लोगों का मन भांपने में असफल रहे। जबकि कई शीर्ष राष्ट्रीय नेता भी बलात्कारियों को फ़ांसी की सज़ा देने और नाबालिग आरोपी की उम्र 18 साल से घटाकर 16 साल करने के पक्ष में थे। जस्टिस वर्मा ने रेप के बाद हत्या को रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर माना। जबकि रेप के साथ हत्या पहले से ही रेयरेस्च ऑफ़ रेयर कैटेगरी में था। सबसे दुखद बात यह रही कि केंद्र सरकार ने वर्मा कमेटी की सिफारिशों के आधार पर ही बिल की ड्राफ्टिंग करवा दी, जबकि सरकार हर तरह के रेप को रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर कैटेगरी में रखने के अलावा नाबालिग आरोपी की उम्र 18 से घटाकर 16 कर सकती थी। लेकिन सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया। किसी नेता या संगठन या नागरिक ने सरकार पर ऐसा करने के लिए दबाव भी नहीं डाला। कोई विरोध प्रदर्शन भी नहीं हुआ। लिहाज़ा, 21 मार्च 2013 को लोकसभा ने बलात्कार विरोधी बिल पास कर दिया और इस क़ानून को क्रिमिनल लॉ संशोधन अधिनियम 2013 कहा गया।

दऱअसल, जस्टिस वर्मा कमेटी ने कई सिफारिशे ऐसी की थीं, जिन पर अमल न तो तब मनमोहन सिंह सरकार ने किया न ही अब नरेंद्र मोदी सरकार कर रही है। वर्मा कमेटी ने जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव करके आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को राजनीति से दूर रखने की बात कही थी। रिपोर्ट के मुताबिक़ अगर किसी नेता पर बलात्कार या फिर दूसरे अपराध का आरोप है तो उसे चुनाव लडऩे से रोका जाना चाहिए, लेकिन रोकना तो दूर बलात्कार के आरोपी केंद्रीय मंत्रिमंडल में हैं। इसे क्या कहेंगे ? वर्मा कमेटी ने पुलिस की जवाबदेही तय करने और अदालतों में कामकाज की गति बढ़ाने के मकसद से जजों के खाली पदों को भरने के भी सुझाव दिये थे। सवाल यह है कि क्या जजों की भर्ती हो गई? वर्मा ने अपनी रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया था कि महिलाओं के खिलाफ बढ़ती वारदातों के पीछे शासन की संजीदगी का अभाव सबसे बड़ी वजह है। वर्मा ने कहा था कि सबसे जरूरी है कि शासनतंत्र जवाबदेह और बेदाग हो। इसकी शुरुआत पुलिस सुधारों से की जा सकती है।

सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य सरकारों को पुलिस तंत्र को सुधारने के निर्देश दिए थे, मगर कई राज्य सरकारें सुझावों पर आनाकानी कर दीं। अधिकांश राजनैतिक पार्टियां पुलिस की नकेल अपने हाथ से जाने देना नहीं चाहती हैं। अगर पुलिस ईमानदार और निष्पक्ष हो जाएगी तो शासकों के लिए अपनी काली करतूतें छिपाना कठिन हो जाएगा। पुलिस की कमजोरी के कारण ही आपराधी राजनीति में आ रहे हैं, क्योंकि देश का क़ानून अपराधियों को सज़ा देने में नाकाफी है। यही कारण है कि कई कुख्यात अपराधी भी अब संसद या विधानसभा में पहुंचने लगे हैं। जस्टिस वर्मा ने हर पुलिस स्टेशन में प्रवेश और पूछताछ कक्ष में सीसीटीवी कैमरे लगाने और हर थाऩे में रेप क्राइसिस सेल के गठन की सिफारिश की थी, सरकार बताए, इस सिफारिश पर क्या अमल किया गया।ल मिलाकर कहा जा सकता है कि जब कुछ करने का समय था तब नेता, सरकार और लोग मूकदर्शक बने रहे। फिर अब हायतौबा मचाने से क्या फायदा?

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

अरविंद केजरीवाल के हिडेन एजेंडा के प्रतीक हैं राजेंद्र कुमार ?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
दिल्ली के मुख्यमंत्री कार्यालय में सीबीआई के छापे को किसी भी ऐंगल से जस्टीफाई नहीं किया जा सकता। यह हेल्दी डेमोक्रेसी के लिए शुभ संकेत नहीं है। जनता द्वारा निर्वाचित सरकार को काम न करने देना, एक तरह से अघोषित आपातकाल है। ऐसा केवल आपातकाल के दौरान देखा गया था, लेकिन दिल्ली सीएम के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार के बारे में जो ख़बरें आ रही हैं, उससे प्रथम-दृष्ट्या तो यही लग रहा है कि राजेंद्र कुमार ने अपने कार्यकाल में बहुत ज़्यादा झोल कर चुके हैं और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने का दावा करके दिल्ली की सत्ता हासिल करने वाले अरविंद केजरीवाल के लिए इस कथित रूप से भ्रष्ट नौकरशाह को बचाना भारी पड़ रहा है।

एक नेता, जिसका जन्म ही भ्रष्ट-व्यवस्था से नफरत की रोशनी में हुआ। उसका सबसे क़रीबी अफ़सर ही दाग़दार निकले, इससे बड़े शर्म की बात हो ही नहीं सकती। राजेंद्र कुमार की “ईमानदारी” के बारे में सुनकर सब लोग हैरान हैं, कि ऐसा अफसर केजरीवाल का सहयोगी कैसे बन गया। इससे तो यही साफ़ होता है कि अरविंद का एजेंडा भ्रष्टाचार से लड़ना कतई नहीं था। तभी तो अपने पहले कार्यकाल में 49 दिन में ही जनलोकपाल बिल के मुद्दे पर सरकार छोड़ दी। अब धीरे-धीरे साल भर होने वाला है लेकिन उनका जनलोकपाल बिल आया ही नहीं। उन्होंने जो बिल ड्राफ़्ट करवाया था, उसमें उनके गुरु अण्णा हज़ारे ने ही खामी निकाल दी। केजरीवाल का बिल भी संसद द्वारा पारित “जोकपाल” की तरह ही है। जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में आते ही लोकपाल को भूल गए वैसे केजरीवाल भी सीएम बनते ही लोकपाल को अपनी सूची से आउट कर दिया। या यह कहें कि सभी राजनेता लोकपाल को भूलना चाहते हैं। लोगों को वाक़ई उम्मीद बंधी थी, कि वाक़ई केजरीवाल अलग तरह की राजनीति की नींव डालेंगे, लेकिन उन्हें भी आलाकमान बनने का रोग लग गया। अब लोग आसानी से किसी नए नेता पर यकीन नहीं करेंगे। यह त्रासदीपूर्ण है।

फ़िलहाल, केजरीवाल और उनके “एसमेन” दिल्ली डिस्ट्रिक्ट क्रिकेट बोर्ड में कथित घोटाले की जांच की मांग करते हुए वित्तमंत्री अरुण जेटली से उनका इस्तीफ़ा मांग रहे हैं। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि जेटली अपने पद पर रहते हुए निष्पक्ष जांच नहीं होने देंगे, उसमें रुकावट पैदा करेंगे। लेकिन केजरीवाल ने संदिग्ध हो चले राजेंद्र कुमार को हटाने का कोई संकेत नहीं दिया है। यह तो वही बात हुई कि दूसरों के लिए अलग मापदंड और अपने लिए अलग। केजरीवाल लालबत्ती-वीआईपी-बंगला कल्चर ख़त्म करने की बात करते थे। क्या उसका पालन कर रहे हैं? जवाब है, नहीं, बिल्कुल नहीं।

दरअसल, केजरीवाल दिल्ली में अभूतपूर्व जीत दर्ज करने के बाद जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, उससे वह आम आदमी की सहानुभूति खोते जा रहे हैं। चाहे वह योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार को गाली देने का ऑडियो हो या देश के प्रधानमंत्री के बारे में अशिष्ट ट्वीट। वैसे जिस तरह से केजरीवाल शुरू से राजेंद्र कुमार का फेवर कर रहे हैं, उससे यह आशंका भी बलवती हो रही है कि कहीं राजेंद्र कुमार उनके हिडेन एजेंडा के प्रतीक तो नहीं हैं। केजरीवाल के मेंटर अण्णा हज़ारे ने भी केजरीवाल को राजेंद्र कुमार जैसे संदिग्ध चरित्र वाले लोगों से दूर रहने की सलाह दी है। कम से कम इसके बाद केजरीवाल को संभल जाना चाहिए था, लेकिन नहीं संभले।

भ्रष्टाचार के मामले में फंसे राजेंद्र कुमार केजरीवाल के लिए नई मुसीबतें खड़ी करने लगे हैं। बताया जाता है कि वह इस साल जून से ही सीबीआई के रडार पर है। तीन महीने की पड़ताल में सीबीआई उनके फोन रिकॉर्ड खंगाल चुकी है, जिसमें कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। दरअसल, फोन टैपिंग करने वाली सीबीआई की 'स्पेशल यूनिट' की भी नज़र राजेंद्र कुमार पर है। वह सीएम से क्या क्या बात करते थे और आम आदमी पार्टी के साथ उनकी डीलिंग क्या थी,  ये सभी सीक्रेट भी अब सीबीआई के पास हैं, जो केजरीवाल के लिए मुसीबत बन सकते हैं।

पटना के राजेंद्र कुमार पर केजरीवाल बहुत भरोसा करते रहे हैं। दरअसल, दोनों ही आईआईटी के प्रोडक्ट छात्र है और एक दूसरे को बहुत पहले से जानते थे। यही वजह थी कि तमाम विरोध के बावजूद केजरीवाल ने उन्हें अपना प्रमुख सचिव बनाया था। बताया जाता है कि के आशीष जोशी की शिकायत मिलने के बाद सीबीआई ने जून में ही उनकी पड़ताल शुरू कर दी थी। ख़ासकर मामलो में वह फंसे हैं, उनकी गोपनीय जांच कराई जा चुकी है। सीबीआई की एंटी करप्शन शाखा के दो अधिकारी ख़ासतौर पर उनके हर सौदे की बारीक़ जांच कर चुके हैं। सीबीआई को केजरीवाल और आप के कई टॉप लीडर्स के बारे में भी अहम सूचना मिली है। फ़िलहाल कुमार के खिलाफ पिछले साल के सौदे पर ही पूछताछ की जा रही है। हालांकि आधिकारिक तौर पर सीबीआई खंडन कर चुकी है कि राजेंद्र कुमार के ज़रिये केजरीवाल और उनके मंत्रियों पर शिकंजा कसा जा रहा है।

इसीलिए, अब केजरीवाल को उनके साथ हो रहे जेनुइन अन्याय के ख़िलाफ़ जनसमर्थन नहीं मिल रहा है। लोग जान रहे हैं कि उपराज्यपाल नज़ीब जंग केंद्र के इशारे पर लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को काम नहीं करने दे रहे हैं। लोग यह भी समझ रहे हैं कि मोदी की अगुवाई में केंद्र सरकार दिल्ली सरकार और दिल्ली की जनता के साथ खुला पक्षपात और बेइमानी कर रही है, लेकिन खुले पक्षपात और बेइमानी पर न तो दिल्ली में, न ही देश में, किसी का ख़ून खौल रहा है। लोग एकदम चुप हैं, कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर रहे हैं। इसका मतलब यह भी है कि लोग जान गए हैं कि “आप” और केजरीवाल भी दूध के धुले नहीं हैं।  लिहाज़ा, न तो “आप” को न ही केजरीवाल को जनता की सहानुभूति नहीं मिल रही है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार 1989 बैच के आईएएस अफ़सर हैं। केजरीवाल ने उन्हें अपने 49 दिन के पहले कार्यकाल के दौरान भी प्रधान सचिव बनाया था। राजेंद्र कुमार केजरीवाल के कितने क़रीब हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर की अनदेखी करते हुए उनको प्रधान सचिव बनाया था। इसी साल जून में राजेंद्र कुमार के खिलाफ दिल्ली डायलॉग के पूर्व सचिव आशीष जोशी ने भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए शिकायत की थी। आशीष ने अपनी शिकायत में लिखा है, “जब मैं डीयूएसआईबी का चीफ डिजिटाइलेशन ऑफिसर बना तो मुझे आईटी से जुड़े राजेंद्र कुमार की भ्रष्ट गतिविधियों का पता चला। मुझे दिल्ली सरकार ने डीओपीटी के 2010 के आदेशों का उल्लंघन करते हुए अचानक पद से हटा दिया। मैंने राजेंद्र कुमार और दूसरे लोगों के खिलाफ संसद मार्ग और आईपी एस्टेट पुलिस थाने में शिकायत भी दर्ज कराई थी।“

बहरहाल, इसी शिकायत पर काम करते हुए सीबीआई ने दिल्ली सचिवालय में और राजेंद्र कुमार के घर पर छापेमारी की थी। पता चला है कि राजेंद्र कुमार के घर से सील बंद 12 लीटर विदेशी शराब की बोतलें, तीन 750 एमएल की खुली बोतलें बरामद की है। इतनी ज़्यादा शराब मिलने से सीबीआई ने उनके ख़िलाफ एक और मामला दर्ज कर लिया। शराब मिलने का मतलब राजेंद्र कुमार शराब के शौक़ीन जान पड़ते हैं। मतलब राजनीति बदलने का दंभ भरने वाले केजरीवाल को ईमानदार एक शराबी अफसर ही मिला।

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

2012 दिल्ली गैंगरेपः इंसाफ़ के लिए कितना लंबा इंतज़ार?

हरिगोविंद विश्वकर्मा

आप लोगों को याद हैकोई तीन साल पहले की बात है। दिसंबर का दूसरा पखवाड़ाऔर 16 दिसंबर का दिन। दिल्ली में चलती बस में एक गैंगरेप हुआ था। पीड़ित लड़की पैरामेडिकल की छात्रा थी। उसके साथ छह दरिंदों ने इतना अमानवीय व्यवहार किया था कि लड़की का शरीर ही नष्ट हो गया। भारत में डॉक्टरों ने उसकी जान बचाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। भारतीय डॉक्टरों के नाकाम होने पर उसे सिंगापुर के विश्वविख्यात माउंट एलिजाबेथ अस्पताल ले जाया गया, फिर भी उसकी जान नहीं बचाई जा सकी। यानी दो हफ़्ते मौत से जूझने के बाद 29 दिसंबर को वह यमराज से उसी तरह हार गई, जैसे बलात्कारियों से लड़ने के बाद हार गई थी।

क्या उस क्रूर और अमानवीय घटना का इंसाफ़ हो गयाअगर नहीं तो क्योंदिसंबर 2012 और दिसंबर 2015 के कालखंड के बीच इतना बदलाव हुआ कि लोग वारदात को ही भूल गए। अब मुमकिन है, उसकी तीसरी बरसी पर 16 दिसंबर को टीवी चैनल वाले भी उसे याद करते हुए, यही सवाल उठाएं कि आख़िर गुनाहगारों को अब तक सज़ा क्यों नहीं दी गई? फिर कुछ लोग कहेंगे, सरकार ने अपनी तरफ़ से बलात्कारियों को सज़ा देने की प्रक्रिया में हर मुमकिन मदद की। चूंकि किसी आरोपी को सज़ा कितनी और किस तरह देनी है, यह फ़ैसला अदालत करती है और अदालत के फ़ैसले पर किसी का कोई ज़ोर नहीं। न्यायपालिका स्वतंत्र है। वह दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को कब मौत की सज़ा दी जाए या कोई दूसरी सज़ा, यह फ़ैसला केवल अदालत ही करेगी।
पैरा-मेडिकल छात्रा के साथ हुए गैंगरेप की निंदा देश-विदेश में हुई थी। रेप के विरोध में ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया पर बहुत कुछ लिखा गया। देश में कहीं उग्र तो कहीं शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुए। दिल्ली में प्रदर्शन इतना उग्र हो गया था कि मेट्रो सेवा बंद करनी पड़ी। रायसीना हिल्स रोड पर दिल्ली पुलिस ने आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज किया था। बलात्कार के दो दिन बाद 18 दिसंबर को इसी विषय पर संसद के दोनों सदनों में जोरदार हंगामा हुआ। आक्रोशित संसद सदस्यों ने रेपिस्ट्स के लिए फ़ासी की सज़ा तय करने की मांग की। तत्कालीन गृहमंत्री सुशीलकुमार शिंदे ने संसद को आश्वासन दिया कि राजधानी में महिलाओं की सुरक्षा के लिए सभी ज़रूरी क़दम उठाए जाएंगे।

दिल्ली गैंगरेप पर बीबीसी के लिए फिल्मकार लेस्‍ली एडविन ने 'इंडियाज डॉटर्स' शीर्षक से डॉक्‍यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें उन्होंने देश में महिलाओं या लड़कियों के प्रति पुरुष की मानसिकता को बताने की कोशिश की थी। इसके लिए उन्होंने तिहाड़ जेल में एक आरोपी का इंटरव्यू भी लिया था। यह वृत्तचित्र विवाद में आ गई और उस पर प्रसारण से पहले ही बैन लग गया। सरकार के आग्रह पर कंटेंट को यू-ट्यूब से भी हटा दिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टाइम को दिए इंटरव्यू में प्रतिबंध को अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता से जुड़ा मुद्दा मानने से इनकार करते हुए इसे क़ानून से जुड़ा मामला बताया। मोदी ने कहा, 'इस डॉक्‍यूमेंट्री में उस पीड़ित लड़की की पहचान ज़ाहिर की गई है। इसकी कानूनी प्रक्रिया जारी है। लिहाज़ा, प्रसारण से कानूनी प्रक्रिया पर असर पड़ सकता है।

बहरहाल, सरकार और न्यायपालिका सबकी की सक्रियता देखकर उस समय एक बार तो पूरे देश को यही लगा और भरोसा हुआ कि अब पूरी व्यवस्था बदल जाएगी। ऐसे प्रावधान किए जाएंगे कि कोई बलात्कार करने की हिमाकत नहीं करेगा। महिलाओं पर यौन हमला करने वाला हर अपराधी जेल में होगा। केंद्र ने महिलाओं के ख़िलाफ़ बढ़ते य़ौन अपराध को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन कर दिया। ज़ाहिर है, कमेटी को महिलाओं पर यौन अत्याचार करने वालों को कठोर दंड देने की सिफारिश करनी थी। लोगों को यह भी उम्मीद बंधी थी कि बलात्कारियों को फ़ांसी की सज़ा देने का प्रावधान किया जाएगा। चूंकि दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को नए क़ानून के तहत सज़ा दी जानी थी, इसलिए जस्टिस वर्मा ने दिन रात काम करते हुए रिकॉर्ड 29 दिन में 630 पेज की रिपोर्ट पूरी करके 23 जनवरी 2013 को सरकार को सौंप दी। जस्टिम वर्मा को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी समेत देश और विदेश से लगभग 80 हजार सुझाव मिले। मगर रिपोर्ट निराशाजनक रही।

रिपोर्ट में जस्टिस वर्मा ने रेप को रेयर ऑफ़ रेयरेस्ट नहीं माना, जबकि लालकृष्ण आडवाणी जैसे राष्ट्रीय नेता हर बलात्कारी को फ़ांसी की सज़ा देने के पक्ष में थे। मगर भारत जैसे पुरुष प्रधान देश में पले-बढ़े और न्याय-व्यवस्था का संचालन करने वाले जस्टिस वर्मा संभवतः बलत्कृत स्त्री की पीड़ा कोमहसूस करने में नाकाम रहे, अन्यथा वह बलात्कारी के लिए फ़ांसी की सज़ा की सिफ़ारिश ज़रूर करते। बहरहाल, जस्टिस वर्मा ने बलात्कार के बाद लड़की की हत्या को रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर ज़रूर माना और हत्यारे बलात्कारी के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान किया। इसके अलावा जस्टिस वर्मा ने यौन अपराध करने वालों को कड़ी सज़ा का प्रावधान किया जिसके चलते तरुण तेजपाल जैसे तथाकथित लोग पुलिस की गिरफ़्त में आए। 21 मार्च 2013 को लोकसभा ने बलात्कार विरोधी बिल पास कर दिया और इस क़ानून को क्रिमिनल लॉ संशोधन अधिनियम 2013 कहा गया।

इस बीच दिल्ली गैंगरेप के मुख्य आरोपी ड्राइवर रामसिंह ने न्यायपालिका से पहले ख़ुद ही अपने आपको सज़ा दे दी और 11 मार्च 2013 की सुबह तिहाड़ जेल में आत्महत्या कर ली। 16 दिसंबर की रात लड़की पर सबसे ज़्यादा हैवानियत करने वाला आरोपी मुहम्मद अफरोज नाबालिग था और भारतीय न्याय-व्यवस्था पर जेल (सुधार घर) से हंसता हुआ बाहर निकला। बाक़ी चार आरोपियों मुकेश सिंहअक्षय ठाकुर, विनय शर्मा और पवन गुप्ता पर लगे अभियोग पर सुनवाई के लिए विशेष त्वरित अदालत गठित की गई, ताकि इंसाफ़ जल्दी हो। विशेष अदालत ने 14 सितंबर 2013 को दोषियों क़रार देते हुए फ़ांसी की सज़ा सुना दी। यानी महज 173 दिन यानी नौ महीने में आरोपियों को सज़ा सुना दी गई। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी छह महीने के अंदर 13 मार्च 2014 को दिए फ़ैसले में चारों की फ़ासी की सज़ा बरकरार रखा। अब केस क़रीब दो साल से देश की सबसे बड़ी अदालत में है। सुप्रीम कोर्ट के जज मदन बी कोकुर के पिछले 22 नवंबर को हैदराबाद में एक सेमिनार में दी गई जानकारी के मुताबिक, पहले से ही 65 हज़ार (64,919) केस लंबित हैं। वैसे पूरे देश में तीन करोड़ मुकदमे लंबित हैं।

दिल्ली गैंगरेप के दौरान अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो दिल्ली में रेप के मुकदमों की तेज़ सुनवाई के लिए अदालतों और जजों की संख्या बढ़ाई जाएगी। उन्हें सत्ता में आए क़रीब साल भर होने वाले हैं, लेकिन इस तरह की कोई आहट नहीं दिख रही है कि राजधानी में अदालत या जजों की संख्या बढ़ाई जा रही है। बयानबाज़ी खूब करने वाले केजरीवाल ने अगर सुप्रीम कोर्ट से अपील भी की होती कि कम से कम प्रतीक तौर पर दिल्ली गैंगरेप के मामले को जल्दी से सुनवाई करके बलात्कारी को दंडित किया जाए ताकि देश में संदेश जाए कि वाक़ई रेपिस्टों को दंड मिल रहा है। मज़ेदार बात यह रही कि साफ़ सुथरी राजनीति का सब्ज़बाग़ दिखाकर दिल्ली के सीएम बने केजरीवाल ने ऐसे-ऐसे लोगों को टिकट दिया कि 67 विधायकों में उनके पांच विधायक जेल जा चुके हैं, जिनमें एक मंत्री भी शामिल है।

अब नया अपराध क़ानून के बने क़रीब तीन साल होने वाले हैं, लेकिन नए क़ानून के तहत अभी तक किसी को सज़ा नहीं हुई है। यही वजह है कि तमाम कोशिश के बावजूद बलात्कार की वारदातें रोके नहीं रुक रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़, पिछले साल यानी 2014 में 36735 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। 2013 में रेप के 33707 और 2012 में 24923 मामले केस हुए थे। पिछले साल रोज़ाना 101 रेप की वारदात दर्ज हुई। यानी 14 मिनट में एक महिला अपनी इज्ज़त गंवा बैठती है। यह 2012 के बाद बलात्कार की घटना में सात फ़ीसदी से ज़्यादा बढ़ोतरी है। दिल्ली और मुंबई महिलाओं के लिए सेफ मानी जाती है, लेकिन यहां बलात्कार की घटनाएं सबसे ज़्यादा होती है। अकेले दिल्ली में 2013 में 1626 रेप हुआ था।

मशहूर उर्दू शायर ख़्वाज़ा हैदर अली 'आतिश' का शेर बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल काजब चीरा तो क़तरा-ए-खूं न निकला।“ इस देश की जनता और सरकार की करनी और कथनी में अंतर बया करता है। मतलब, कभी लोग क्रांति करने के लिए उतावले हो जाते हैं और कभी घटना ही विस्मृत कर देते हैं। दरअसल, कोई घटना होती है, तो भारतीय बहुत ज़्यादा उत्तेजित हो जाते हैं। सरकार भी पीछे नहीं रहती और घोषणा पर घोषणा कर देती है, यह सोचे बिना ही कि घोषणा पर अमल होगा या नहीं। लोगों की सक्रियता देखकर यही लगता है कि अब इस तरह की वारदात भविष्य में नहीं होगी, लेकिन जल्द ही लोग घटना ही भूलने लगते हैं और पुलिस कांख में डंडा दबाए फिर से वही खैनी खाने के मूड में आ जाती है। यह अप्रोच हर घटना को लेकर रहती है। चाहे वह आतंकी हमला हो या फिर महिलाओं पर यौन हमला यानी सामूहिक बलात्कार। बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट इस केस की सुनवाई जल्द से जल्द करने बलात्कारियों को सुनाई गई सज़ा को बरकरार रखेगा, ताकि महिलाओं पर बुरी नज़र डालने वालों पर अंकुश लग सके।
समाप्त

रविवार, 13 दिसंबर 2015

क्‍या हेराल्‍ड मामले में कांग्रेस नेताओं ने ही फंसाया है सोनिया-राहुल को?

हरिगोविंद विश्‍वकर्मा
नेशनल हेराल्ड के स्वामितव के सौदे को लेकर पूरे देश में घमासान मचा हुआ है। इस बार विवाद की केंद्र में कोई और नहीं, बल्कि सीधे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके बेटे और पार्टी के भावी कर्ता-धर्ता राहुल गांधी हैं। घटना जिस तरह हुई है, उससे कई सवाल उठ रहे हैं कि क़ानून की गहरी समझ, जानकारी और अनुभव रखने वाले कांग्रेस के नेताओं ने अपने नेताओं को कहीं किसी साज़िश के तहत तो क़ानूनी पचड़े में नहीं फंसा दिया।

कांग्रेस में अभिषेक मनु संघवी, कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी जैसे एक से एक क़ानून के धुरंधर हैं। इन सबके अलावा भी पार्टी में बड़ी संख्या में एक से बढ़कर एक वकील हैं। तब इन लोगों ने सोनिया-राहुल को संभावित ख़तरे से पहले ही आगाह क्यों नहीं कर दिया? या फिर, इतना रिस्की डील करने से पहले उसके नतीजे का संकेत क्यों नहीं दे दिया? अगर गांधी-नेहरू परिवार के कथित वफादारों ने पहले ही पार्टी प्रमुख को संभावित क़ानूनी ख़तरे के प्रति आगाह कर दिया होता तो संभवतः कांग्रेस के दोनों शीर्ष नेताओं के कोर्ट में हाजिर होने की नौबत न आती। अगर कुछ नहीं कर सकते थे, तो कम से कम तीनों अख़बारों का प्रकाशन ही शुरू करवा देते। तब अधिग्रहण के औचित्य को सही ठहराते हुए कोर्ट को इतना तो बताया जा सकता था कि तीनों अख़बार चालू कर दिए गए हैं।

एक और अहम तथ्य यह है कि नेशनल हेराल्ड का स्वामित्व रखने वाली कंपनी के शेयर होल्डर्स अध्यक्ष सोनिया और राहुल ने आरोप लगाने वाले भारतीय जनता पार्टी नेता (तब वह जनता पार्टी के अध्यक्ष थे) डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी पर मानहानि का मुक़दमा क्यों नहीं ठोंका? जबकि डॉ स्वामी के आरोप लगाने के फौरन बाद राहुल गांधी ने बयान दिया था कि उनको कोर्ट में घसीटेंगे। आगे ख़तरा है, यह जानते हुए भी सोनिया राहुल, मोतीलाल वोरा और आस्कर फर्नांडिस दो साल तक चुपचाप बैठे रहे।

डॉ.स्वामी ने एक नवंबर 2012 को जब सोनिया और राहुल पर गैरक़ानूनी डील करने का आरोप लगाया था। उसी दिन त्वरित रिएक्शन में राहुल ने मानहानि का मुकदमा दायर करने का फ़ैसला किया था। राहुल ने डॉ.स्वामी के आरोप को आधारहीन और झूठा बताते हुए कहा था कि उनके ख़िलाफ कार्रवाई करने के बारे में कानूनी राय ली जा रही है। राहुल के ऑफ़िस से डॉ. स्वामी को भेजे पत्र में कहा गया था, “आपके ख़िलाफ़ मानहानि की कार्रवाई इसलिए करने का फ़ैसला लिया गया है, ताकि आप या कोई व्यक्ति या कोई संस्था अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर किसी पर तथ्यहीन आरोप लगाकर उसकी छवि खराब न कर सके।लेकिन इसके बाद दो साल तक न तो सोनिया और न ही राहुल ने स्वामी के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई की।

शायद क़ानून के जानकारों ने सोनिया और राहुल को बता दिया होगा था कि बहुत देर हो चुकी है, मानहानि का मुक़दमा करने पर अपनी ही फजीहत हो सकती है। इसलिए राहुल ने मानहानि का मुक़दमा दायर करने के अपने फ़ैसले से पीछे हट गए होंगे। हालांकि इसके बाद भी सोनिया, राहुल, वोरा, आस्कर और कांग्रेस इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज़ करते रहे हैं। जनार्दन द्विवेदी तो डॉ.स्वामी को अजूबा बता चुके हैं। उन्होंने कहा था, “हर देश और समाज में सुब्रमण्यम स्वामी जैसे अजूबे मौजूद हैं। ये हर वक्त किसी भी मसले पर बोलने को तैयार बैठे रहते हैं।

बहरहाल, डॉ. स्वामी ने तीन साल पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस में कांग्रेस अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पर सनसनीखेज़ आरोप लगाए थे। उनका कहना था कि यंग इंडियन नामक कंपनी के 38-38 फ़ीसदी शेयर सोनिया और राहुल के पास है। बाक़ी शेष 24 फ़ीसदी संपत्ति के मालिक वोरा और आस्कर, सैम पित्रोदा और सुमन दुबे हैं।

डॉ.स्वामी ने यह भी आरोप लगाया कि राहुल के पास करोड़ों की अघोषित संपत्ति है, जिसका ज़िक्र कभी उन्होंने अपने चुनावी हलफनामे में नहीं किया है। उस प्रेस वार्ता में जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष ने इस प्रकरण की उच्चस्तरीय जांच कराने की मांग की थी। उनके मुताबिक, “सोनिया-राहुल ने चुपके-चुपके द एसोसिएट्स जर्नल्स लिमिटेड का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया।

यह कंपनी इंग्लिश न्यूज़पेपर 'नेशनल हेराल्ड', हिंदी समाचार पत्र नवजीवनऔर उर्दू अख़बार क़ौमी आवाज़प्रकाशन करती थी। एसोसिएट्स जर्नल्स के पास 11 मंज़िली इमारत का मालिकाना हक है। नई दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग के हेराल्ड हाऊस की कीमत तक़रीबन 1,600 करोड़ रुपए है।
डॉ.स्वामी के अनुसार, “कांग्रेस ने 26 फरवरी 2011 को एसोसिएट्स जर्नल्स की 90 करोड़ रुपये की देनदारियों को अपने ज़िम्मे लिया था और बिना ब्याज के 90 करोड़ का क़र्ज़ दिया। कांग्रेस ने यह फ़ैसला ऐतिहासिक अख़बार समूह के कर्मचारियों को बेरोज़गार होने से बचाने के लिए किया था, लेकिन तीनों में से कोई अख़बार शुरू नहीं किया गया और 26 अप्रैल 2012 को सोनिया और राहुल की कंपनी यंग इंडियन ने एसोसिएटेड जर्नल्स का मालिकाना हासिल कर लिया।

दरअसल, विवाद इस बात को लेकर हुआ कि यंग इंडियन ने अख़बार तो शुरू किया नहीं, उल्टे महज़ 50 लाख रुपए में नेशनल हेराल्ड की 1600 करोड़ की संपत्ति हासिल कर ली। चूंकि यंग इंडियन में सोनिया और राहुल की 38-38 फ़ीसदी हिस्सेदारी है। इससे नेशनल एसोसिएट्स जर्नल्सका नियंत्रण उनके हाथ में आ गया। आमतौर पर भारतीय कंपनियों की आर्थिक हैसियत का मूल्यांकन उनकी चल-अचल संपत्ति के आधार पर किया जाता है।

प्रेसवार्ता में डॉ.स्वामी ने कहा था, “चूंकि हेराल्ड हाऊस को केंद्र सरकार ने समाचार पत्र चलाने के लिए ज़मीन दी थी, इस लिहाज से उसे व्यावसायिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। मगर फ़िलहाल पॉसपोर्ट सेवा केंद्र का संचालन हेराल्ड हाऊस से हो रहा है, जिससे शेयरधारकों को भारी मुनाफ़ा हो रहा है।

डॉ.स्वामी ने यह भी कहा था कि वह इसकी सीबीआई और दूसरी संबंधित एजेंसियों जांच कराने की मांग करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिख चुके हैं। डॉ.स्वामी ने 2009 के आम चुनाव में राहुल गांधी के अपनी संपत्ति के बारे में निर्वाचन आयोग में दिए गए हलफ़नामे की भी जांच की मांग की थी। जांच न होने पर जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष ने एक महीने इंतज़ार करने के बाद अदालत का दरवाज़ा खटखटाया।

दरअसल, जवाहरलाल नेहरू ने नेशनल हेराल्ड की स्थापना 8 सितंबर 1938 को लखनऊ में की थी। पंडित नेहरू ही अखबार के पहले संपादक थे। वह प्रधानमंत्री बनने तक नेशनल हेराल्ड बोर्ड के चेयरमैन रहे। आज़ादी में नेशनल हेराल्ड ने काफी सक्रिय भूमिका निभाई थी।  बाद में नवजीवन और ऊर्दू में कौमी आवाज़ भी निकाले गए।


स्वतंत्र भारत में नेशनल हेराल्ड अख़बार कांग्रेस का मुखपत्र बना रहा। लेकिन मिसमैनेज़मेंट और ख़राब माली हालात के चलते 2008 में अख़बार का प्रकाशन बंद कर दिया गया। उस समय इसका स्वामित्व एसोसिएटेड जर्नल्स के पास था। जो भी हो, अधिग्रहण के बाद या डॉ.स्वामी के मुक़दमा दायर करने के बाद भी 'नेशनल हेराल्ड', ‘नवजीवनऔर क़ौमी आवाज़का प्रकाशन शुरू कर दिया गया होता, तो लोगों को लगता कि इन लोगों की नीयत बुरी नहीं है।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

क्या भारतीय न्याय-व्यवस्था केवल आरोपी का हित-अहित देखता है?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अभी कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज ने कहा था कि भारत में ग़रीबों को न्याय मिलना बड़ा कठिन कार्य है। उनके कहने का मतलब यह था कि भारत में न्याय प्रक्रिया बहुत ज़्यादा महंगी हो गई है। वकीलों की फीस इतनी ज़्यादा बढ़ गई है कि ग़रीब आदमी बढ़िया तर्क वाला वकील हायर करना तो दूर की बात हायर करने की सोच भी नहीं सकता। इससे इंसाफ़ उससे दूर चला जाता है। रिटायर्ड जज का यह तर्क प्राइमा-फेसाई सही ही जान पड़ता है, क्योंकि देश में जितने बड़े या मशहूर वकील हैं, उनमें किसी ने कभी किसी ग़रीब का मुक़दमा लड़ा, ऐसा सुनने को नहीं मिलता। इसीलिए माना जाता है कि भारत में न्याय-व्यवस्था मनी-ओरिएंटेड है।

अभिनेता सलमान ख़ान के हिट ऐंड रन केस को उदारहण के रूप में लिया जा सकता है। सलमान ने असाधारण तर्क करने वाले वकीलों को हायर किया। कहा जाता है कि ये वकील इतने महंगे थे कि सरकार भी उन्हें हायर नहीं कर सकती थी। ये वकील अपने तर्क से न्यायाधीश के मन में मौजूदा सबूतों पर संदेह पैदा करने में कामयाब रहे। बॉम्बे हाईकोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने सेशन्स कोर्ट के अपने काउंटर पार्ट के सलमान को पांच साल की सज़ा सुनाने के फ़ैसले पर बेहद कठोर टिप्पणी करते हुए अभिनेता को आरोपमुक्त करते हुए बरी कर दिया।

विरोधी पक्ष किसी फ़ैसले से असहमति जताए तो बात समझ में आती है, लेकिन इस बार बॉम्बे हाईकोर्ट के जज के फ़ैसले पर बहुत कड़ी प्रतिक्रिया हो रही है। ख़ासकर सोशल नेटवर्किंग साइट पर लोग बहुत ज़्यादा क्रिटिकल दिख रहे हैं। सबसे बड़ी बात क़ानून के कई बहुत अच्छे जानकारों ने भी बहुत प्रतिकूल टिप्पणी की है। इसमें दो राय नहीं कि पहली बार ऊंची अदालत के किसी फ़ैसले पर इतने व्यापक पैमाने पर प्रतिक्रिया हो रही है। कई वाट्सअप ग्रुप पर तो इस फ़ैसले पर जोक्स बनाकर सर्कुलेट किए जा रहे हैं। यह स्वस्थ्य और निष्पक्ष न्यायिक परंपरा के लिए शुभ संकेत नहीं है। दरअसल, जब से नरेंद्र मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज पी सदाशिवम को राज्यपाल बनाया है, सोशल नेटवर्किंग साइट पर जज की भी कड़ी आलोचना होने लगी है, जो उचित नहीं है।

बहरहाल, सलमान की बाइज़्ज़त रिहाई से भारतीय न्याय-व्यवस्था को मनी ओरिएंटेड कहना सही हो या नहीं, इस पर दो राय हो सकती है, लेकिन भारतीय न्याय-व्यवस्था आरोपीन्मुख यानी अक्यूज़्ड ओरिएंटेड है, इस पर दो राय हो ही नहीं सकती। यानी भारतीय न्याय-व्यवस्था केवल आरोपी के हित-अहित पर ध्यान देती है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने सलमान को सभी आरोपों से मुक्त करते हुए बरी कर दिया। अदालत का मानना था कि अभियोजन पक्ष सलमान पर लगाए गए आरोपों के समर्थन में ठोस सबूत पेश नहीं कर सका। अगर सलमान के नज़रिए से देखें, तो लगता है हाईकोर्ट ने इंसाफ़ किया है, क्योंकि किसी को बिना पुख़्ता सबूत के सज़ा देना न्यायिक प्रावधानों के ख़िलाफ़ है। लेकिन इस केस को अगर पीड़ितों की नज़रिए से देखें, क्या लगता है कि न्याय हुआ है? सीधा सा जवाब है, नहीं। पीड़ितों के साथ इंसाफ न होना साबित करता है कि भारत में न्याय-व्यवस्था आरोपीन्मुख यानी अक्यूज़्ड ओरिएंटेड हो गया है।

सलमान ख़ान ही नहीं आपराधिक मामलों में अकसर सुनने को मिलता है कि अमुक हत्याकांड या किसी दूसरे मामले में पर्याप्त सबूत के अभाव में आरोपी बरी हो गया। इससे बेशक आरोपी को राहत मिल जाती है, लेकिन पीड़ितो को कुछ नहीं मिलता। यानी भारतीय न्याय-व्यवस्था में अदालते पीड़ित पक्ष को एड्रेस नहीं करतीं। यानी पीड़ित पक्ष पूरी तरह घटना या वारदात की जांच करने वाली जांच एजेंसी, जो अमूममन पुलिस होती है, की दया पर निर्भर रहता है। अगर पुलिस ने तहकीकात सही और बिना किसी पूर्वग्रह, जो आमतौर पर नहीं होता, के करती है, तो आरोपी को सज़ा के रूप में पीड़ित को इंसाफ़ मिलता है, लेकिन अगर पुलिस जांच किसी वेस्टेड इंटरेस्ट से करती है, तो पीड़ित पक्ष इंसाफ़ पाने से वंचित रह जाता है।

बॉम्बे हाईकोर्ट के जज के मुताबिक़, सलमान पर आरोप भले साबित न हुआ हो, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उस दिन पाली हिल में अमेरिकन बेकरी के सामने हादसा हुआ था और उस हादसे में फुटपाथ पर सो रहे नुरुल्ला शरीफ़ नाम के व्यक्ति की मौत हो गई थी। इसके अलावा अब्दुल शेख, मुस्लिम शेख, मुन्नू खान और मुहम्‍मद कलीम घायल भी हो गए थे। नुरुल्ला की मौत हुई और चार लोग घायल इसलिए हुए क्योंकि टोयोटा लैंडक्रूसर कार तेज़ गति के कारण असंतुलित होने से सड़क छोड़कर फुटपाथ पर आ गई और सो रहे लोगों के ऊपर चढ़ गई। कार इसलिए असंतुलित हुई क्योंकि उसे ड्राइव करने वाला शख़्स शराब के नशे था और गाड़ी को बहुत तेज़ गति चला रहा था।

इसका यह भी मतलब हुआ कि नुरुल्ला की जान उसकी बिना किसी ग़लती के चली गई. इसी तरह दूसरे चार लोगों का भी बिना उसकी किसी ग़लती के अंग-भंग हो गया. सभी पीड़ित 13 साल से इंसाफ़ की उम्मीद कर रहे थे लेकिन कम से कम उन्हें तो बॉम्बे हाईकोर्ट से कुछ नहीं मिला। इससे यह साबित हो जाता है कि भारतीय अदालतों में सच पर तर्क-वितर्क की जो परंपरा है, उस पर विचार होना चाहिए, क्योंकि सच सच ही होता है, उसे चाह जिस नज़रिए से देखा जाए। हां, जब सच पर तर्क-वितर्क होने लगता है तब वह सच न होकर संदिग्ध सच हो जाता है। किसी भी न्याय-व्यवस्था का एक पक्षीय होना उसकी निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता है। लिहाज़ा, ऐसे प्रावधान किए जाने चाहिए, जिससे कोई न्याय-व्यवस्था दोनों पक्षों को एड्स करे।


वरिष्ठ अधिवक्ता आभा सिंह ने फ़ैसले पर अपने रिएक्शन में कहा है कि 13 साल बाद हाईकोर्ट मान लेता है कि गाड़ी सलमान नहीं, ड्राइवर अशोक सिंह चला रहा था। यह एक सवालिया निशान है। आभा सिंह के मुताबिक़, सलमान के बॉडीगार्ड रवींद्र पाटिल का बयान ख़ारिज़ क्यों कर दिया गया? चूंकि उनकी मौत हो गई थी, तो क्या कोई भी डाइंग डिक्लेयरेशन अब ख़ारिज़ कर दिया जाएगा? मैं चाहूंगी कि महाराष्ट्र सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाए।ज़ाहिर है यह मामला सुप्रीम कोर्ट में जाएगा। अगर इसमें दो लेयर पर कहीं कोई चूक रह गई है, तो उम्मीद है वह कमी देश की सबसे बड़ी अदालत में दूर कर ली जाएगी और केस में दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा, क्योंकि कोई फ़ैसला तब सही और निष्पक्ष लगता है, जब निष्पक्ष हो ही न बल्कि निष्पक्ष दिखे भी।

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

आखिर क्यों संविधान को जलाना चाहते थे अंबेडकर ?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
क्या आप जानते हैं कि बाबासाहेब के नाम से लोकप्रिय दुनिया के सबसे बड़े संविधान के निर्माता डॉ भीमराव रामजी अंबेडकर संविधान जला देना चाहते थे। संभवतः उसी समय उन्हें आभास हो गया था कि देश का पांच फ़ीसदी से भी कम आबादी वाला संभ्रांत तबका संविधान ही नहीं देश के लोकतंत्र को भी को हाईजैक कर लेगा और 95 फ़ीसदी तबके को उसका लाभ नहीं मिलेगा। आज़ादी के बाद ही देश में जिस तरह पॉलिटिकल फ़ैमिलीज़ पैदा हो गईं और पूरी सत्ता उन्हें के आसपास घूम रही है। संविधान से जिस तरह उन्हीं की हित पूर्ति हो रही है और उनके परिवार या उनसे ताल्लुक रखने वाले ही लाभ ले रहे हैं, उससे साफ लगता है अंबेडकर की आशंका कतई ग़लत नहीं थी।

दरअसल, अंबेडकर ने दो सितंबर 1953 को राज्यसभा में चर्चा के दौरान कहा था, श्रीमान, मेरे मित्र कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया है। परंतु मैं यह कहने के लिए पूरी तरह तैयार हूं कि संविधान को जलाने वाला मैं पहला व्यक्ति होऊंगा। मुझे इसकी ज़रूरत नहीं। यह किसी के लिए अच्छा नहीं है। दो साल बाद, 19 मार्च 1955 को पंजाब से राज्यसभा सदस्य डॉ अनूप सिंह ने सदन में चर्चा के दौरान अंबेडकर के याद दिलाते हुए कहा था, “पिछली बार आपने संविधान जलाने की बात कही थी। अंबेडकर ने कहा, मेरे मित्र अनूपजी ने कहा कि मैंने कहा था कि मैं संविधान को जलाना चाहता हूं। पिछली बार मैं जल्दी में इसका कारण नहीं बता पाया था। अब मौक़ा मिला है तो बताता हूं। हमने भगवान के रहने के लिए संविधान रूपी मंदिर बनाया है, परंतु भगवान आकर उसमें रहते, उससे पहले राक्षस आकर उसमें रहने लगा। ऐसे में मंदिर को तोड़ देने के अलावा चारा ही क्या है? हमने इसे असुरों के लिए तो नहीं, देवताओं के लिए बनाया है। मैं नहीं चाहता कि इस पर असुरों का आधिपत्य हो। हम चाहते हैं इस पर देवों का अधिकार हो। यही कारण है कि मैंने कहा था कि मैं संविधान को जलाना पसंद करूंगा। इस पर दूसरे सदस्य वीकेपी सिन्हा ने कहा, “मंदिर क्यों ध्वंस करते हैं,  आप असुरों को क्यों नहीं निकालते?” इस पर शतपथ से देवासुर संग्राम की घटना का जिक्र करते हुए बाबासाहेब ने कहा,  आप ऐसा नहीं कर सकते। हमारे में वह शक्ति नहीं आई है कि असुरों को भगा सकें।

स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क में अर्थशास्त्र की सह-प्राध्यापिका श्रुति राजगोपालन संविधान में 1950-78 के दौरान संशोधनों पर बात करते हुए डॉ अंबेडकर की नाराजगी के बारे में भी बताती हैं। उनके मुताबिक़, वैसे तो भारतीय संविधान पर हज़ारों समाचार और विचार प्रकाशित हो चुके हैं, लेकिन किसी भी राजनेता ने आज तक यह जानने की ज़रूरत नहीं समझी कि आखिर संविधान निर्माता ने संविधान के बारे में ऐसा क्यों कहा था। जो भी हो अंबेडकर जैसी जहीन शखिसयत ने ऐसी बात क्यों कही, उसे जानने के लिए उनके पूरे जीवनकाल पर नज़र डालनी होगी।

दरअसल, 14 अप्रैल 1891 को केंद्रीय प्रांत (अब मध्यप्रदेश) के छोटे से गांव में अछूत महार परिवार में रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की चौदहवीं संतान के रूप में जन्मे अंबेडकर ने बचपन से अपने परिवार के साथ घनघोर सामाजिक भेदभाव देखा। बाल्यकाल में रामजी सकपाल कहलाने वाले अंबेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में नौकरी में रहे। आर्मी की मऊ कैंप में पोस्टेड पिता सदा बच्चों की शिक्षा पर ज़ोर देते थे। 1894 में पिता रिटायर होने के दो साल बाद मां की निधन हो गया। बच्चों की परवरिश चाची ने कठिन हालात में की। अंबेडकर के दो भाई बलराम एवं आनंद और दो बेटियां मंजुला एवं तुलासा ही जीवित बचीं। पांच भाइयों और बहनों मे केवल अंबेडकर ही स्कूली शिक्षा ले सके। शुरू में मराठी फिर अंग्रेज़ी में शिक्षा लेने वाले अंबेडकर अछूत बच्चों के साथ सतारा के स्कूल मे अलग बिठाए जाते थे। उन्हें कक्षा में बैठने की अनुमति न थी। प्यास लगने प‍र ऊंची जाति का व्यक्ति ऊंचाई से पानी उनके हाथों पर पानी डालता था, क्योंकि उन्हें न पानी, न ही पात्र छूने की इजाज़त थी। इसी भेदभाव के चलते संभवतः बड़े स्कूल में ब्राह्मण शिक्षक के आग्रह पर उन्होंने अपना सरनेम सकपाल से अंबेडकर कर लिया जो उनके गांव अंबावडे के नाम पर था।

अंबेडकर बाद में सपरिवार बंबई आ गए और एल्फिंस्टन रोड में गवर्न्मेंट हाईस्कूल के पहले अछूत छात्र बने। पढ़ाई में तेज़ होने के बावजूद भेदभाव से व्यथित रहे। 1907 में मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद बंबई विश्वविद्यालय में दाखिला लेकर कॉलेज में प्रवेश लेने वाले पहले अछूत बने। उनकी इस सफलता से महार समाज मे खुशी की लहर दौड़ गयी और सार्वजनिक तौर पर उनका सम्मान किया गया। इसी बीच उनकी सगाई हिंदू रीति से दापोली की नौ वर्षीय रमाबाई से हुई। प्रतिभाशाली छात्र होने से उन्हें बड़ौदा के गायकवाड़ राजा सहयाजी राव से स्कॉलरशिप मिलने लगी और 1912 में राजनीति विज्ञान एवं अर्थशास्त्र की डिग्री हासिल की और बड़ौदा सरकार की नौकरी स्वीकार कर ली। वह सपरिवार बड़ौदा चले गए, लेकिन पिता की बीमारी से निधन से फरवरी 1913 में वापस लौटना पड़ा। 1915 में उन्होंने समाजशास्त्र के साथ अर्थशास्त्र, इतिहास दर्शन, मानवकी और राजनीति शास्त्र से एमए किया और बड़ौदा के महाराजा से मिलने वाले 25 रुपए की स्कॉलरशिप पर पढ़ाई के लिए अमेरिका (न्यूयॉर्क) गए। 1917 में कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उनके शोध इवोल्यूशन ऑफ़ प्रोविन्शिअल फाइनान्स इन ब्रिटिश इंडिया (ब्रिटिश भारत में क्षेत्रीय वित्त का उदय) के लिए उन्हें पीएचडी की डिग्री दी।

डाक्टरेट की डिग्री हासिल करने के बाद अंबेडकर वित्तीय मदद की बदौलत पढ़ाई करने लंदन चले गए। उन्होने लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में क़ानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट शोध के लिए नाम लिखवा लिया। 1920 में बैरिस्टर की डिग्री मिली और 1922-23 में कुछ समय वह जर्मनी की यूनिवर्सिटी ऑफ़ बॉन में अर्थशास्त्र का अध्ययन करते रहे। 1923 में लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स ने द प्रॉब्लम ऑफ़ रूपी पर डीएससी की डिग्री दी। अगले साल स्कॉलरशिप ख़त्म होने से उन्हें मजबूरन देश वापस लौटना पडा़। वापस लौटकर बड़ौदा सेना सचिव पद पर काम करते हुए उन्हें फिर से भेदभाव का सामना करना पड़ा और नौकरी छोड़कर वह निजी ट्यूटर और अकाउंटेंट के रूप में काम करने लगे। बाद में सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर की नौकरी मिल गई।

घनघोर पक्षपात और उपेक्षा से दुखी अंबेडकर 1920 के दशक के अंत तक दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिए अलग निर्वाचिका और आरक्षण की पैरवी करने लगे। 1920 में साप्ताहिक मूकनायक शुरू किया, जो बहुत लोकप्रिय हुआ। उन्होंने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू नेताओं और जातीय भेदभाव से लड़ने के लिए किया। दलितों के एक सम्मेलन में उनके भाषण से प्रभावित होकर कोल्हापुर के राजा शाहू चतुर्थ ने उनके साथ भोजन किया, जिससे रूढ़िवादी समाज में हलचल मच गई। बहरहाल, इस बीच अंबेडकर वकालत में जम गए और बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की, जिसका उद्देश्य दलितों में शिक्षा का प्रसार और उनका सामाजिक-आर्थिक उत्थान था। 1926 में, वह बंबई विधान परिषद सदस्य मनोनीत किए गए। 1927 में छूआछूत के खिलाफ बड़ा आंदोलन शुरू किया। 1926 में महाड और 1930 में नासिक के कालाराम मंदिर को सभी के लिए खोलने का सत्याग्रह सफल रहा। उन्होंने यह भी कहा, दलितों के लिए अलग मंदिर बनवाने की व्यवस्था का कठोर विरोधी हूं। हां, सभी मंदिरों में अछूतों का प्रवेश न्यायोचित और नैतिक मानता हूं। उन्होंने पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिए खोलने की भी मांग की। अब अंबेडकर सबसे बड़े दलित नेता बन चुके थे। वह कांग्रेस और गांधी की आलोचना करने लगे। उन्होने गांधी पर दलितों को दया की वस्तु के रूप मे पेश करने का आरोप लगाया। उन्होंने 'व्हाट द कांग्रेस एंड गांधी हेव डन टू द अनटचेवल्स' शीर्षक से एक पुस्तक भी लिखी।

आठ अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग सम्मेलन में अंबेडकर ने अपना राजनीतिक विज़न दुनिया के सामने पेश किया, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से आज़ाद होने में ही है। उन्होंने कहा, "हमें अपना रास्ता ख़ुद बनाना होगा, क्योंकि मौजूदा लीडरशिप शोषितों की समस्याएं हल नहीं कर सकती। उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने में ही है। उनको अपने रहने का तरीक़ा बदलना होगा और शिक्षित होना पड़ेगा।" इससे रूढ़िवादी हिंदुओं और कांग्रेस में उनकी इमेज खलनायक की बन गई। बहरहाल, अछूत समाज मे बढ़ती लोकप्रियता एवं जनसमर्थन के चलते उन्हें 1931 मे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए बुलाया गया। उन्होंने तीनों गोलमेज सम्मेलनों में अछूतों के मुद्दे उठाए। अंग्रेजों को चेतावनी देते हुए कहा भी था कि देश की कुल आबादी का 20 फ़ीसदी अछूत हैं, परंतु 150 साल के शासन में अंग्रेजों ने भी दलितों के लिए कुछ नहीं किया। यहां उनकी अछूतों को अलग निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई कि यह हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिए विभाजित कर देगी। इससे देश में खलबली मच गई, क्योंकि मोहम्मद अली जिन्ना पहले ही अलग रास्ता अख्तियार कर चुके थे।

बहरहाल, 1932 मे जब ब्रिटिशों ने अंबेडकर से सहमति जताते हुए अछूतों के लिए अलग निर्वाचिका की घोषणा की, तब गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन पर बैठ गए, जिसे उच्च वर्ग के हिंदुओं का भारी समर्थन मिला। गांधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव ख़त्म करने को कहा। अनशन से गांधी की हालत ख़राब हो गई। उऩकी मृत्यु होने से संभावित सामाजिक प्रतिशोध और अछूतों की हत्याओं के डर से अंबेडकर ने अनिच्छा से अपनी पृथक निर्वाचिका की मांग वापस ले ली। इसके बदले अछूतों को आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश और छूआछूत ख़त्म करने का आश्वासन मिला, जिसे पूना पैक्ट कहा गया।

1948 में भारत में अंतरिम सरकार का गठन होने के बाद संविधान निर्माण परिषद बनी। कहा जाता है कि जवाहरलाल नेहरू और सरोजनी नायडू गांधी से मिलने गये थे। नेहरू के चिंतित नज़र आने पर गांधी ने वजह पूछा तो नेहरू ने बताया कि संविधान बनाने के लिए एशियार्इ देशों के संविधान विशेषज्ञ आयुस जेनिस को बुलाने की सोच रहे हैं। तब गांधी ने कहा कि आपके पास संविधान विशेषज्ञ अंबेडकर हैं। इस तरह अंबेडकर 29 अगस्त 1947 को संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद बनाए गए। यह भी कहा जाता है कि संविधान बनाने में वह आज़ाद नहीं थे। उन पर नेहरू और पटेल का भारी दबाव रहता था। कई क़ानूनों के पक्ष में वह बिलकुल नहीं थे, पर मानना पड़ा। अलग विषय पर अलग कमेटियां पहले ही बना दी गई थीं। मौलिक अधिकारों की कमेटी के अध्यक्ष ख़ुद नेहरू थे, उसमे अंबेडकर को सदस्य भी नहीं बनाया गया। हर जगह वही हुआ जो नेहरू और पटेल चाहते थे। इस तरह संविधान समझौते का एक दस्तावेज भर है। यहां तक कि आज़ादी के बाद गांधी ने भी कहा था, मेरी कहां चलती है कौन बात मानता है। इसीलिए अंबेडकर को मजबूर होकर संविधान जलाने की बात कहनी पड़ी थी।

26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान स्वीकार कर अपना लिया। अंबेडकर के शब्दों में किसी देश का संविधान मूल दस्तावेज होता है। जिसमें तीनों अंगों कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा विधायिका की शक्तियों एवं अधिकारों का स्पष्ट रूप से उल्लेख रहता है। संविधान सभा में डिबेट समाप्‍त करते हुए उन्होंने कहा, ''26 जनवरी, 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करेंगे। राजनीति में समानता होगी परंतु सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में 'एक व्‍यक्‍ति एक मत' और 'एक मत एक आदर्श' के सिद्धांत को मानेंगे। मगर सामाजिक-आर्थिक संरचना के कारण हम सामाजिक-आर्थिक जीवन में एक व्‍यक्‍ति एक आदर्श के सिद्धांत को नहीं मानेंगे। आख़िर कब तक हम अंतर्विरोधों के साथ जिएंगे? कब तक सामाजिक-आर्थिक समानता को नकारते रहेंगे? अगर लंबे समय तक ऐसा किया गया तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। इसलिए, हमें यथाशीघ्र यह अंतर्विरोध ख़त्म करना होगा वरना असमानता से पीड़ित लोग उस राजनैतिक लोकतंत्र की संरचना को ध्‍वस्‍त कर देंगे. जिसे बहुत मुश्किल से तैयार किया गया है।''

बहरहाल, विवादास्पद विचारों के बावजूद अंबेडकर की प्रतिष्ठा असाधारण विद्वान और क़ानून विशेषज्ञ की थी। इसीलिए आज़ाद भारत की पहली सरकार में उन्हें कानून मंत्री बनाया गया। वह अर्थशास्त्री थे और बिजली पैदा करने और सिंचाई की सुविधा की पहली नदी घाटी परियोजना तैयार की थी। संविधान में उन्‍होंने महिलाओं को बड़ी संख्‍या में स्‍वाधीन बनाने के लिए हिंदू संहिता विधेयक भी तैयार किया था और जब संसद में यह बिल पास नहीं किया गया, तब उन्‍होंने कैबिनेट से इस्‍तीफा दे दिया। उन्होंने नेहरू की कश्मीर, तिब्बत और चीन नीति की कटु आलोचना की थी। उन्होंने चीन के भविष्य के रवैये पर भी प्रश्न उठाये थे। अंबेडकर ने अपनी पुस्तक 'थॉट ऑन पाकिस्तान' और 'पाकिस्तान, ऑर, पार्टीशन ऑफ इंडिया' में मुसलमानों के बारे अपने विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने मुस्लिम समस्या को भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक बताते हुए मुसलमानों के तीन लक्षणों के संदर्भ में लिखा। पहला, मुसलमान मानववाद या मानवता को नहीं मानता है, वह केवल मुस्लिम भाईचारे तक सीमित है। दूसरा, वह राष्ट्रवाद को नहीं मानता, वह देशभक्ति, लोकतंत्र या धर्मनिरपेक्ष नहीं है। तीसरा, वह बुद्धिवाद नहीं मानता, किसी प्रकार के सुधार- ख़ासकर महिलाओं की हालत, निकाह के नियम, तलाक, संपत्ति के हक़ के संबंध में बेहद पिछड़ा हुआ है।

बहरहाल, अंत में उन्हें आभास हो गया था कि कुछ मठाधीशों के चलते हिंदू धर्म में उनके लिए कोई गुंजाइश नहीं है और 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में एक औपचारिक समारोह में अंबेडकर ने खुद और उनके समर्थकों ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। 1948 से डायबिटीज़ से पीड़ित अंबेडकर अक्टूबर 1954 तक बहुत बीमार रहे। उनकी नज़र कमज़ोर हो गई थी। छह दिसंबर 1956 को उनकी मृत्यु हो गई। अंबेडकर का जीवन एक ऐसे राष्ट्र-पुरुष की खुली क़िताब की तरह है जो राष्ट्रीय एकात्मता, सामाजिक समरसता एवं भावी राष्ट्र निर्माण के पृष्ठों से भरी है। वह अपने युग के सर्वश्रेष्ठ शिक्षाविद, विचारक और लेखक थे। वह सही मायने में आधुनिक युग के राजर्षि थे। वह हिंदू समाज के लिए भगवान शंकर की तरह थे, जिन्होंने समाज की तमाम कटुता, वैमनस्य और द्वेष का ख़ुद विषपान कर समाज को समरसता, समन्वय और सहयोग का रास्ता दिखाया।

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