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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

क्या भारतीय न्याय-व्यवस्था केवल आरोपी का हित-अहित देखता है?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अभी कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज ने कहा था कि भारत में ग़रीबों को न्याय मिलना बड़ा कठिन कार्य है। उनके कहने का मतलब यह था कि भारत में न्याय प्रक्रिया बहुत ज़्यादा महंगी हो गई है। वकीलों की फीस इतनी ज़्यादा बढ़ गई है कि ग़रीब आदमी बढ़िया तर्क वाला वकील हायर करना तो दूर की बात हायर करने की सोच भी नहीं सकता। इससे इंसाफ़ उससे दूर चला जाता है। रिटायर्ड जज का यह तर्क प्राइमा-फेसाई सही ही जान पड़ता है, क्योंकि देश में जितने बड़े या मशहूर वकील हैं, उनमें किसी ने कभी किसी ग़रीब का मुक़दमा लड़ा, ऐसा सुनने को नहीं मिलता। इसीलिए माना जाता है कि भारत में न्याय-व्यवस्था मनी-ओरिएंटेड है।

अभिनेता सलमान ख़ान के हिट ऐंड रन केस को उदारहण के रूप में लिया जा सकता है। सलमान ने असाधारण तर्क करने वाले वकीलों को हायर किया। कहा जाता है कि ये वकील इतने महंगे थे कि सरकार भी उन्हें हायर नहीं कर सकती थी। ये वकील अपने तर्क से न्यायाधीश के मन में मौजूदा सबूतों पर संदेह पैदा करने में कामयाब रहे। बॉम्बे हाईकोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने सेशन्स कोर्ट के अपने काउंटर पार्ट के सलमान को पांच साल की सज़ा सुनाने के फ़ैसले पर बेहद कठोर टिप्पणी करते हुए अभिनेता को आरोपमुक्त करते हुए बरी कर दिया।

विरोधी पक्ष किसी फ़ैसले से असहमति जताए तो बात समझ में आती है, लेकिन इस बार बॉम्बे हाईकोर्ट के जज के फ़ैसले पर बहुत कड़ी प्रतिक्रिया हो रही है। ख़ासकर सोशल नेटवर्किंग साइट पर लोग बहुत ज़्यादा क्रिटिकल दिख रहे हैं। सबसे बड़ी बात क़ानून के कई बहुत अच्छे जानकारों ने भी बहुत प्रतिकूल टिप्पणी की है। इसमें दो राय नहीं कि पहली बार ऊंची अदालत के किसी फ़ैसले पर इतने व्यापक पैमाने पर प्रतिक्रिया हो रही है। कई वाट्सअप ग्रुप पर तो इस फ़ैसले पर जोक्स बनाकर सर्कुलेट किए जा रहे हैं। यह स्वस्थ्य और निष्पक्ष न्यायिक परंपरा के लिए शुभ संकेत नहीं है। दरअसल, जब से नरेंद्र मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज पी सदाशिवम को राज्यपाल बनाया है, सोशल नेटवर्किंग साइट पर जज की भी कड़ी आलोचना होने लगी है, जो उचित नहीं है।

बहरहाल, सलमान की बाइज़्ज़त रिहाई से भारतीय न्याय-व्यवस्था को मनी ओरिएंटेड कहना सही हो या नहीं, इस पर दो राय हो सकती है, लेकिन भारतीय न्याय-व्यवस्था आरोपीन्मुख यानी अक्यूज़्ड ओरिएंटेड है, इस पर दो राय हो ही नहीं सकती। यानी भारतीय न्याय-व्यवस्था केवल आरोपी के हित-अहित पर ध्यान देती है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने सलमान को सभी आरोपों से मुक्त करते हुए बरी कर दिया। अदालत का मानना था कि अभियोजन पक्ष सलमान पर लगाए गए आरोपों के समर्थन में ठोस सबूत पेश नहीं कर सका। अगर सलमान के नज़रिए से देखें, तो लगता है हाईकोर्ट ने इंसाफ़ किया है, क्योंकि किसी को बिना पुख़्ता सबूत के सज़ा देना न्यायिक प्रावधानों के ख़िलाफ़ है। लेकिन इस केस को अगर पीड़ितों की नज़रिए से देखें, क्या लगता है कि न्याय हुआ है? सीधा सा जवाब है, नहीं। पीड़ितों के साथ इंसाफ न होना साबित करता है कि भारत में न्याय-व्यवस्था आरोपीन्मुख यानी अक्यूज़्ड ओरिएंटेड हो गया है।

सलमान ख़ान ही नहीं आपराधिक मामलों में अकसर सुनने को मिलता है कि अमुक हत्याकांड या किसी दूसरे मामले में पर्याप्त सबूत के अभाव में आरोपी बरी हो गया। इससे बेशक आरोपी को राहत मिल जाती है, लेकिन पीड़ितो को कुछ नहीं मिलता। यानी भारतीय न्याय-व्यवस्था में अदालते पीड़ित पक्ष को एड्रेस नहीं करतीं। यानी पीड़ित पक्ष पूरी तरह घटना या वारदात की जांच करने वाली जांच एजेंसी, जो अमूममन पुलिस होती है, की दया पर निर्भर रहता है। अगर पुलिस ने तहकीकात सही और बिना किसी पूर्वग्रह, जो आमतौर पर नहीं होता, के करती है, तो आरोपी को सज़ा के रूप में पीड़ित को इंसाफ़ मिलता है, लेकिन अगर पुलिस जांच किसी वेस्टेड इंटरेस्ट से करती है, तो पीड़ित पक्ष इंसाफ़ पाने से वंचित रह जाता है।

बॉम्बे हाईकोर्ट के जज के मुताबिक़, सलमान पर आरोप भले साबित न हुआ हो, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उस दिन पाली हिल में अमेरिकन बेकरी के सामने हादसा हुआ था और उस हादसे में फुटपाथ पर सो रहे नुरुल्ला शरीफ़ नाम के व्यक्ति की मौत हो गई थी। इसके अलावा अब्दुल शेख, मुस्लिम शेख, मुन्नू खान और मुहम्‍मद कलीम घायल भी हो गए थे। नुरुल्ला की मौत हुई और चार लोग घायल इसलिए हुए क्योंकि टोयोटा लैंडक्रूसर कार तेज़ गति के कारण असंतुलित होने से सड़क छोड़कर फुटपाथ पर आ गई और सो रहे लोगों के ऊपर चढ़ गई। कार इसलिए असंतुलित हुई क्योंकि उसे ड्राइव करने वाला शख़्स शराब के नशे था और गाड़ी को बहुत तेज़ गति चला रहा था।

इसका यह भी मतलब हुआ कि नुरुल्ला की जान उसकी बिना किसी ग़लती के चली गई. इसी तरह दूसरे चार लोगों का भी बिना उसकी किसी ग़लती के अंग-भंग हो गया. सभी पीड़ित 13 साल से इंसाफ़ की उम्मीद कर रहे थे लेकिन कम से कम उन्हें तो बॉम्बे हाईकोर्ट से कुछ नहीं मिला। इससे यह साबित हो जाता है कि भारतीय अदालतों में सच पर तर्क-वितर्क की जो परंपरा है, उस पर विचार होना चाहिए, क्योंकि सच सच ही होता है, उसे चाह जिस नज़रिए से देखा जाए। हां, जब सच पर तर्क-वितर्क होने लगता है तब वह सच न होकर संदिग्ध सच हो जाता है। किसी भी न्याय-व्यवस्था का एक पक्षीय होना उसकी निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता है। लिहाज़ा, ऐसे प्रावधान किए जाने चाहिए, जिससे कोई न्याय-व्यवस्था दोनों पक्षों को एड्स करे।


वरिष्ठ अधिवक्ता आभा सिंह ने फ़ैसले पर अपने रिएक्शन में कहा है कि 13 साल बाद हाईकोर्ट मान लेता है कि गाड़ी सलमान नहीं, ड्राइवर अशोक सिंह चला रहा था। यह एक सवालिया निशान है। आभा सिंह के मुताबिक़, सलमान के बॉडीगार्ड रवींद्र पाटिल का बयान ख़ारिज़ क्यों कर दिया गया? चूंकि उनकी मौत हो गई थी, तो क्या कोई भी डाइंग डिक्लेयरेशन अब ख़ारिज़ कर दिया जाएगा? मैं चाहूंगी कि महाराष्ट्र सरकार इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाए।ज़ाहिर है यह मामला सुप्रीम कोर्ट में जाएगा। अगर इसमें दो लेयर पर कहीं कोई चूक रह गई है, तो उम्मीद है वह कमी देश की सबसे बड़ी अदालत में दूर कर ली जाएगी और केस में दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा, क्योंकि कोई फ़ैसला तब सही और निष्पक्ष लगता है, जब निष्पक्ष हो ही न बल्कि निष्पक्ष दिखे भी।

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