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बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

संसद में सेक्युलिरिज़्म पर भारी पड़ता राष्ट्रवाद

हरिगोविंद विश्वकर्मा
जिन लोगों ने उम्मीद लगा रखी थी कि देश की सबसे बड़ी जनपंचायत संसद में बजट सत्र का पहले दिन कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष बीजेपी और उसके गठबंधन दलों को बैकफुट पर ला देगी, ऐसे लोगों के लिए पहले दिन का कार्यवाही गहरी निराशा लेकर आई। पूरे दिन लोकसभा ही नहीं राज्यसभा में हमला करने की बजाय उलटे विपक्ष ही बैकफुट पर नज़र आया और बीजेपी की आक्रामकता का सामना करने में पूरी तरह असफल रहा। यह साफ़ लगा कि सही मायने में सवा सौ साल से ज़्यादा पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस में दलित और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर अधिकार और इनपुट्स के साथ बोलने वाला नेताओं का भारी अकाल है। बाप की विरासत के बदौलत लोकसभा में पहुंचे ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसै तथाकथित यंगब्रिगेड सदन में पार्टी की संख्या भले बढ़ा दें, तर्कपूर्ण बहस करना उनके वश की बात नहीं और अगर बोलेंगे तो उससे पार्टी को नुकसान ही होगा।

ऐसे में यह कहना न तो अतिशयोक्तिपूर्ण होगा न ही अनुचित कि कांग्रेस अपने युवराज राहुल गांधी की अपरिपक्व और कन्फ़्यूज़्ड सियासत के चलते लड़ाई शुरू होने से पहले ही हार मान बैठी थी। पूरे दिन कांग्रेसी ही नहीं सेक्युलरिज़्म के बैनर तले हर नैतिक-अनैतिक काम करने वाले दल और उनके नेताओं ने भी साफ़ महसूस किया कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय कैंपस में नौ फरवरी की अप्रिय घटना के बाद छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार सिंह की कथित तौर पर देशद्रोह की आरोप में गिरफ़्तारी के समर्थन करने के लिए कांग्रेस उपाध्यक्ष का जेएनयू कैंपस जाना एक ऐतिहासिक भूल थी, जिसने उन्हें हंसी का पात्र बनाकर रख दिया है।

राहुल गांधी की इसी ऐतिहासिक भूल ने मानव संसाधन मंत्री स्मृति जुबीन ईरानी को पहले दिन चैंपियन बना दिया, जिन्होंने संसद पटल पर ज़ोरदार तरीक़े से राष्ट्रवाद की व्याख्या की। ज़बरदस्त होमवर्क करके संसद में आईं स्मृति को कांग्रेस की 2004 से 2014 के दस साल के शासन से ही नहीं, बल्कि छह दशक तक सत्ता में रहने के दौरान कांग्रेस द्वारा की गई हर ग़लती से स्मृति ईरानी और दूसरे बीजेपी नेताओं को ज़बरदस्त खाद-पानी मिलता रहा और वे लोग लच्चेदार भाषा में राष्ट्रवाद की अपने ढंग से व्याख्या तो करते ही रहे, लगे हाथ कांग्रेस की ग़लतियों को भी रेखांकित करते रहे, जिससे कांग्रेस को ही बचाव की मुद्रा में आना पड़ा।

इसकी मिसाल तब देखने को मिली जब हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी और जेएनयू विवाद पर स्मृति ईरानी ने दोनों सदनों में विपक्ष को करारा जवाब देते हुए कहा कि रोहित वेमुला को सस्पेंड करने का फ़ैसला जिस समिति ने किया था उसकी नियुक्ति कांग्रेस के दस साल के शासन में हुई थी। बकौल स्मृति ईरानी, “रोहित वेमुला को सस्पेंड करने का फैसला लेने वाली समिति के सदस्यों को मैंने नियुक्त नहीं किया था। हां, लेकिन केंद्र सरकार ने जब देखा कि उस समिति में कोई भी दलित प्रतिनिधि नहीं है, तो उसमें कोऑप्ट करने का फैसला ज़रूर किया गया।

विपक्ष का दरअसल, रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी और जेएनयू विवाद को एकसाथ क्लिप करना, बीजेपी के लिए बड़े फ़ायदे कौ सौदा साबित हुआ, क्योंकि दोनों सब्जेक्ट का आपस में बस इतना संबंध था कि दोनों घटनाएं दो सेंट्रल यूनिवर्सिटीज़ में हईं। जेएनयू विवाद का दलित शोषण से कोई लेना देना नहीं था, तो रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी का मुद्दा राष्ट्रवाद या अभिव्यक्ति की आज़ादी जैसे मुद्दों से कोसों दूर रहा। इसीलिए जहां, बीएसपी सुप्रीमो मायावती के अगुवाई में दलितों की राजनीति करने वाले रोहित वेमुला की ख़ुदकुशी मामला प्रमुखता से उठाते रहे वहीं, सेक्युलिरज़्म की रोटी पर पल रहे लोग जेएनयू विवाद में कन्हैया कुमार सिंह और खालिद उमर की गिरफ्तारी जैसे मुद्दे उठा रहे थे। दोनों मुद्दों को एकसाथ उठाए जाने से भ्रम की स्थिति बन गई।

संसद की बहस से एक बात और साफ़ हो गई कि देश के ख़िलाफ़ या देश के टुकड़े करने या फिर कश्मीर की तथाकथित आज़ादी का राग अलापने वाले लोग पूरी तरह आउटडेटेड हो चुके हैं। उनका समर्थन इक्का दुक्का लोगों के अलावा कोई नहीं देगा। इस मुल्क के लोग किसी भी कीमत पर संसद पर हमले की साज़िश रचने के लिए देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा दंडित किए गए जैश-ए-मोहम्मद के दुर्दांत आतंकवादी मोहम्मद अफजल गुरू की तीसरी बरसी मनाने और देश विरोधी नारे लगाने वालों का कतई समर्थन नहीं कर सकते। ऐसे तत्वों का साथ केवल टीवी स्क्रीन को काला करने वाले कन्यप़्य़ूज़्ड लोग या राग-सेक्युलिरज़्म अलापने वाले या फिर अपनी अतिवादी बौद्धिकता के कारण डायनासोर के नक्शे क़दम पर चल रहे कम्युनिस्ट ही कर सकते हैं।

ज़ाहिर-सी बात है, जेएनयू की घटना के चलते इस समय देश में अचानक यह एक तरह से 2014 की गर्मियों जैसा माहौल बन गया है, जब देश को लगा कि राग-सेक्युलिरज़्म के नाम पर कांग्रेस देश का बंटाधार कर रही है, तो मुलायम सिंह यादव गिन-गिनकर अपने बेटे-पुत्रवधू, भाइयों-भतीजों और नाती-पोतों को या तो संसद या उत्तर प्रदेश की विधान सभा में भेज रहे हैं। देश की जनता ने साफ़ देखा कि मुलायम जैसे लोग राजनीतिक लाभ के लिए कल्याण सिंह जैसे नेताओं को लगा लेते हैं तो मायावती और नीतीश कुमार जैसे लोग बीजेपी के साथ सरकार बनाने के बावजूद ख़ुद को बेशर्मी से सेक्युलिरज़्म का पैरोकार बताते हैं।

देश ने यह भी देखा कि सेक्युलिरज़्म के नाम ये तमाम दल मुसलमानों को बेवकूफ़ ही नहीं बना रहे हैं, बल्कि उनके अंदर कथित तौर पर अल्पसंख्यक और असुरक्षित होने का भाव जगा रहे हैं। अब तो ख़ुद मुस्लिम समुदायके लोग खुलेआम कहने लगे हैं कि कम्युनिस्ट, कांग्रेस और दूसरे तथाकथि धर्मनिरपेक्ष दलों के कारण ही वे हाशिये पर जा रहे हैं। यह तो सर्वविदित है कि जेएनयू में अफ़ज़ल गुरु की तीसरी बरसी में एक प्रोग्राम हुआ और उसे खालिद उमर नाम के छात्र ने ही शेखी बघारने के लिए आयोजित किया। उससे कन्हैया कुमार सिंह या खालिद उमर ने देश विरोधी नारा लगाया या नहीं यह अदालत देखेगी।

जेएनयू के इनछात्रों का व्यवहार देशद्रोह की कैटेगरी में आता हैं या नहीं, यह भी उपलब्ध फोटोग्राफ और वीडियों के रूप में उपलब्ध सबूतों और दूसरे साक्ष्यों की सत्यता की जांच करने के बाद अदालत तय करेगी। लेकिन एफआईआर दर्जकरने के बाद इनको अदालत में पेश करना तो पुलिस का काम था, लोग उसमें भी बाधा डाल रहे थे। यह बात लोगों के गले नहीं उतरी। ख़ासकर जेएनयू के वाइस चांसलर प्रो. एम जगदीश कुमार ने देशद्रोह का संगीन आरोप और लुकआउट नोटिस वाले आरोपी को गिरफ़्तार करने से दिल्ली पुलिस को रोकना भी रास नहीं आया। पिछले दो हफ़्ते से सोशल नेटवर्किंग पर लोगों के पोस्ट और रेलवे-बस में यात्रा करते लोगों की बहस से यह साफ़ हो गया था।


जो भी हो, इस बार भी साफ़ हो गया है कि संसद के बजट सत्र में बजट पेश करने के अलावा कोई रचनात्मक कार्य नहीं होने वाला। विपक्ष की अकर्मण्यता ने बीजेपी सरकार की 20 महीने के जनविरोधी और कुशासन पर ज़रूर परदा डाल दिया है। क्रूड ऑयल का भाव 25 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे आने से देश के आम लोगों को जो लाभ होना था उससे वंचित करने का बीजेपी और नरेंद्र मोदी का अपराध भी जेएनयू विवाद और रेहित वेमुला की आत्महत्या की मामले के नीचे दब गया।    

संजय दत्‍त की रिहाई पर उठे सवाल, बाबा पर तकदीर मेहरबान है या सिस्‍टम?

हरिगोविंद विश्‍वकर्मा
1993 के मुंबई बम धमाकों से जुड़े मामले में दोषी संजय दत्त आज जेल से रिहा हो गए। पुणे की येरवडा जेल में अधिकारियों ने औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उन्हें रिहा कर दिया। जेल में अच्छे व्यवहार के चलते समय से पहले 114 दिन पहले उनकी रिहाई हुई है।
संजय दत्त ने येरवडा जेल में फहरा रहे तिरंगे को सैल्यूट किया, धरती को चूमा और फिर अपना बैग कंधे में डालकर जेल के बाहर आ गए। बाहर पत्नी मान्यता दत्त उनका इंतजार कर रही थीं। यहां से संजय दत्त सीधे पुणे एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गए। संजय दत्त सबसे पहले सिद्धिविनायक मंदिर जाएंगे। इसके अलावा अपनी मां नरगिस की कब्र पर भी जाएंगे।
अगर 257 निर्दोष लोगों की जान लेने वाले 1993 के मुंबई बम धमाकों में शामिल रहे लोगों के भाग्य की बात करें तो 123 आरोपियों में अगर याकूब मेमन सबसे बदनसीब रहा तो अभिनेता और नेता पुत्र संजय दत्त सबसे ख़ुशनसीब। तभी तो दो मई 2013 से मई 2014 के बीच पैरोल और फर्लो के तहत 118 दिन जेल से बाहर रहे संजय दत्त पूरी सजा काटे बगैर ही जेल से रिहा हो गए हैं।

संजू बाबा की रिहाई की खबर से उनके पूरे परिवार के साथ साथ बॉलीवुड भी बेहद खुश है। बॉलीवुड अभिनेता मनोज बाजपेयी ने संजय की रिहाई पर खुशी जताई। मनोज ने कहा कि मैं संजू (संजय) को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और खुश हूं कि वह एक-दो दिन में आखिरकार अपने परिवार और दोस्तों के पास वापस आ रहे हैं। हम उस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं और हमेशा उनकी सुरक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं।
लेकिन संजय दत्‍त की इस रिहाई पर कई तरह के सवालों का घेरा भी मंडरा रहा है। उन सवालों में सबसे महत्‍वपूर्ण सवाल खुद संजय दत्‍त की इस पूरे बम कांड में भूमिका, उसके बाद उनकी देरी से गिरफ्तारी और फिर बाद में जेल के बाद फिर जेल वह बीच-बीच में 30 दिन 60 दिन जैसे अविध में बाहर आना। जाहिर है यह सारे सवाल उनकी किस्‍मत और हमारे सिस्‍टम से आकर जुड़ते हैं ।
आइए जानने की कोशिश करते हैं कि कैस संजय दत्‍त की किस्‍मत ने इस पूरे मामले में उनका साथ दिया और कैसे सिस्‍टम उनके लिए मेहरबान बनारहा।
दरअसल, यूं तो मुंबई सीरियल बमकांड में किसी न किसी किरदार में शामिल रहे सभी आरोपी निर्दोषों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार रहे और सभी याकूब मेमन जैसी कठोर सज़ा के हक़दार थे, लेकिन याकूब मेमन सबसे ज़्यादा बदनसीब रहा, उसके साथ तकदीर थी ही नहीं। जीने की प्रबल इच्छा रखने वाला याकूब जहां मुकद्दर के साथ के लिए तरसता रहा, वहीं शेष सभी आरोपियों को भाग्य का कुछ न कुछ साथ ज़रूर मिला।
फ़ांसी की सज़ा पाए 12 लोग अच्छी किस्मत के चलते मौत के मुंह में जाने से बच गए। हालांकि पुणे की येरवड़ा जेल से घर पहुंचे संजय दत्त सबसे ज़्यादा खुशनसीब रहे। संजय बमकांड में शामिल होने के आरोप में गिरफ़्तारी बावजूद भाग्य की बदौलत जांच ऐजेंसियों का कथित “फेवर” पाने में सफल रहे और अंततः आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप से मुक्त हो गए। इसीलिए उन्हें सबसे कम सज़ा मिली। यानी मुन्ना भाई यक़ीनन मुकद्दर का सिकंदर निकला।
संजय पर तकदीर मेहरबानी की फ़ेहरिस्त बड़ी लंबी है। उन पर पहली बार मुकद्दर तब मेहरबान हुआ जब 3 अप्रैल 1993 को पुलिस इंटरोगेशन के दौरान इब्राहिम मुस्तफ़ा चौहान उर्फ बाबा चौहान ने बताया कि इस साज़िश में एक बहुत बड़ी मछली शामिल है और उसने संजय दत्त का नाम लिया।“शांतिदूत” सुनील दत्त का बेटा साज़िश में शामिल है, यह सुनकर सबके होश उड़ गए और विशेष जांच टीम के मुखिया राकेश मारिया (फ़िलहाल मुंबई के पुलिस कमिश्नर) भी हतप्रभ रह गए।
चूंकि संजय पर मुकद्दर मेहरबान था, इसलिए, बाबा चौहान की जानकारी के बावजूद मारिया को सुनील दत्त के घर पर रेड करने की इजाज़त मुंबई पुलिस आयुक्त अमरजीत सिंह सामरा ने नहीं दी। वरना एके-56 राइफल उसी समय रिकवर हो जाती। हालांकि, खुलासा हुआ कि उसकी राजनीतिक वजह थी। राज्य में शरद पवार के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार थी और सुनील दत्त की पहुंच बहुत ऊपर तक थी।
बहरहाल, 19 अप्रैल 1993 की रात मॉरीशस से लौटते ही संजय एयरपोर्ट पर अरेस्ट हो गए। लेकिन भाग्य उनके साथ था, इसलिए पुलिस ने उनसे आरोपी नहीं, बल्कि नेता-पुत्र तरह पूछताछ की। संजय ने तत्कालीन क्राइम ब्रांच हेड महेश नारायण सिंह और राकेश मारिया के सामने कबूल कर लिया कि मास्टरमाइंड दाऊद इब्राहिम का भाई अनीस उनका दोस्त है। दोनों की अक्‍सर फोन पर बातचीत होती है। अनीस ने 16 जनवरी 1993 को 3 एके-56 राइफ़ल्स, 9 मैगज़िन्स, 450 राउंड्स और 20 हैंडग्रेनेड्स का कन्साइनमेंट अबू सालेम (जो केवल राइफल मामले के चलते बमकांड का आरोपी बनाया गया है) फ़िल्मकार समीर हिंगोरा और बाबा चौहान के साथ भेजी। तीन दिन बाद यानी 18 जनवरी की शाम सालेम हनीफ़ कड़ावाला और मंज़ूर अहमद के साथ संजय के यहां फिर आया और 2 राइफ़ल, कुछ हैंडग्रेनेड और गोलियां लेकर गया। यानी संजय ने अनीस से ग़ैरक़ानूनी तौर पर घातक राइफ़ल ली।

बमकांड में दायर आरोप पत्र के मुताबिक, दाऊद ने 300 सौ चांदी की सिल्लियां, 120 एके 56 राइफ़ल्स और कई सौ ग्रेनेड्स, मैगज़िन्स, गोलियां और कई क्विंटल विस्फोटक आरडीएक्स 9 जनवरी और 9 फ़रवरी 1993 के बीच कई खेप में रायगड़ के दिग्घी जेट्टी और शेखाड़ी के रास्ते मुंबई भेजी। यह काम इब्राहिम मुश्ताक़ मेमन उर्फ टाइगर मेमन और मोहम्मद डोसा ने किए। हथियारों और विस्फोटकों को बम बनाने के लिए मुंबई और भिवंडी भेजा गया और बाद में उसी से 12 मार्च को धमाके को अंजाम दिया गया। हथियारों और आरडीएक्स से भरा एक ट्रक रायगड़ के जंगल के रास्ते नासिक होता हुआ गुजरात के लिए भी रवाना किया गया। कस्टम टीम ने ट्रक ट्रैप किया भी, लेकिन 8 लाख रुपये रिश्वत लेकर उसे जाने की इजाज़त दे दी।
यकीनन, कस्टम टीम के सभी लोगों को टाडा के तहत सज़ा हुई। ट्रक का सामान गुजरात के अंकलेश्वर (भरुच) में बिज़नेसमैन हाज़ी रफीक़ कपाडिया के गोडाउन में छिपाया गया। यहां टीम में सालेम शामिल हुआ। हथियार तयशुदा ठिकानों और लोगों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सालेम की थी। 9 एके-56 राइफ़ल, सौ से ज़्यादा मैगज़िन और गोलियों के कई बॉक्स लेकर सालेम सड़क के रास्ते मुंबई आया। उसने अनीस के कहने पर कन्साइनमेंट में से एक राइफ़ल संजय को दी।
यानी संजय ने ब्लास्ट के बाद जिस राइफल को नष्ट करने के लिए यूसुफ़ नलवाला को मॉरीशस से फोन किया, वह राइफ़ल दिग्घी जेटी पर ही उतारी गई थी। ये बातें यहां इसलिए विस्तार से बताई गई है, ताकि साफ़ हो जाए कि संजय से ग़लती नहीं हुई, बल्कि वह बमकांड की साज़िश का हिस्सा थे। फिर भी जांच एजेंसियां उनके साथ उस तरह पेश नहीं आईं जिस तरह बाक़ी आरोपियों के साथ। यह भाग्य का ही कमाल था।
बहरहाल, एक दर्जन से ज़्यादा लोगों को फांसी की सज़ा सुनाने वाली टाडा कोर्ट ने भी संजय का क़बूलनामा स्वीकार कर लिया कि वाक़ई संजय असुरक्षित महसूस कर रहे थे, इसलिए विनाशकारी ग़ैरक़ानूनी हथियार मंगवाए। संजय के मुताबिक, मुंबई दंगों के समय उन्हें धमकियां मिल रही थी, इसलिए उन्होंने अनीस से एके-56 मांगी। संजय के क़बूलनामे को स्वीकार करना और मान लेना कि उन्हें वाक़ई जानमाल का ख़तरा था, संजय पर भाग्य की कृपा से ही हुआ। मुकद्दर की ऐसी मेहरबानी राइफल से जुड़े दूसरे आरोपियों को नहीं मिली।
दरअसल, गिरफ्तारी के बाद सुप्रीम कोर्ट तक हाथ-पैर मारने के बावजूद साल भर तक संजय को बेल नहीं मिली। उनके बढ़ते जेल प्रवास से पिता सुनील दत्त बहुत विचलित हो गए। हर नेता का चक्कर लगाते हुए वह धुर कांग्रेस विरोधी शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे की शरण में गए। मज़ेदार बात यह रही कि इस बार याकूब की फांसी का विरोध कर रहे सेक्यूलर जमात कुछ लोगों ने उसी दौरान भी मीडिया के ज़रिए शोर मचाना शुरू किया कि टाडा का दुरुपयोग हो रहा है। यह भी कहा गया है कि टाडा के चलते बड़ी तादाद में ऐसे लोग जेलों में “सड़” रहे हैं, जिनका आतंकवाद से कुछ लेना-देना नहीं है।
ऐसे लोगों के केसों पर विचार करने के लिए तत्कालीन केंद्र सरकार ने आईएएस और आईपीएस की एक क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी यानी अर्ध-न्यायिक समिति का गठन किया। भाग्य ने यहां भी संजय के साथ खड़ा हो गया और क़्वासी-ज्यूडिशियल कमेटी ने भी माना कि संजय दत्त ही सबसे ज़्यादा “टाडा पीड़ित”आरोपी हैं। लिहाज़ा कमेटी ने उनके बेल की सिफ़ारिश कर दी और संजय केवल 18 महीने में ही जेल से बाहर आ गए। जबकि उसी केस में पकड़े गए बाबा, मंज़ूर, नलवाला, हिंगोरा और कड़ावाला को ज़मानत के लिए पांच साल या उससे ज़्यादा वक़्त इंतज़ार करना पड़ा।

इतना ही नहीं जिस ज़ैबुन्निसा क़ादरी (तब उसकी उम्र 64 साल थी) के घर में 2 एके-56 और हथियार 2 दिन रखे गए। उसे भी लंबे समय तक जेल में रहना पड़ा, जबकि उसके मुताबिक़,कन्साइनमेंट का बॉक्स खोलना तो दूर उसने देखा तक नहीं था। दूसरी ओर संजय ने बॉक्स को खोला ही नहीं था, बल्कि हथियार देखने के बाद अनीस को फोन करके बताया भी कि “भाई सामान मिल गया है” और नाम सामने आने पर मित्र नलवाला को फोन पर अपने बेडरूम में रखी एके-56 राइफ़ल और बाक़ी हथियार फ़ौरन नष्ट करने का निर्देश भी दिया था।
यह संजय दत्त के भाग्य का ही कमाल था कि देश की सर्वोत्तम जांच एजेंसी सीबीआई ने भी कई ऐसे फ़ैसले लिए जिसका सीधा लाभ केवल संजय को ही मिला। मसलन, संजय-अनीस बातचीत के कॉल्स डिटेल्स आरोप-पत्र से ही अलग कर दिए। जो इस्टेब्लिश्ड करता था संजय की अनीस से दंगे और बम धमाके के बीच बहुत ज़्यादा बातचीत हुई थी। इस साक्ष्य को जुटाने के लिए मुंबई पुलिस ने एड़ी-चोटी को ज़ोर लगाया था और दुबई तक गई थी, लेकिन सीबीआई ने उसे डस्टबिन में डाल दिया। यह दस्तावेज़ साबित कर रहा था कि संजय का अनीस से घनिष्ठ संबंध है और जो राइफ़ल उनको दी गई थी, वह रायगड़ समुद्र तट के रास्ते भेजे कन्साइन्मेंट के साथ लाई गई थी। यानी संजय आतंकवादी साज़िश का सीधे साझीदार थे, क्योंकि अनीस उनके “टच” में था। इससे केस बहुत स्ट्रॉंग हो रहा था। यह भाग्य का ही कमाल था कि सीबीआई फिर संजय पर मेहरबान हुई और सालेम का ट्रायल बमकांड के मुक़दमे से ही अलग कर दिया।
दरअसल, संजय और दाऊद-अनीस के बीच सालेम अहम कड़ी था, जो पुष्ट कर रहा था कि कम से कम संजय एके-56 राइफल लाने की साज़िश में सीधे तौर पर शामिल थे। यहां भाग्य का साथ होना संजय को कड़ी सज़ा से बचा लिया,क्योंकि सीबीआई अगर सख़्त होती तो संजय को कम से कम 10 साल की सज़ा मिल सकती थी। यह भाग्य का साथ ही था कि सीबीआई ने 2002 में संजय की छोटा शकील बातचीत के सार्वजनिक होने का भी संज्ञान नहीं लिया। हालांकि इसके बाद भी उसे संजय की बेल रद करने के लिए कोर्ट अप्रोच करना चाहिए था। केस के ट्रायल के दौरान भी संजय को मुकद्दर का साथ मिलता रहा। एके-56 राइफ़ल से जुड़े सभी आरोपियों को टाडा के तहत सज़ा मिली, लेकिन संजय को केवल आर्म्स ऐक्ट के तहत 6 साल की सज़ा हुई।
यह तकदीर की खेल था कि सीबीआई ने टाडा कोर्ट के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती ही नहीं दी। किसी ने भी सीबीआई से पूछा भी नहीं कि भाई एक ही मामले में दो तरह के फ़ैसले कैसे आए गए और अगर आ गए हैं तो कम सज़ा पाने वाले आरोपी के ख़िलाफ़ जांच एजेंसी ने अपील क्यों नहीं की? उलटे सुप्रीम कोर्ट ने संजय की सज़ा एक साल और कम कर पांच साल कर दिया। निश्चित तौर पर यह भी भाग्य का ही खेल ही कहा जाएगा। जेल जाने के बाद भी संजय मुकद्दर का सिकंदर बने रहे। उनके समर्थन में जस्टिस मार्कंडेय काटजू जैसे सर्वमान्य लोग आ गए और “मानवीय” आधार पर उन्हें माफ़ीनामा देने की पैरवी करने लगे, उनकी अपील महाराष्ट्र के राज्यपाल के पास अब भी विचाराधीन है।
संजय के चाहने वालों का मानना है कि उनसे“ग़लती” हो गई। यानी संजय ने अपराध जान-बूझकर नहीं किया। अपराध उनसे अपने आप अनजाने में हो गया। मज़ेदार बात यह है कि जब संजय ने एके-56 मंगवाई थी, तब वह 33 साल के थे यानी बालिग हुए 15 साल बीत चुके थे। वह बांद्रा के जिस पॉश पाली हिल इलाक़े में रहते हैं, वहां कभी दंगा हुआ ही नहीं। दंगे पॉश इलाकों में नहीं, बल्कि झुग्गीबाहुल्य क्षेत्रों में हुए थे। लिहाज़ा, संजय का ख़तरे की दुहाई देना सरासर बेमानी थी। उस समय संजय के परिवार को कोई ख़तरा नहीं था।

दंगा, दरअसल, मुस्लिम बाहुल्य इलाक़ा से शुरू हुआ और मारकाट में सबसे जानमाल का नुक़सान भी मुसलमानों को ही उठाना पड़ा। छह दिसंबर 1992 को अयोध्या की बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद पूरे देश की तरह मुंबई में भी दंगा भड़का था। देश की आर्थिक राजधानी में 6 से 10 दिसंबर 1992 और 6 से 15 जनवरी 1993 के दौरान दो चरण में ख़ून की होली खेली गई, जिसमें, दंगों की जांच करने वाले श्रीकृष्णा आयोग के मुताबिक़, कुल 850 लोग (575 मुसलमान और 275 हिंदू) मारे गए। तात्पर्य यह है कि संजय ने किसी तरह का ख़तरा न होने के बावजूद केवल शेखी बघारने के लिए एके-56 राइफ़ल जैसा ख़तरनाक़ हथियार मंगवाए थे और तकदीर का धनी होने के नाते उन्हें केवल पांच साल की सज़ा हुई।
1993 बमकांड से पहले तक डॉन दाऊद केवल ख़तरनाक अपराधी था, सो बॉलीवुड के सितारे चाहे-अनचाहे उसके बुलाने पर अकसर दुबई पहुंच जाते थे। इसमें उन्हें अच्छा नज़राना भी मिलता था। सिल्वर स्क्रीन के लोगों के लिए दुबई तो मुंबई के बाद दूसरा ठिकाना था। 90 के दशक में दुबई महफ़ूज़ ऐशगाह था। तब कोई ऐसा अभिनेता या अभिनेत्री नहीं होगा, जिसने दाऊद के सामने ठुमके न लगाए हों। संजय भी दाऊद के ग्लैमर से नहीं बच सके।
मुंबई पुलिस के रिकॉर्ड के मुताबिक एक बार अनीस के संपर्क में आने के बाद दोनों की अच्छी ट्यूनिंग हो गई। वे अक्‍सर बात करने लगे। संजय पर्सनल इशूज़ भी शेयर करने लगे। संजय समेत बॉलीवुड के लोगों को दाऊद से रिश्ता रखने के ख़तरे का अहसास मुंबई की तबाही के बाद हुआ। अगर संजय बमकांड के बाद अनीस से संपर्क ख़त्म कर लेते तो माना जा सकता कि उनसे ग़लती हुई और भूल-सुधार करना चाहते हैं। लेकिन आरोपी होते हुए भी 2002 में संजय (तब उम्र 42 साल) ने शकील से फिर बात की और गोविंदा को सबक सिखाने का आग्रह किया। जिसे मुंबई पुलिस ने रिकॉर्ड कर लिया। यानी संजय ने अपनी पिछली ग़लतियों से कुछ भी नहीं सीखा। इसके बावजूद भाग्य ने उसका साथ दिया।
वैसे 257 हत्या के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार बम प्लांटर शोएब घंसार, असगर मुक़ादम, शाहनवाज़ कुरैशी,अब्दुल गनी तुर्क, परवेज़ शेख़, मोहम्मद इक़बाल, यूसुफ़ शेख, नसीम बरमारे, मोहम्मद फ़ारूक पावले, मुश्ताक तरानी और इम्तियाज घवाटे को भी मौत की सज़ा मिली थी, लेकिन तकदीर उनके साथ थी। कहा जा सकता है कि बमकांड में शामिल सभी अभियुक्त भाग्यशाली रहे कि उन्हें ग़ुनाह के मुक़ाबले कम सज़ा मिली।

वैसे,मुकद्दर ने संजय का साथ छोड़ा ही नहीं तभी तो संजय को जेल गए दो साल भी नहीं हुए हैं, लेकिन उस पर शुरू से फर्लो और पैरोल की बारिश हो रही है। हालांकि पूर्व आईपीएस एडवोकेट वाईपी सिंह संजय दत्त को दिए गए पैरोल को सही नहीं मानते हैं। सिंह के मुताबिक पैरोल रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर कैटेगरी के क़ैदियों को मिलता है। हालांकि वह भी मानते हैं कि संजय दत्त वाक़ई भाग्यशाली हैं, जो उसे हर जगह फेवर मिल रहा है। वैसे अभी संजय को भाग्य की ज़रूरत है, क्योंकि उसकी क्षमादान याचिका राज्यपाल के पास विचारीधीन हैं। ऐसे में भविष्य में तकदीर उन पर दोबारा मेहरबान हो जाए और वह सज़ा ख़त्म करने से पहले छूट जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

जेएनयू के वाइस चांसलर को जवाबदेह मानकर क्यों न उन्हें गिरफ़्तार किया जाए?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
क्या वाक़ई जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय भारत में ही है? अगर हां, तो भारतीय क़ानून का पालन जेएनयू कैंपस में क्यों नहीं हो रहा है? आख़िर जेएनयू के वाइस चांसलर प्रो. ममिडाला जगदीश कुमार कौन होते हैं, दिल्ली पुलिस को उस शख़्स को गिरफ़्तार करने से रोकने वाले, जिस पर देशद्रोह का संगीन आरोप है और जिसके ख़िलाफ़ पुलिस ने लुकआउट नोटिस जारी कर रखा है। क्या भारत सरकार को जेएनयू कैंपस में पुलिस के प्रवेश को सुनिश्चित करने के लिए जेएनयू से प्रत्यर्पण संधि यानी एक्स्ट्रडिशन ट्रीटी साइन करनी पड़ेगी?

क्या यह किसी मज़ाक़ से कम है कि दिल्ली पुलिस की टीम दुर्दांत आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाने वाला उमर ख़ालिद का जेएनयू के गेट पर इंतज़ार कर रही है और खालिद अपने साथियों के साथ भारतीय क़ानून पर हंस रहा है। निश्चित तौर पर इस मुद्दे पर दुनिया में भारत की खिल्ली उड़ रही है कि एक यह देश देशद्रोह के आरोपियों को राजधानी में ही नहीं पकड़ पा रही है। यह देश की इमैज के लिए बहुत ख़तरनाक है। यह बहुत ही ग़लत परंपरा की शुरुआत भी हो रही है। पुलिस की काम में बाधा डालने के लिए जेएनयू के वाइस चांसलर को फौरन बर्खास्त करके उन्हें भी गिरफ्तार किया जाना चाहिए। यही एकमात्र विकल्प है।

बताइए, अफ़ज़ल गुरु को शहीद बताने वाले और भारत मुर्दाबाद के नारे लगाने वाले प्रोग्राम का आयोजन करने वाला उमर ख़ालिद जेएनयू कैंपस में बैठा है और वाइस चांसलर पुलिस टीम को कैंपस के अंदर जाने की इजाज़त नहीं दे रहे हैं। ऐसा लग रहा है जेएनयू भारत के अंदर कोई स्वतंत्र देश हैं, जहां देशद्रोह के आरोपी को पकड़ने के लिए पुलिस को वाइस चांसलर का मुंह देखना पड़ रहा है। यह तो कायरता की पराकाष्ठा है।

यहां यह सवाल नहीं है कि कन्हैया कुमार सिंह, खालिद उमर और उनके साथी देशद्रोह के दोषी हैं या नहीं, क्योंकि उन पर देशद्रोह के आरोपों की सत्यता की जांच करना अदालत का काम है और अदालत यह काम कार्यक्रम के फोटोग्राफ और वीडियों के रूप में उपलब्ध सबूतों और दूसरे साक्ष्यों की सत्यता की जांच करने के बाद तय करेगी। यहां सवाल यह है कि कन्हैया कुमार सिंह, खालिद उमर और उनके साथियों पर देशद्रोह का मामला पहले ही दर्ज किया जा चुका है और उसके लिए इन सबको गिरफ़्तार करके उनकी कोर्ट के सामने पेश होनी चाहिए।

इस गिरफ़्तारी में अड़ंगा डालनेवाले वाइस चांसलर प्रो. एम जगदीश कुमार जेएनयू के प्रशासनिक मुखिया हैं, इसलिए कैंपस में होने वाली हर गतिविधि के लिए वह भी सीधे तौर पर ज़िम्मेदार है। अगर वह अच्छे काम के लिए ज़िम्मेदार हैं तो, देशद्रोह जैसे बुरे और राष्ट्रविरोधी काम के लिए भी वही ज़िम्मेदार हैं। अगर लोग देश के हर घटना के लिए देश के प्रधानमंत्री को जवाबदेह मानते हैं और प्रदेश की घटनाओं के लिए संबंधित मुख्यमंत्री को जवाबदेह मानते हैं तो किसी विश्वविद्यालय की हर घटना के लिए उसके वाइसचांलर को जवाबदेह मानना चाहिए। इस आधार पर जेएनयू की हर घटना के लिए वहां के वाइस चांसलर को क्यों नहीं जवाबदेह माना जाना चाहिए।

जेएनयू कैंपस के अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर अगर राष्ट्रविरोधी तत्व सिर उठा रहे हैं, तो कहीं न कहीं वाइस चांसलर ही जिम्मेदार है। लिहाज़ा, नौ फरवरी की घटना के लिए अगर कन्हैया कुमार सिंह, उमर खालिद और उनके साथी जितने ज़िम्मेदार हैं, उतने ही ज़िम्मेदार जेएनयूके वाइसचांसलर हैं। लिहाज़ा, अगर इस मसले पर अगर कन्हैया कुमार सिंह, उमर खालिद और उनके साथियोंपर मामला दर्ज किया गया है तो वाइस चांसलर के ख़िलाफ़ भी मुक़दमा दर्ज किया जाना चाहिए।

एक देश जो संयुक्त राष्ट्रसंघ की सबसे शक्तिशाली बॉडी सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता की दावेदारी पेश कर रहा है, वह अपने राजधानी में एक विश्वविद्यालय की हरकतों से नहीं निपट पा रहा है। सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता की दावेदारी का मतलब भारत दुनिया की समस्याओं को हल करने में अपना योगदान देना चाहता है। जेएनयू की घटना देश के इस दावे को निश्चित तौर पर खोखला बनाती है।

यह तो वहीं बात हुई कि जैएनयू कैंपस के अंदर शरण लिए छात्र देश के क़ानून को ठेंगा दिखाते रहे और देश वाइस चांसलर के परमिशन का इंतज़ार करता रहे। निश्चित तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके बैबिनेट के इस मामले में कठोर फैसला करना चाहिए वरना देश के लोगों में यह भावना बढ़ जाएगी कि भारत एक सॉफ़्ट नेशन हीं नहीं कमज़ोर देश भी है। अगर केंद्र सरकार मौन रहती है तो दिल्ली हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को देश के क़ानून का पालन करवाने के लिए आगे आना चाहिए।


रविवार, 21 फ़रवरी 2016

जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार सिंह को हीरो बनाना कितना उचित?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार सिंह की कथित तौर पर देशद्रोह की आरोप में गिरफ़्तारी के समर्थन और विरोध में देश भर में प्रदर्शन हो रहे हैं। यूनिवर्सिटी में पिछले 9 फरवरी को संसद पर हमले की साज़िश में फ़ांसी पर लटकाए गए जैश-ए-मोहम्मद के दुर्दांत आतंकवादी मोहम्मद अफजल गुरू की तीसरी बरसी मनाने और देश विरोधी नारे लगाने के मुद्दे पर पूरा देश दो खेमे में बंट गया है। क़रीब 50 साल पुराने जेएनयू को लेकर पूरा देश तो नहीं, बौद्धिक खेमा ज़रूर लेफ्ट-राइट कर रहा है। लेफ़्ट-विंग के समर्थक बीजेपी और संघ परिवार को फासिस्ट करार देते हुए लामबंद हो रहे हैं। उसी तरह राइट-विंग के पैरोकार कम्युनिस्ट और सेक्यूलर विचारधारा के लोगों को देशद्रोही करार देते हुए उनके ख़िलाफ़ बयानबाज़ी कर रहे हैं। लेफ़्ट-राइट के इस कांव-कांव में असली मुद्दा गौण हो गया।

कन्हैया कुमार सिंह का काम देशद्रोह की कैटेगरी में आता हैं या नहीं, यह फोटोग्राफ और वीडियों के रूप में उपलब्ध सबूतों और दूसरे साक्ष्यों की सत्यता की जांच करने के बाद अदालत तय करेगी न कि मीडिया या नुक्कड़ चर्चाओं में शामिल लोग। इसके बावजूद कुछ देर के लिए मान लिया जाए कि कन्हैया सिंह निर्दोष हैं। यह भी मान लिया जाए, जैसा कि उनके पैरोकारों का आरोप है कि दिल्ली पुलिस ने उन पर नरेंद्र मोदी सरकार के इशारे पर देशद्रोह का मामला दर्आज किया है। परंतु कन्हैया सिंह के लिए आंदोलन और धरना-प्रदर्शन कर रहे लोग यह बताएं कि उनका नेता 9 फरवरी की शाम उस कार्यक्रम में क्या कर रहा था, जो अफ़ज़ल गुरु की बरसी के दिन ही आयोजित की गई थी। कन्हैया सिंह कोई नादान या अपरिपक्व व्यक्ति नहीं, वह कॉमरेड हैं और जेएनयू से पीएचडी कर रहे हैं। उन्हें यह जानकारी थी कि उनका दोस्त और डेमोक्रेटिक स्टूडेंट यूनियन से जुड़ा उमर खालिद कई महीने से अफ़ज़ल बरसी मनाने में जुटा है। उसने 7 फरवरी को कश्मीर से 10 युवकों को दिल्ली बुलाया और सभी लोग जेएनयू कैंपस में ही ठहरे। 9 फरवरी की शाम 20-25 लोगों ने बेहद नियोजित ढंग अफ़ज़ल की बरसी मनाई। कन्हैया सिंह ने साबरमती ढाबे के पास कार्यक्रम में खालिद के साथ नारेबाजी कर रहे लोगों की अगुवाई की थी।

अफ़ज़ल को शहीद घोषित करने वाले किसी कार्यक्रम में शामिल होने से पहले हर समझदार व्यक्ति यह सोचेगा कि अफ़ज़ल को बलात् फ़ांसी पर नहीं लटका दिया गया। जांच एजेंसियों ने अफ़ज़ल के अलावा दिल्ली यूनिवर्सिटी के तत्कालीन प्रोफ़ेसर एसएआर गिलानी और दूसरे लोगों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया था। अफ़ज़ल ने एक टीवी इंटरव्यू में स्वीकार किया था कि वह 2001 में संसद पर हमले का सूत्राधार था और जैश-ए-मोहम्मद के इंडिया चीफ़ गाज़ी बाबा के बराबर संपर्क में था। उसने यह भी माना था कि हमला करने वाले पांचों पाकिस्तानी आतंकियों को कश्मीर दिल्ली लेकर वही आया था। अफ़ज़ल ने अपने कार्य को जस्टीफाई करने के लिए आर्थिक तंगी का हवाला देते हुए कहा था कि पैसे के लिए वजह इस साज़िश में शामिल हुआ था।

बहरहाल, सुनवाई के बाद निचली अदालत ने अफ़ज़ल और गिलानी को फ़ांसी की सज़ा सुनाई थी। दिल्ली हाईकोर्ट ने अफ़ज़ल की सज़ा बरकरार रखी। इसके बाद भी अफ़ज़ल को बचाव के कई और अवसर दिए गए, लेकिन हर बार वह दोषी पाया गया। अंततः उसे 9 फरवरी 2013 को तिहाड़ जेल में फ़ांसी दी गई। उधर दिल्ली हाईकोर्ट ने गिलानी के ख़िलाफ़ जुटाए गए सबूत को पर्याप्त नहीं माना और उसे रिहा कर दिया। 

बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को कायम रखा और गिलानी को रिहा कर दिया, लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने संसद पर हमले में गिलानी के रोल को संदेहजनक मानते हुए कहा था कि ऐसा लगता है गिलानी संसद पर हमले का समर्थन कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि गिलानी ने अपने बचाव के लिए अपने ख़िलाफ़ लाए गए सबूतों की ग़लत व्याख्या की थी। अब गिलानी का प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में अफ़ज़ल और मकबूल बट के लिए प्रोग्राम करना सुप्रीम कोर्ट के उस संदेह को पुख़्ता किया है।

अंग्रेज़ों द्वारा 1870 में ताजी-रात-ए-हिंद यानी इंडियन पैनल कोड में शामिल किए गए क़ानून 124ए के मुताबिक़, इस कैटेगरी के आतंकवादी की बरसी पर कार्यक्रम आयोजित करना और उसमें शिरकत करना देशद्रोह की कैटेगरी में आता है। यह नारेबाज़ी, व्यवस्था में सुधार की कैटेगरी में नहीं आता, क्योंकि नारेबाज़ी करने वाले लोग अफ़जल को शहीद बताते हुए देश के विरुद्ध नारे लगा रहे थे। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 20 जनवरी 1962 के केदारनाथ सिंह बनाम स्टेट ऑफ बिहार मुक़दमे में साफ़ किया था कि सरकार के विरुद्ध कठोर शब्दों का प्रयोग अगर इस दृष्टि से किया गया है कि व्यवस्था या सिस्टम में सुधार हो तो वह दंडनीय अपराध नहीं होगा।

प्राइमा फेसाई साफ़ लग रहा है कि जेएनयू, जिसे सारा देश शिक्षा के विशेष मंदिर के रूप में देखता आया है, ऐसे नकारा और असामाजिक तत्वों का अड्डा बन गया है, जो देश की एकता अखंडता का भी सम्मान नहीं करते हैं। ऐसे में इस मामले में कन्हैया सिंह और खालिद उमर समेत हर दोषी के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई होनी ही चाहिए। कन्हैया सिंह ही नहीं, बल्कि खालिद की जिस-जिस ने मदद की उन सबके ख़िलाफ़ आएआईआर दर्ज किया जाना चाहिए। बेशक भारत एक डेमोक्रिटिक नेशन हैं। बेशक यह सभ्य देश अपने हर नागरिक को कुछ बुनियादी अधिकार देता है। इसका यह मतलब कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि लोगों को देश के विरुद्ध काम करने का लाइसेंस मिल गया है। कोई भी नागरिक अगर देश हित के ख़िलाफ़ काम करने लगे तो उससे सख़्ती से निपटना समय की मांग है।

जेएनयू में वामपंथी संगठनों की शह पर कश्मीरी छात्र, ख़ासकर अलगाववादी बेहद ऐक्टिव रहते हैं. इससे पहले भी जेएनयू में ऐसी राष्ट्रविरोधी हरकतें होती रही हैं। अफजल को फांसी देने के बाद भी यहां बवाल हुआ था। बेशक जेएनयू ने देश को बड़े-बड़े बुद्धिजीवी दिए हैं। लेकिन देश विरोधी गतिविधियां के यहां पनपने से जेएनयू की छवि ख़राब हुई है। कांग्रेस की कनफ़्यूज़िग पॉलिसी ने पहले ही कश्मीर समस्या पैदा कर दी है। अब अलगाववादी तत्वों से बहुत सख़्ती से निपटने का समय आ गया है।

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

आउटडेटेड पुरुषवादी परंपराओं को ध्वस्त करने का वक़्त

हरिगोविंद विश्वकर्मा
इस साल गणतंत्र दिवस के दिन अहमदनगर जिले में शनि शिंगणापुर मंदिर के चबूतरे तक जाने की हिंदू महिलाओं की कोशिश और महालक्ष्मी (मुंबई) के हाजीअली दरगाह में मुस्लिम महिलाओं को प्रवेश देने की मांग, दरअसल, सदियों से चली आ रही आउटडेटेड पुरुषवादी परंपराओं को गिराने की शुरुआत भर है। लकीर के फकीर पुरुष प्रधान समाज के पैरोकार अगर होश में नहीं आए तो वह दिन दूर नहीं, जब भूमाता रण रागिनी ब्रिगेड की अध्यक्ष तृप्ति देसाई और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सह संस्थापक नूरजहां साफिया नियाज़ ने नेतृत्व में हर भारतीय महिला पुरुषवादी परंपरा से लड़ने के लिए तैयार हो जाएगी। लिहाज़ा, समय के साथ सोच और व्यवहार में बदलाव वक़्त का तकाजा है, जो भी ऐसा नहीं करेगा, वह निश्तिच रूप से आउटडेट घोषित कर दिया जाएगा।

साढ़े चार सौ साल से भी अधिक पुराने शनि शिंगणापुर मंदिर के चबूतरे पर महिलाओं का जाना और उनका सरसों का तेल चढ़ाना मना है। पता नहीं किसने इस बेतुकी और पक्षपातपूर्ण परंपरा का आरंभ किया है। इसी तरह छह सदी से ज़्यादा पुराने हाजीअली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर मनाही है। जबकि किसी भी धार्मिक पुस्तक में कही नहीं लिखा है कि महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर भेदभाव किया जाए। ज़ाहिर सी बात है, इस तरह की दकियानूसी परंपराएं पुरुष-प्रधान समाज में हर जगह हैं। पहले तो महिलाओं के घर से बाहर निकलने पर ही अघोषित पाबंदी थी, लेकिन वक्त के साथ उसमें बदलाव आया और महिलाओं सीमित संख्या में ही सही हर जगह दिखती हैं।

महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर किसी तरह का भेदभाव करना और उन्हें किसी भी धर्मस्थल पर जाने से रोकना दरअसल सामाजिक और मानवीय दोनों तरह का अपराध है। यह भारतीय संविधान में महिलाओं को मिले अधिकार का भी गंभीर हनन है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं। चाहे वे शनि शिंगणपुर के शनि मंदिर के पुजारी हों या सबरीमाला मंदिर के पुजारी या फिर मस्जिदों के मौलवी सबके सब मानवता के खिलाफ अपराध के दोषी हैं और इन सबके खिलाफ आपराधिक कार्रवाई की जानी चाहिए और पूरे देश में हर धार्मिक स्थल पर जाने की महिलाओं को आज़ादी दी जानी चाहिए। शनि शिंगणापुर के मुद्दे पर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस को फ़ैसला लेने के लिए अधिकृत किया गया है।

यहां तक कि मासिक धर्म (रजोधर्म) या पीरियड के समय भी किसी महिला को किसी धार्मिक अनुष्ठान से दूर नहीं रखना चाहिए, क्योंकि पीरियड हर महीने गर्भाशय की सफाई का एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। उसके बाद स्त्री गर्भधारण (अगर चाहे तो) के लिए शारीरिक तौर पर तैयार होती है। इसे उसी तरह की सफाई माना जा सकता है, जिस तरह स्त्री-पुरुष दैनिक नित्यकर्म करते हैं। अगर नित्यकर्म अशुद्ध नहीं है, तो पीरियड को भी अशुद्ध नहीं माना जा सकता। अब तो मेडिकल से जुड़े लोग कहने लगे हैं कि पीरियड के समय सहवास करने में कोई हानि नहीं होती। मेडिकल साइंस के मुताबिक़, महिला का शरीर भी कमोबेश पुरुष की तरह ही है। पुरुष का शरीर स्पर्म पैदा करता है तो स्त्री के शरीर में एग्स पैदा होते हैं, जिसकी ब्रिडिंग गर्भाशय में होता है और नौ महीने बाद मानव जन्म लेता है। लिहाज़ा, स्त्री को अशुद्ध कहने का मतलब संतानोत्पत्ति को ही अशुद्ध कहना है।

राहुल सांकृत्यायन के “वोल्गा से गंगा” के मुताबिक आठ से दस हज़ार साल पहले मानव दो पैरों पर खड़ा होने के बाद निर्वस्त्र हाल में एक झुंड में जंगलों और गुफाओं में रहता था। तब मनुष्य का शरीर इतना मज़बूत होता था कि कोई बीमारी नहीं लगती थीं। आजकल जानवरों की तरह उस समय हर स्त्री-पुरुष का अनगिनत लोगों से सेक्सुअल रिलेशनशिप होता था, इसलिए किसी शिशु का पिता कौन है, यह कोई नहीं जानता था। हां, दूध पीने के कारण माता को सब लोग पहचानते थे। झुंड की सबसे ताक़तवर महिला ही झुंड की मुखिया होती थी। यह परंपरा कई हज़ार साल तक चलती रही। महिला मुखिया झुंड के हर सदस्य के साथ इंसाफ करती थी। इसलिए उस समय आपसी झगड़े या लड़ाइयां भी बहुत कम हुआ करती थीं। तब सेक्स डिटरमिनेशन टेस्ट या अबॉर्शन की प्रथा भी नहीं थी। लिहाज़ा, धरती पर स्त्री और पुरुष की तादाद लगभग बराबर होती थी। यानी जनसंख्या संतुलित थी। यह तथ्य मानव विकास पर लिखी गई किताबों में भी मिलता है। कभी-कभार जब दो झुंडों की आपस में संघर्ष होती था तब दोनों झुंड की मुखिया स्त्रियां ही आपस में मलयुद्ध करती थीं।

हुआ यूं कि एक बार एक झुंड की महिला मुखिया किसी कारण से मर गई। उसी समय उस झुंड पर दूसरे झुंड ने आक्रमण कर दिया। तब लड़ाई के लिए मर चुकी महिला मुखिया के बलिष्ठ बेटे, जो उसका प्रेमी भी था, को आगे आना पड़ा। उसका दूसरे झुंड की मादा से भयानक मलयुद्ध हुआ। पुरुष ने दूसरे झुंड की महिला को हार दिया। मानव समाज के विकास की संरचना में यह घटना अहम मोड़ थी। पुरुष ने पहली बार महसूस किया कि औसतन वह महिला से ज़्यादा ताक़तवर है। इसके बाद झुंड प्रमुख पद को सबसे ताकतवर पुरुष हथियाने लगे। यहीं से पुरुष आधिपत्य शुरू हुआ और स्त्री के साथ पक्षपात होने लगा। पुरुष उसे महज भोग की वस्तु समझने लगा और उसके मानवीय अधिकारों का भी हनन करने लगा। परिवारवाद प्रथा शुरू होने पर शुरू में एक पुरुष कई-कई पत्नियां रखता था, लेकिन स्त्री को दूसरे पुरुष की ओर देखने पर कुलटा कह दिया जाता था। जब शिक्षा की अवधारणा शुरू हुई तो पुरुष ने उस पर भी क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद धर्म की स्थापना हुई। पुरुष आधिपत्य का कराण हर धर्म पुरुष प्रधान बनाए गए। जितने भी धार्मिक ग्रंथ रचे गए सबके सब पुरुषों ने रचे और सबमें पुरुष को ही महिमामंडित किया गया। जितने त्यौहार बनाए गए सब के सब पुरुष वर्चस्व के प्रतीक हैं। पत्नी पति के लिए व्रत रहती है, लेकिन कोई पति अपनी पत्नी के लिए व्रत नहीं रहता।

सारी पुरुष-प्रधान परंपराएं कमोबेश आज भी बदस्तूर जारी हैं। घर के बाहर हर जगह पुरुष ही दिखते हैं। महिलाओं की विज़िबिलिटी 10-15 फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं है। सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति के दौर में भी मुंबई-दिल्ली जैसे महानगर छोड़ दिए जाएं तो महिलाओं की घर के बाहर विज़िबिलिटी पांच फ़ीसदी भी नहीं है। महिलाओं की कम विज़िबिलिटी के चलते दुस्साहसी पुरुष उनके साथ उनकी मर्जी के विरुद्ध हरकते करते हैं। उनके साथ भेदभाव करते हैं। महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों की असली वजह यही है, जिसे क़ानून को सख़्त करके नहीं रोका जा सकता। इसके लिए देश में हर जगह महिलाओं को 50 प्रतिशत जगह आरक्षित करनी पड़ेगी। हर जगह जितने पुरुष है उतनी स्त्री करनी ही पड़ेगी। शनि शिंगणापुर और हर मंदिर मस्जिद में महिलाओं का प्रवेश सुनिश्चित ही नहीं करना पड़ेगा बल्कि शनि शिंगणापुर और सबरीमाला जैसे धर्मस्थलों पर महिला पुजारी भी नियुक्त करना पड़ेगा।

कितने शर्म की बात है, कि अपने ही धर्म के स्थल पर जाने के लिए महिलाओं को आंदोलन करना पड़ रहा है और तथाकथित लोग मध्यस्थता कर रहे हैं। यहां जनता दल अध्यक्ष शरद यादव का बयान समीचीन है कि शनि मंदिर शिंगणापुर और हाजीअली दरगाह में महिलाओं का प्रवेश रोकने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करते हुए ऐसे लोगों को फौरन जेल भेजा जाना चाहिए। भारतीय संविधान जब स्त्री-पुरुष को पूजा या इबादत का समान अधिकार देता है, तब ये पुजारी या मौलवी कौन होते हैं स्त्रियों को रोकने वाले? समाज के इन तथाकथित ठेकेदारों को महिलाओं को इन धर्मस्थलों में जाने से रोकने का अधिकार किसने दे दिया?