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मंगलवार, 15 मार्च 2016

शहीदों को कम, आतंकियों को ज़्यादा याद रखते हैं लोग

हरिगोविंद विश्वकर्मा
क्या आप रवींद्र म्हात्रे को जानते हैं? अगर यह सवाल आप ऐसे ही कैज़ुअली 10 भारतीयों से पूछें, तो निश्चित तौर पर बमुश्किल एक या दो लोग ही उनके बारे में बता पाएंगे। अगर यह भी बता दीजिए कि पुणे में रवींद्र म्हात्रे के नाम पर एक पुल है और विक्रोली में एक मैदान, तब भी शायद ही लोगों को याद आएगा। यहां तक कि म्हात्रे पुल से गुजरने वाले हज़ारों लोग या म्हात्रे मैदान में खेलने वाले सैकड़ों बच्चों से पूछ लें तो उनमें भी बमुश्किल इक्का-दुक्का लोग ही म्हात्रे के बारे में बता पाएंगे।

इसके विपरीत अगर लोगों से मोहम्मद अफ़ज़ल गुरु या मकबूल भट के बारे में पूछें, तो बताने वालों की संख्या एकदम उल्टी हो जाएगी। यानी एकाध लोगों को छोड़कर सभी लोग बता देंगें कि दोनों कौन थे। हाल ही में हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय विवाद के केंद्र में यही दोनों थे। देश के ख़िलाफ़ साज़िश रचने वाले इन दोनों आतंकवादियों को नौ फरवरी 2016 सी शाम जेएनयू में शहीद बताया गया था। चूंकि अफ़ज़ल को लोग जानते हैं, कि 2001 में संसद पर हमले का सूत्राधार था, लेकिन मक़बूल बट के बारे में बहुत नहीं जानते कि वह कौन था और उसे फ़ांसी क्यों हुई, क्योंकि उसने अपराध पिछली सदी में किया था। इसलिए मक़बूल के अपराधों को बताना ज़रूरी है, लेकिन उससे पहले भारतीय राजनयिक रवींद म्हात्रे का ज़िक्र करना ज़्यादा मुनासिब होगा, जिनकी पढ़ाई-लिखाई मुंबई में हुई।

49 वर्षीय भारतीय राजनयिक रवींद्र म्हात्रे, दरअसल, पहली बार तीन फरवरी 1984 में चर्चा में तब आए जब ब्रिटेन में सक्रिय जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के सहयोगी संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन आर्मी के आतंकवादियों ने बर्मिंघम में उन्हें अपहृत कर लिया। दरअसल, तत्कालीन उच्चायुक्त डॉ. सईद मोहम्मद के विदाई समारोह के चलते बर्मिंघम महावाणिज्य दूतावास के प्रभारी डिप्टी कमिश्नर बलदेव कोहली लंदन में थे, क्योंकि डॉ. सईद सेवानिवृत्त हो रहे थे। उनकी मौजूदगी में सह-उच्चायुक्त म्हात्रे दफ़्तर के प्रभारी थे। वह हमेशा की तरह शाम पांच बजे ऑफ़िस से बारटले ग्रीन इलाके में स्थित अपने घर के लिए निकल पड़े, जो दो किलोमीटर दूर था। उस दिन शुक्रवार था और अगले दिन उनकी बेटी आशा का 14वां जन्मदिन, जिसकी तैयारी करनी थी। लिहाज़ा, रास्ते में केक लेते हुए जैसे ही घर के सामने बस से उतरे थे, आतंकियों ने गनपॉइंट पर उन्हें अपनी कार में बिठा लिया।

जब म्हात्रे सात बजे तक घर नहीं पहुंचे तो पत्नी डॉ. शोभा पठारे-म्हात्रे परेशान होने लगीं। उन्होंने दफ़्तर फोन लगाया, पर कोई जवाब नहीं मिला। फिर शोभा ने कोहली को फोन लगाया। वह भी हैरान हुए, क्योंकि म्हात्रे अमूमन साढ़े पांच बजे तक घर पहुंच जाते थे। जब 9 बजे तक उनका सुराग नहीं मिला तब कोहली ने बर्मिंघम पुलिस को सूचना दी। बहरहाल, शनिवार की अल-सुबह एक अज्ञात व्यक्ति ने न्यूज़ एजेंसी रॉयटर के दफ़्तर में जम्मू-कश्मीर लिबरेशन आर्मी का हाथ से टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में लिखा एक पत्र ड्रॉप किया। जिसमें दावा किया गया था कि म्हात्रे को अगवा किया गया है। म्हात्रे को छोड़ने के बदले आतंकवादियों ने उसी दिन शाम 7 बजे तक भारत के सामने जेल में बंद मक़बूल भट को छोड़ने और दस लाख ब्रिटिश पाउंड की मांग रखी। लेटर पर कोई नाम पता या फोन नंबर नहीं था, लिहाज़ा, रॉयटर के संपादक ने ख़बर चलाने से पहले स्कॉटलैंड यार्ड को सूचना दी। जहां म्हात्रे के ग़ायब होने की शिकायत दर्ज थी।

अपहरकर्ताओं ने जेकेएलएफ से जुड़े आज़ाद कश्मीर के पैरोकार ज़ुबैर अंसारी को भी फोन किया और उनसे भारत के साथ मक़बूल की रिहाई के लिए वार्ता करने की अपील की। अंसारी ने अपहर्ताओं से समय सीमा रात 10 बजे तक बढ़ाने की अपील की, जिसे मान लिया गया। अंसारी ने स्कॉटलैंड यार्ड को सूचित कर दिया, जिससे उनका फोन सर्विलॉन्स पर रख दिया गया। भारत को भी घटना से अवगत करा दिया गया। तब विदेश मंत्रालय में वरिष्ठतम अधिकारी रोमेश भंडारी और विदेश सचिव एमके रसगोत्रा ने गुवाहाटी के दौरे पर निकल चुकीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से संपर्क करने की कोशिश की, परंतु विमान आसमान में था। आईबी और रॉ के प्रमुख आरएन कॉव और प्रिंसिपल सचिव पीसी अलेक्ज़ेंडर को सूचित कर दिया गया था। सवा चार बजे जैसे ही पीएम के विमान ने लैंड किया, उन्हें सूचित कर दिया गया।

ब्रिटेन से पहले बांग्लादेश और ईरान में राजनयिक रहे म्हात्रे की जीवन इंडियन एयरलाइंस के विमान सी-814 में सवार यात्रियों के जीवन से कम महत्वपूर्ण नहीं था। सन् 1999 में सी-814 में सवार यात्रियों की जान बचाने के लिए अटलबिहारी वाजपेयी सरकार में विदेश मंत्री जसवंत सिंह जैश-ए-मोहम्मद चीफ़ मौलाना मसूद अज़हर, अहमद सईद शेख और मुश्ताक़ अहमद ज़रगर जैसे ख़तरनाक आतंकवादियों को लेकर कंधार गए थे। अटल सरकार ने आतंकवाद के आगे भले घुटने टेक दिया था लेकिन आतंकवाद की शरणस्थली बने स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने का साहस करने वाली इंदिरा ने दहशतगर्दों के आगे झुकने से साफ़ इनकार कर दिया। इंदिरा ने कहा कि न तो मक़बूल को छोड़ा जाएगा न ही भारत आतंकियों से कोई बातचीत की जाएगी। नतीजतन छह फरवरी को आतंकियों ने म्हात्रे का कत्ल करके शव बर्मिघंम शहर से 40 किलोमीटर दूर लीसेस्टरशायर के हिंकली में हाइवे के किनारे फेंक दिया। म्हात्रे के सिर में दो गोली मारी गई थी।

बहरहाल, उसी दिन इंदिरा की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट की आपात बैठक हुई, जिसमें मौजूदा राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी (वित्त मंत्री), प्रकाशचंद्र सेठी (गृहमंत्री) आर वेंकटरमन (रक्षामंत्री) और पीवी नरसिंह राव (विदेश मंत्री) मौजूद थे। कैबिनेट ने राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से मक़बूल की दया याचना नामंजूर करने की सिफ़ारिश की, ताकि उसे जल्दी से जल्दी फांसी पर लटकाया जा सके। राष्ट्रपति कोलकाता में थे। लिहाज़ा, एक अधिकारी कैबिनेट प्रस्ताव लेकर उनके पास गया और जैलसिंह ने फ़ौरन मर्सी पिटीशन रिजेक्ट कर दिया। गृह मंत्रालय के अफ़सर पीपी नैयर को ब्लैक वारंट लेने और मक़बूल भट की फांसी में आने वाली किसी भी संभावित बाधा को दूर करने के लिए कश्मीर भेजा गया। बहरहाल, म्हात्रे की हत्या के छह दिन बाद 11 फरवरी 1984 को मकबूल भट को तिहाड़ जेल में फ़ांसी पर लटका दिया गया और उसके शव को जेल में ही अज्ञात जगह दफ़ना दिया गया।

इंदिरा को एहसास था कि म्हात्रे की जान उनके कारण ही गई, लेकिन उन्होंने व्यापक राष्ट्रीय हित में मक़बूल को न छोड़ने का फ़ैसला किया था। घर में प्यार से दादा पुकारे जाने वाले रवींद्र के बूढ़े माता-पिता मुंबई के विक्रोली में छोटे बेटे अविनाश को साथ रहते थे। इंदिरा दूसरे दिन मुंबई गईं और एयरपोर्ट से सीधे म्हात्रे के घर गईं। प्रधानमंत्री को देख 75 वर्षीय पिता हरेश्वर म्हात्रे और 74 वर्षीय माता ताराबाई फूट-फूट कर रोने लगे। इंदिरा उनके हाथ पांच मिनट हाथ मे लेकर बैठी रहीं और सांत्वना देती। इंदिरा गांधी ने साफ़-साफ़ कहा, “मैं ख़ुद एक मां हूं, इसलिए आपका दर्द समझ सकती हूं। आपके बेटे की जान मेरे कारण ही गई, लेकिन मेरे लिए राष्ट्रहित ऊपर था, जिसके लिए रवींद्र को जान गंवानी पड़ी। इसके लिए मैं दोषी हूं और आपसे क्षमा मांगती हूं।” इंदिरा और कहीं नहीं गईं और सीधे हवाई अड्डे से दिल्ली वापस आ गईं।

दरअसल, पाकिस्तान अधिकृत कश्मूर यानी आज़ाद कश्मीर के मीरपुर शहर में रहने वाले जेकेएलएफ़ के चेयरमैन अमानुल्लाह ख़ान के सहयोगी और हॉलैंड में रहने वाले हाशिम कुरेशी की 1999 में प्रकाशित किताब “कश्मीरः द अनवेलिंग ऑफ़ ट्रूथः अ पोलिटिकल एनालिसिस ऑफ कश्मीर” में खुलासा हुआ कि म्हात्रे का अपहरण और उनकी हत्या की साजिश अमानुल्लाह ख़ान ने ही रची थी और जेकेएलएफ आतंकी मोहम्मद रियाज़, अब्दुल क़य्यूम राजा और मोहम्मद असलम मिर्ज़ा ने अंजाम तक पहुंचाया था। रियाज़ और राजा को जेल की सज़ा हुई, लेकिन मिर्ज़ा हत्या के बाद अपनी बीवी सकीना और अपने सात बच्चों को इंग्लैड में छोड़कर पाकिस्तान भागा। वह से पेनसिल्वेनिया गया और 2001 में पॉटसविले की एक महिला से निकाह कर लिया। बहरहाल, उसे अमेरिकी में पकड़ा गया।

तीन से छह फरवरी 1984 की घटना को याद करते हुए म्हात्रे की बेटी आशा म्हात्रे डिसिल्वा कहती हैं, “पापा के अपहरण की ख़बर हमारे लिए विपत्ति लेकर आई थी। अगले दिन मेरा बर्थडे था, इसलिए मै केक का इंतज़ार कर रही थी, लेकिन उस दिन पापा आए ही नहीं और फिर कभी नहीं आए। मैं और मम्मी रात भर सो नहीं पाईं। तीसरे दिन जब लाश मिली तो मां घर में ही गिर पड़ीं।” सिर से पिता का साया उठने के बाद आशा उम्र से भी ज़्यादा तेज़ी से परिपक्व हुईं। बहरहाल, रवींद्र म्हात्रे के सम्मान में पुणे में एक पुल का नाम उनके नाम पर म्हात्रे पुल रखा गया। इसके अलावा मुंबई के विक्रोली में उनके नाम से बीएमसी का एक मैदान है।

बहरहाल, रवींद्र म्हात्रे की हत्या के लिए ज़िम्मेदार जेकेएलएफ़ के संस्थापक मक़बूल भट का जन्म 18 फरवरी 1938 को हंडवारा (पूर्व कुपवाड़ा जिला) जिले के त्रेहगाम में किसान ग़ुलाम क़ादर भट के यहां हुआ। माना जाता है कि कश्मीर घाटी के पुराने हिंदू जो भट्ट थे वही धर्मपरिवर्तन के बाद भट या फिर बट हो गए थे। उसी ख़ानदान का मक़बूल भी था। 11 बरस की उम्र में मां को गंवाने वाले मक़बूल की प्राइमरी की पढ़ाई त्रेहगाम में हुई। पिता ने दूसरी शादी कर ली। मक़बूल ने कश्मीर विश्वविद्यालय से संबद्ध बारामूला के सेंट जोसेफ कॉलेज से इतिहास और राजनीति विज्ञान में बीए किया। ग्रेजुएशन करने के बाद मक़बूल कुछ साथियों के साथ पीओके चला गया, जहां उन सबको सेना ने गिरफ्तार कर लिया। बाद में मुज़फ़्फ़राबाद में बसे एक कश्मीरी की गारंटी पर रिहा किया गया।

रिहा होने के बाद मक़बूल लाहौर गया। वहां उसके मामूजान ने अपने संपर्कों से उसका दाखिला पंजाब विश्वविद्यालय में कराने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हुए। इसके बाद मक़बूल पेशावर गया और पेशावर विश्वविद्यालय में एडमिशन मिल गया। उर्दू साहित्य से एमए करने के बाद उसने थोड़े समय शिक्षक के रूप में सेवाएं दी, बाद में लोकल अख़बार अंजाम में बतौर पत्रकार काम करने लगा। उसकी शायर अहमद फराज़ से मुलाकात हुई। बहरहाल, कुछ समय पत्रकार की नौकरी करने के बाद जब मक़बूल कई साल बाद भारत लौटा तो आज़ादी की बात करने लगा।

14 सितंबर 1966 को मकबूल अपने साथियों औरंगज़ेब और काला ख़ान के साथ मिलकर लोकल अपराध शाखा सीआईडी ​​के निरीक्षक अमरचंद के घर पर हमला कर दिया। पंजाल थाने में दर्ज एफआईआर के मुताबिक़ उसने अमरचंद को अगवा कर उनकी हत्या कर दी और कैश, गहने और दस्तावेज़ ले उड़ा। उसी दिन सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई में औरंगजेब मारा गया। मकबूल और काला गिरफ्तार कर लिए गए। मक़बूल पर पाकिस्तानी जासूस होने का आरोप लगाया गया। सुनवाई के दौरान नीलकंठ गंजू ने उसे दोषी करार दिया और मौत की सज़ा सुनाई। मक़बूल फ़ौरन बोला, “अपने ऊपर लगाए गए आरोप स्वीकार करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन मैं पाकिस्तानी नहीं हूं। मैं कॉलोनियल माइंडसेट का दुश्मन हूं। मेरी तरफ ध्यान से देख लो, मैं तुम्हारा दुश्मन हूं।“

बहराहल, मक़बूल को अति सुरक्षित श्रीनगर जेल में रखा गया। लेकिन जेल में सुरंग बनाकर वह साथियों समेत भाग निकला और पाकिस्तान चला गया। वहां उसे भारत विरोधी साज़िश करने वाले और ज़्यादा मिल गए। कश्मीर की ओर दुनिया का ध्यान खींचने के लिए वह कोशिश करने लगा। तीन साल बाद वह फिर चर्चा में आया, जब जनवरी 1971 में इंडियन एयरलाइंस फोक्कर एफ-27 फ्रेंडशिप एयरक्राफ्ट ‘गंगा’ हाईजैक करके लाहौर ले जाया गया। यह काम उसके साथी हाशिम कुरेशी और अशरफ भट ने किया। जब प्लेन लैंड हुआ, तब एयरपोर्ट पर मक़बूल मौजूद था। यात्रियों को विमान से बाहर निकाल कर उसमें आग लगा दी गई। सुरक्षा एजेंसियों ने मकबूल को हाइजैक का मास्टरमाइंड बताया।

उसी साल दिसंबर में इंडिया और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ। दिल्ली ने इस्लामाबाद से मकबूल को गिरफ़्तार कर उसके हवाले करने को कहा। ना-नुकुर करते हुए पाकिस्तान ने मकबूल को अरेस्ट तो किया, लेकिन भारत को सौंपने से इंकार कर दिया। पाकिस्तान की अदालत ने दो साल बाद 1974 में उसे रिहा कर दिया। रिहा होते ही मक़बूल बर्मिंघम चला गया। वहां अमानुल्लाह ख़ान के साथ मिलकर जेकेएलएफ़ से जुड़े जम्मू-कश्मीर नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने बाद में भारतीय आर्म फोर्स से सशस्त्र संघर्ष किया, जिसमें 20 साल तक खूब खून-खराबा हुआ।

बहरहाल, जब मक़बूल अपने मिशन के साथ जब दोबारा भारत में घुसा घुसा तो इंटेलिजेंस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। इस दौरान जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने मौत की सज़ा का बरकरार रखी। संयोग से उस समय भी हाईकोर्ट के जज जस्टिस नींलकंठ गंजू ही थे। हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद 23 जुलाई 1976 को मक़बूल तिहाड़ में शिफ़्ट किया गया। हाईकोर्ट की सुनाई सजा सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखी। इस बार उसको मौत की सज़ा मिलनी तय थी। वस्तुतः उसने अनफेयर ट्रायल का आरोप लगाकर राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजी। इस दौरान उसे तिहाड़ जेल के डेथ सेल में रखा गया। उस सेल में मक़बूल घबराता था और डेथ सेल को मेंढक का कुआं कहता था।

वैसे मक़बूल के चार भाई भी थे। हबीबुल्ला भट मकबूल से तिहाड़ में मिलने के बाद रहस्यमय तरीक़े से ग़ायब हो गया। ख़ुफिया एजेंसियों का मानना कि वह पाकिस्तान में है। दो भाई जेकेएलएफ के संयोजक गुलाम नबी भट और मंजूर अहमद भट आतंकी थे और श्रीनगर और त्रेहगाम में अलग-अलग मुठभेड़ों में मारे गए। चौथा भाई जहूर भट भी जेकेएलएफ से जुड़ा है। मकबूल की जयंती पर नियंत्रण अवैध रूप से नियंत्रण रेखा पार करने की कोशिश में नज़रबंद था। क़रीब एक वर्ष बाद पुलिस ने उसे रिहा कर दिया। मक़बूल की दो बहनें सईदा और महबूबा हैं। मक़बलू की दो बीवियां थीं। पहली बीवी राज बेगम से शौकत मक़बूल और जावेद मक़बूल और ज़कीरा से लुबना मक़बूल थीं।

बहरहाल, मकबूल को छुडवाने और ज़िंदा रखने के लिए रवींद्र महात्रे को अपहृत कर उनकी हत्या की गई, लेकिन यह पाशा उल्टा पड़ा। इंदिरा गांधी के आतंकवाद के ख़िलाफ़ कड़े और स्पष्ट रुख के चलते मक़बूल को फ़ांसी पर लटका दिया गया। इस तरह उसके साथियों ने म्हात्रे का हत्या करके मक़बूल के जीवित रहने की संभावना ही खत्म कर दी। बहरहाल, 11 फरवरी को मक़बूल के समर्थक उसकी पुण्यतिथि मनाते हैं। 1989 में उसकी पुण्य तिथि के दिन ही आंतकवाद की शुरुआत की गई थी। उसी साल 4 नवंबर को मकबूल को फांसी की सजा देने वाले जज नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई थी। तब से हिंसा का जो सिलसिला शुरू हुआ वह दिल्ली की सल्तनत पर बैठने वालों की नरम नीति के कारण आज भी बदस्तूर जारी है।

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