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बुधवार, 22 जून 2016

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर में संदिग्ध मौत की जांच आखिर क्यों नहीं करवाई नेहरू ने?

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि पर विशेष
हरिगोविंद विश्वकर्मा
अपने समय के असाधारण राजनेता, चिंतक, शिक्षाविद् और भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की आज से ठीक 63 साल पहले कश्मीर में कथिततौर पर न्यायिक हिरासत के दौरान मौत हो गई थी। हैरानी की बात है कि उनकी मां लेडी जोगमाया देवी मुखर्जी की मांग के बावजूद न तो केंद्र सरकार और न ही जम्मू कश्मीर सरकार ने मौत की जांच करवाई। जोगमाया देवी ही नहीं पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. विधानचंद राय और तब के बड़े कांग्रेस नेता पुरुषोत्तमदास टंडन ने भी डॉ. मुखर्जी की मौत की जांच सुप्रीम कोर्ट के जज से कराने की ज़ोरदार मांग की थी, लेकिन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू टस से मस नहीं हुए।

दिनांक चार जुलाई, 1953 को जोगमाया ने नेहरू को अंग्रेज़ी में मार्मिक पत्र लिखा था। उन्होंने लिखा, “उसकी (डॉ. मुखर्जी) मौत रहस्य में डूबी हुई है। क्या यह हैरतअंगेज़ और अविश्वसनीय नहीं है कि बिना किसी ट्रायल के उसे गैरक़ानूनी ढंग से 43 दिन हिरासत में रखा गया और मुझे, उसकी मां को, जानकारी तक नहीं नहीं दी गई और वहां की सरकार ने मुझे सूचना उसके निधन के दो घंटे बाद दी। मैं अपने पुत्र की मृत्यु के लिए राज्य सरकार को ही ज़िम्मेदार मानती हूं और आरोप लगाती हूं कि उसने ही मेरे पुत्र की जान ली है। मैं तुम्हारी सरकार पर भी यह आरोप लगाती हूं कि घटना को छुपाने के लिए सांठगांठ करने की कोशिश की। इसलिए मैं, स्वतंत्र भारत के उस निडर सपूत की मां, उसकी दुखद और रहस्यमय मौत की अविलंब निष्पक्ष जांच की मांग करती हूं। मैं जानती हूं कि अब कुछ भी हो, उसका जीवन वापस नहीं लाया जा सकता, लेकिन मैं चाहती हूं भारत के लोगों पूरी घटना के असली कारणों से अवगत हों जिससे मेरे बेटे व्यक्ति की मौत हो गई।“

पांच जुलाई 1953 को जोगमाया को भेजे जवाब में नेहरू ने लिखा, “मैं डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हिरासत और मौत के बारे में ईमानदारी से जुटाई गई जानकारी के आधार पर आपको जवाब देना चाहता हूं। मैंने ढेर सारे लोगों से पूछताछ की जो उस समय घटनास्थल पर ही मौजूद थे। अब मैं केवल इतना ही कह सकता हूं कि मैं सच्चे और स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि डॉ. मुखर्जी की मौत पर इस तरह का कोई रहस्य नहीं है, जिस पर विचार किया जाए।”

दरअसल, नेहरू का डॉ. भीमराव अंबेडकर और सरदार पटेल की तरह डॉ. मुखर्जी से बहुत गंभीर मतभेद था। यहां तक कि 13 फरवरी 1953 को लोकसभा में दोनों की बीच बहुत तल्ख बहस हुई थी। जिसमें नेहरू ने अपना आपा तक खो दिया था। उसके बाद 14 अप्रैल को लोकसभा में अपने भाषण में जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की पैरवी करते हुए डॉ. मुखर्जी ने कहा कि नेहरू की नीतियों को देश के लिए विनाशकारी साबित होंगी।

वस्तुतः, 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के समझौते का बाद जम्मू कश्मीर भारत का हिस्सा तो हो गया, लेकिन धारा 370 के तहत उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झंडा और अलग संविधान था। वहां देश के सुप्रीम कोर्ट तक का फ़ैसला लागू नहीं होता था। इतना ही नहीं, वहां का मुख्यमंत्री वजीरे-आज़म अर्थात् प्रधानमंत्री कहलाता था और जम्मू कश्मीर में भारतीयों को प्रवेश करने के लिए पासपोर्ट की तरह परमिट लेनी पड़ती थी। यानी भारत के अंदर जम्मू कश्मीर को स्वतंत्र देश का दर्जा दे दिया गया।

डॉ. मुखर्जी जम्मू-कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाने के प्रबल पैरोकार थे।  इस मुद्दे पर पूरा देश उनके साथ था। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था और कहा था, “या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा।“

नेहरू सरकार को डॉ. मुखर्जी ने चुनौती दी और अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिए वह मई 1953 में बिना परमिट लिए जम्मू-कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वह पंजाब के उत्तरी छोर पर बसे माधोपुर तक पहुंच गए। माधोपुर में रावी को पार करते ही जम्मू कश्मीर राज्य शुरू होता है। राज्य में प्रवेश करने पर डॉ. मुखर्जी को 11 मई 1953 को वज़ीरे आज़म शेख़ अब्दुल्ला के आदेश पर हिरासत में ले लिया था।

सबसे ज़्यादा हैरान करने वाली बात यह थी कि डॉ. मुखर्जी को माधोपुर से राज्य में प्रवेश करने पर लखनपुर में हिरासत में लिया गया था लेकिन उन्हें जम्मू की किसी जेल में रखने की बजाय क़रीब 500 किलोमीटर दूर श्रीनगर ले जाया गया। बताया जाता है कि वह रास्तें में ही बीमार पड़ गए और बीमारी की हालत में ही जीप में डालकर उन्हें श्रीनगर ले जाया गया। इतनी लंबी यात्रा उनकी सेहत के लिए घातक थी। परंतु जम्मू कश्मीर के पुलिस अधिकारी उन्हें श्रीनगर ले जाने के लिए अड़े रहे।

वस्तुतः पंजाब सरकार डॉ. मुखर्जी को माधोपुर में ही हिरासत में ले सकती थी, लेकिन उन्हें गुरुदासपुर के डिप्टी एसपी ने सूचित किया कि सरकार ने उन्हें जम्मू कश्मीर जाने की इजाज़त दे दी है। इसी बिना पर उन्हें पंजाब-जम्मू कश्मीर सीमा पार करने दिया गया। माधोपुर की बजाय लखनपुर में हिरासत में लेने का राज्य और केंद्र को यह लाभ हुआ कि एक लोकसभा सदस्य की गिरफ़्तारी पर भी सुप्रीम कोर्ट भी दख़ल नहीं दे सकता था, क्योंकि जम्मू कश्मीर राज्य तब देश की सबसे बड़ी अदालत की ज्यूरीडिक्शन से बाहर था।

डॉ. मुखर्जी को श्रीगनर में जिस जेल में रखा गया था, वह उस समय उजाड़ स्थान पर था और वहां से अस्पताल 15 किलोमीटर दूर था। श्रीनगर जेल में टेलीफोन की भी सुविधा नहीं थी। मृत्यु से पहले डॉ. मुखर्जी को अस्पताल में जिस गाड़ी में ले जाया गया उसमें जानबूझ कर उनके किसी और साथी को बैठने नहीं दिया गया। सबसे बड़ी बात यह कि डॉ. मुखर्जी की व्यक्तिगत डायरी को रहस्यमय ढंग से ग़ायब कर दिया गया। परिस्थितिजन्य साक्ष्यों से यह भी स्पष्ट होता है कि मुखर्जी को हिरासत में लेने के लिए भी किसी न किसी स्तर पर बड़ी साज़िश हुई थी।

सबसे बढ़कर, मुखर्जी के इलाज के तमाम दस्तावेज़ संदेहास्पद हालात में छिपा लिए गए। इन्हीं साक्ष्यों के आधार पर भारतीय जनसंघ समेत देश के कई गणमान्य लोगों ने मुखर्जी की मौत की जांच की मांग की। शेख अब्दुल्ला सरकार पर मुखर्जी की मौत में शामिल होने का शक बहुत गहरा था। इसीलिए जब आठ अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला को गिरफ़्तार किया गया तो कई लोगों ने यही माना कि उनकी गिरफ़्तारी मुखर्जी की मौत के सिलसिले में हुई, जबकि, दस्तावेज़ों के मुताबिक़, शेख अब्दुल्ला को कथित तौर पर कश्मीर को भारत से अलग करने की साज़िश रचने के आरोप में डिसमिस कर जेल में डाला गया था। बहरहाल, अब्दुल्ला की गिरफ़्तारी के बाद भी मुखर्जी की मौत की जांच के लिए न तो जम्मू कश्मीर सरकार न ही केंद्र सरकार तैयार हुई।

छह जुलाई जुलाई 1901 को कलकत्ता के मशहूर शिक्षाविद् आशुतोष मुखर्जी एवं जोगमाया देवी की संतान के रूप में जन्मे डॉ. मुखर्जी ने 1917 में मैट्रिक किया और 1921 में स्नातक और 1923 में लॉ की डिग्री लेने के बाद वह विदेश चले गये। 1926 में इंग्लैंड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। पिता का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी अल्पायु में ही स्टडी शुरू कर दी थी। महज़ 33 साल की अल्पायु में वह कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बनाए गए। एक विचारक और प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरंतर आगे बढ़ती गयी। वह 'इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ साइंस', बंगलौर की परिषद एवं कोर्ट के सदस्य और इंटर-यूनिवर्सिटी ऑफ़ बोर्ड के चेयरमैन भी रहे।

डॉ. मुखर्जी ने देशप्रेम का अलख जगाने के उद्देश्य से ही राजनीति में प्रवेश किया था। वह सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धांतवादी थे। वह वीर सावरकर से ख़ासे प्रभावित थे और उनके राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिंदू महासभा में शामिल हुए। तब मुस्लिम लीग की राजनीति से बंगाल का माहौल हिंसक हो गया था। वहां सांप्रदायिक विभाजन की नौबत आ गई थी। कम्युनल लोगों की ब्रिटिश सरकार मदद कर रही थी। इस विषम परिस्थिति में उन्होंने यह सुनिश्चित करने का बीड़ा उठाया कि बंगाल के हिंदुओं की उपेक्षा न हो। अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया।

डॉ. मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से सभी भारतीय एक हैं। हममें कोई अंतर नहीं। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। इसलिए धर्म के आधार पर विभाजन नहीं होना चाहिए। परंतु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने दूसरे रूप से प्रचारित-प्रसारित किया। बावजूद इसके लोगों के दिलों में उनके प्रति अथाह प्यार और समर्थन बढ़ता गया। अगस्त, 1946 में मुस्लिम लीग ने अपने ऐक्शन प्लान के तहत जंग की राह पकड़ ली और कलकत्ता में भयंकर बर्बरतापूर्वक अमानवीय मारकाट हुई।

ब्रिटेन की विभाजन की योजना और साज़िश कांग्रेस नेताओं ने अखंड भारत संबंधी अपने वादों को ताक पर रखकर स्वीकार कर लिया। तब मुखर्जी ने बंगाल और पंजाब के विभाजन की मांग उठाकर प्रस्तावित पाकिस्तान का विभाजन कराया और आधा बंगाल और आधा पंजाब खंडित भारत के लिए बचा लिया। महात्मा गांधी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वह केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हुए। उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। संविधान सभा और प्रांतीय संसद के सदस्य और केंद्रीय मंत्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किंतु उनके राष्ट्रवादी चिंतन के चलते नेहरू समेत दूसरे नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे। नेहरू और पाकिस्तानी पीएम लियाकत अली के बीच कथित तौर पर हिंदू विरोधी समझौते और पाकिस्तान के हिंदुओं के क़त्लेआम न रोक पाने के विरोध में छह  अप्रैल 1950 को उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था।

डॉ. मुखर्जी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन संघचालक गुरु गोलवलकर से सलाह करने के बाद 21 अक्तूबर 1951 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ की नींव रखी और इसके पहले अध्यक्ष बने। सन् 1952 के चुनावों में भारतीय जनसंघ ने संसद की तीन सीटों पर विजय प्राप्त की, जिनमें से एक सीट पर डॉ. मुखर्जी जीते। उन्होंने संसद में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाया जिसमें 32 सदस्य लोकसभा तथा 10 सदस्य राज्य सभा शामिल हुए।

बहरहाल, इस देश में किसी भी संदिग्ध मौत की केंद्रीय एजेंसी, एसआईटी या आयोग गठित करके जांच की लंबी परंपरा रही है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की कथित तौर पर हवाई दुर्घटना में मारे जाने की जांच के लिए तीन तीन आयोग बनाए गए, लेकिन डॉ. मुखर्जी के साथ घोर पक्षपात किया गया। प्रो. बलराज मोधक ने अक्टूबर 2008 में अपने एक लेख फाउंडिल ऑफ जनसंघ में कहा है कि डॉ. मुखर्जी की संदिग्ध मौत नेहरू और शेख़ के आशीर्वाद से हुई।

इस घटना को फ़िलहाल 63 साल हो गए। इस दौरान जम्मू-कश्मीर में कई सरकारें आईं और कई गईं। कई बार राज्य में राज्यपाल शासन भी रहा। इसी तरह दिल्ली में अनेक सरकारें बदली। जनसंघ के आधुनिक संस्करण भारतीय जनता पार्टी की भी सरकार रही, लेकिन किसी ने भी डॉ. मुखर्जी की संदिग्ध मौत से पर्दा उठाने का साहस नहीं किया। डॉ. मुखर्जी की मां जोगमाया देवी का नेहरु को लिखा गया पत्र दुर्भाग्य से अभी भी अपने उत्तर की तलाश कर रहा है।

सबसे विचित्र बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने दो साल के कार्यकाल में इस बारे में कोई पहल नहीं की। मोदी की सरकार की जम्मू-कश्मीर नीति कमोबेश कांग्रेस सरकार जैसी ही है। कांग्रेस की तरह बीजेपी भी वहां की क्षेत्रीय पार्टी पीपुल्स डेमोक्रिटक पार्टी के साथ सत्ता सुख भोग रही है। और तो और बीजेपी ने पीडीपी को लिखित रूप में आश्वासन दिया है कि केंद्र सरकार अनुच्छे 370 को जस का तस बनाए रखेगी यानी उससे कोई छोड़छाड़ नहीं किया जाएगा, जिसके लिए डॉ. मुखर्जी ने अपना बलिदान दिया। 

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