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मंगलवार, 7 जून 2016

कविता - बदलाव - हरिगोविंद विश्वकर्मा

बदलाव

क्या सचमुच चाहता है समाज
स्त्री-पुरुष को देखना समान
तो इसके लिए
कुछ नहीं करना
बस बेटी को बना होगा
उत्तराधिकारी परिवार का
सामाजिक रूप से ही नहीं
क़ानूनी तौर पर भी
चली आ रही है परंपरा
पता नहीं कितनी सदियों से
पुत्र को बनाने का उत्तराधिकारी
भेट चढ़ गई है स्त्री
इस पुरुष-प्रधान परंपरा की
बन गई है नागरिक
दोयम दर्जे की
अबला, पराया धन, बोझ
और पता नहीं क्या-क्या
कहा जाने लगा है स्त्री को
अगर करना है मुक्त
ग़ुलामी के एहसास से उसे
तो देना होगा उसे अधिकार
पिता की संपत्ति पाने का
बहुत ज़्यादा नहीं
केवल दस साल के लिए
हां, इन दस सालों
बेटा नहीं, केवल बेटी ही होगी
वारिस माता-पिता की
तभी होगा नारी का
सही मायने में सशक्तिकरण
और वह पहुंच जाएगी
पुरुष के बराबर
बिना किसी आरक्षण के
मानिए यकीन
तब हो जाएंगी हल
अपने आप समाज की
सारी समस्याएं
क्योंकि अपने स्वभाव के चलते
नारी नहीं करेगी
पुरुष के साथ भेदभाव
जैसा कि पुरुष अब तक
करता रहा है नारी के साथ

-हरिगोविंद विश्वकर्मा

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