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शनिवार, 30 जुलाई 2016

लोकगीत कजरी - कजरी सुनकर अपने आपको जीने लगते हैं हम

हरिगोविंद विश्वकर्मा
घिर-घिर आई बदरिया, सजन घर नाही रे रामा और धीमे धीमे बरसो से बदरिया सजन घर नही आयो रे रामा... देखिए, पूर्वांचल उत्तर प्रदेश के इस परंपरागत लोकगीत कजरी। यह खूबसूरत कजरी, इस गीत में नायिका जिसका पति परदेश में है, कि तरह अपने प्रियतम को मिस कर रही है। मसलन बादल घिर आए हैं, और रिमझिम बारिश भी हो रही है, मगर मेरे पास प्रियतम नहीं हैं, वह मुझसे बहुत दूर हैं।

इसी तरह हरे रामा नाचत मुरैला बाग देखन हम जाबै रे हरी!” पूर्वांचल उत्तर प्रदेश के इस परंपरागत लोकगीत कजरी को सुनकर हर कोई अपने गांव पहुंच जाता है। सावन के महीने में गांव में होने का अपना अलग मज़ा होता है। दरअसल, कजरी और सावन का चोलीदामन का संबंध है। मुंबई में पिछले 12 साल से कजरी महोत्सव हो रहा है और यह आयोजन रविवार की शाम (31 जुलाई 2014) से शुरू हो रहा है, जो 15 अगस्त तक चलेगा।

दरअसल, गगनचुंबी इमारतों वाले शहर मुंबई के बहुत व्यस्त और आपाधापी भरे जीवन में 3.13 और 5.15 की लोकल गाड़ी पकड़कर अपने घर या ऑफिस पहुंचने की मजबूरी ने मुंबई के लोगों को अपने आपसे ही दूर कर दिया है। लोग क्या थे और क्या हो गए...? ट्रैफिक से बचने के लिए कोस्टल रोड और फ्रीवे और समुद्र को चीरते सीलिंक की सुविधाओं में तलाशते मुंबई के लोग जीवन को सरल और सुविधा संपन्न बनाने के चक्कर में रात-दिन कठिनाई भरी राहम में चलने के लिए अभिशप्त होते हैं।

दरअसल, मुंबईकर, कंक्रीट के जंगल में मशीन जैसा जीवन जीने के अलावा और क्या कर रहे हैं। इस यंत्रवत और आर्टिफिशियल लाइफ में जीवन तो है नहीं। इसमें न लोग ख़ुद हैं, न ही उनकी परंपराएं। सच कहें तो इस तरह के तनाव भरे माहौल में रहते–रहते, जीते-जीते लोग जीना ही भूल गए हैं और जो जी रहे हैं, वह तो जीवन ही नहीं है। यानी लोग पैसे से हर सुख-सुविधाएं तो जुटा लेते हैं, लेकिन इस चक्कर में अपने नैसर्गिक जीवन ने दूर हो जाते हैं। जीने के यह नीरस सिलसिला जब ख़त्म होगा तो हमारे पर अपना असली जीवन जीने के लिए दिन ही नहीं होंगे।

ऐसे तनाव भरे माहौल में ख़ासकर बारिश की रिमझिम के बीच लोगों को अपने गांव की गलियों, चकरोट और कच्चे रास्तों पर ले जाती है कजरी। कजरी सुनकर अचानक याद आता है, अरे, हम कभी बचपन में गांव में होते थे, जहां सावन महीना शुरू होते ही गांवों में कजरी और झूलों की धूम मच जाती थी। कजरी सुनते-सुनते याद आता है, शाम को दोस्तों के साथ खलिहान में खेलना, धमाचौकड़ी करना। आहीपाही का खेल। चकरोच और पगडंडियों में बेतहाशा भागना। सुबह उठकर सानी-पानी करना। थन का ताजा दूध पीना। पेड़ों पर चढ़कर दातून तोड़ना। डाकिए का इंतज़ार करना, जो हमारे प्रियजनों की चिट्ठियां लाता था। इतना ही नहीं कजरी सुनते-सुनते है, एक बिछड़न सा महसूस करने लगते हैं, कि पड़ोस की भाभी कितने दर्द भरे गीत गाती हैं। कजरी में ये सारे इलिमेंट्स होते हैं। इसके अलावा कजरी में इंसानों ही नहीं मवेशियों का जिक्र, पक्षियों का कलरव, नदी-नाले और झरने का जिक्र होता है। सावन में पेड़-पौधे की हरियाली और उनकी घनी छांव कजरी में समाहित रहती है।

हालांकि बदलते परिवेश में सावन में गांवों में सुनाई देने वाले इन सदाबहार लोकगीतों के बोल धीरे धीरे गांव में ही मंद पड़ने लगे हैं। आधुनिकरण के दौर में गांवों के भी शहर में तब्दील होने की प्रक्रिया के चलते गांवों से भी यह गौरवशाली परंपरा विलुप्त सी हो रही है, लेकिन डेढ़ हज़ार किलोमीटर दूर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में यह परंपरा अब भी जीवित है। जी हां, मुंबई में हर साल सावन में कजरी महोत्सव हमें साल भर जीने के लिए पर्याप्त ऊर्जा तो दे ही देती है।

हमारे दिल को छूने वाली कजरी यूं तो पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय लोकगीतों में से है, लेकिन मिर्जापुर, बनारस और जौनपुर में इसकी एक विशिष्ट शैलियां विकसित हुईं जो कहीं-कहीं गांवों में आज भी देखने को मिलती हैं। कजरी लोकगीत की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि इसमें गांव का ही चित्रण होता है। गांव से जुड़ी छोटी-छोटी बातों, परंपराओं को कजरी में बहुत मार्मिक और प्रभावशाली ढंग से पिरोया जाता है, इसीलिए जब भी हम कजरी सुनते हैं तो ख़ुद-ब-ख़ुद ख़यालों खो जाते हैं। कजरी सुनते हुए धीरे-धीरे ऐसा लगने लगता है, हम फिर से अपना अतीत जी रहे हैं। यह सुखद एहसास बस कजरी ही देती है।

आधुनिकता, मोबाइल, इंटरनेट, फेसबुक और वाट्सअप के दौर में गांव की ढेर सारी बातें हमारी सोच से विस्मृत होती जा रही हैं। ऐसे में कजरी हमने हर साल भले एक महीने के लिए अपनी दुनिया में वापस तो ले आती है। इस तरह कजरी हमारे जीवन के हर पहलू को अंदर तक छू जाती है। दिल को छूने की इस गौरवशाली परंपरा में बड़ी संख्या में महिलाए जुटती हैं। मुंबई में उत्तरप्रदेश की सांस्कृतिक विरासत के सच्चे प्रतिनिधि बन गए सामाजिक संस्था अभियान के संस्थापक और मुंबई भाजपा के महामंत्री अमरजीत मिश्र अपनी व्यक्तिगत पहल से पिछले अभियान के बैनर तले 12 साल से देश की आर्थिक राजधानी में कजरी महोत्सव का आयोजन करते आ रहे हैं।

ऐसे समय जब इंद्र देवता इस पंचवटी भूमि पर खासे मेहरबान हैं और सावनी वातावरण जैसे खुशनुमा मौसम ने सावन से पहले ही लोगों का मन मोह लिया है, निश्चित तौर पर सावन की रिमझिम फुहारों के बीच इस बार मुंबई में रहनेवाले उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों पर कजरी की मीठी रसधार बरसेगी। मिर्ज़ापुर, उत्तरप्रदेश की मशहूर कजरी गायिका और पारंपरिक कजरी विधा की शीर्ष प्रतिनिधि मधु पांडेय और मुंबई के सदाबहार लोकगायक सुरेश शुक्ला अभियान के कजरी महोत्सव में अपनी गायिकी की छंटा बिखेरेंगे।

इस साल भी कजरी महोत्सव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ मुहिम को समर्पित है। उत्तर भारत की स्त्रियों में कजरी गाने और खेलने की परंपरार है। विभिन्न क्षेत्रों में आयोजित होनेवाले महोत्सव के दौरान समाज में अहम् योगदान करनेवाली चुनिंदा महिलाओं को रोज़ाना "स्त्री शक्ति सम्मान" दिया जाएगा। ताकि महिलाओं और बेटियों को उनकी तरह बनने की प्रेरणा मिले। इस वर्ष सफल स्त्री के सम्मान का अनोखा तरीका होगा। सम्मानित स्त्री के हाथों उसकी मां को अभियान का थैंक यू मां अकिंत स्मृति चिन्ह प्रदान किया जाएगा। यह सफल बेटी का मां के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का एक अनोखा तरीका होगा।

भारत की लोक संस्कृति का परंपराओं से गहरा और अटूट रिश्ता है। ऐसा ही पारंपरिक त्योहार कजरी तीज का है। भाद्रपद कृष्ण पक्ष तृतीया को संपूर्ण पूर्वी उत्तर प्रदेश में कजरी-तीज का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर सुहागिनें कजरी खेलने अपने मायके जाती हैं। महिलाएं नदी-तालाब आदि से मिट्टी लाकर उसका पिंड बनाती हैं और उसमें जौ के दाने बो देती हैं। नित्य-प्रति इसमें पानी डालने से पौधे निकल आते हैं। इन पौधों को कजरी वाले दिन लड़कियां अपने भाई तथा बुजुर्गों के कान पर रखकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करती हैं। इस प्रक्रिया को 'जरई खोंसना' कहते हैं। इसके एक दिन पूर्व यानि भाद्रपद कृष्ण पक्ष द्वितीया को 'रतजगा' का त्योहार होता है। इस अवसर पर पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश में उत्सव का माहौल रहता है। तीज के दिन महिलाएं झूले डालती हैं। महिलाएं रात भर कजरी खेलती हैं। सजी धजी महिलाएं सावन का आनंद लेती दिखाई देती हैं। भारतीय परंपरा में सावन आने का मतलब है सुहागनों के सजने संवरने के दिन। हाथों में हरी चूड़ियों और मेंहदी के साथ वे सावन मनाती हैं। कजरी खेलना और कजरी गाना दोनों अलग चीजें हैं। श्रद्धा उमंग और खुमारी के संगम से शुरू होने वाले इस महीने का चरम हरियाली तीज पर पहुंचकर समाप्त होता था

कजरी का आरंभ देवी वंदना से होता है। रतजगा में गायन के साथ हास-परिहास, नकल, जोगीरा तथा प्रात: स्नान से पूर्व पतियों का नाम लेकर गाने की परंपरा है। रचना विधान की दृष्टि से कजरी का नाम 'चौलर' या चौलीर है। चौलीर में पांच फूल और चार बंदिशें होती हैं, पांचवें फूल पर कजरी समाप्त हो जाती है। यह कजरी बिना वा यंत्रों के भी गाई जा सकती है। कजरी का दूसरा भेद है शायरी। यह भेद अपेक्षाकृत नया है। इसमें बंदिशों की संख्या निश्चित नहीं होती। इसे प्राय: पुरुष गाते हैं। गायक की आवाज तेज हो और साथ में ढोल-नगाड़े की थाप हो तभी इस कजरी की रंगत जमती है।

कजली यों तो पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश का लोकगीत है किंतु मिर्जापुर, बनारस और जौनपुर में इसकी विशिष्ट शैलियां विकसित हुईं जो आज भी मौजूद हैं। बड़ी पुरानी लोकोक्ति है- 'लीला राम नगर कै भारी कजरी मिर्जापुर सरनाम'। इससे कजरी का मिर्जापुर से संबंध स्पष्ट होता है कि कजरी की जन्मस्थली मिर्जापुर ही है। कजरी के जन्मदाता के रूप में राजा दानो राय का नाम लिया जाता है। उन्होंने कज्जला देवी (विंध्याचल देवी) की स्तुति के रूप में कजरी का आविष्कार किया। एक अन्य मान्यता के अनुसार दानो राय की मौत के बाद महिलाओं ने अपना दु:ख व्यक्त करने के लिए नए राग में जिस गीत की रचना की वही कजरी है। कजरी का आरंभ ज्येष्ठ मास के गंगा दशहरा से होता है। तीन मास-तेरह दिन तक कजरी गाने का विधान है। गंगा दशहरा से आरंभ होनेवाली यह गायन परंपरा नागपंचमी से लेकर कजरी तीज तक अपने चरमोत्कर्ष पर रहती है।


मिर्जापुर और बनारस की कजरी में शैली का अंतर स्पष्ट प्रतीत होता है। यद्यपि कजरी की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों में मतभेद नहीं है फिर भी इस बात पर सभी एकमत हैं कि कजरी का प्रचलन मिर्जापुर से ही बढ़ा। कजरी गायन क्षेत्र से जुड़े लोगों का मानना है कि कजरी का मायका मिर्जापुर और ससुराल बनारस में है। बनारस और मिर्जापुर में कजरी को पर्याप्त संरक्षण मिला, जिससे यह खूब विकसित हुई। बनारस के संगीतकारों ने इस क्षेत्र के प्रचलित लोकगीतों की तरह कजरी को भी शास्त्रीय सुरों में ढालकर उपशास्त्रीय गायन की एक नई विधा विकसित की जो काफी लोकप्रिय हुई। धीरे-धीरे इस लोकगीत की लोकप्रियता ग्राम्यांचलों में भी कम हो रही है। लोकसंगीत एवं लोकसंस्कृति के प्रमुख अंग के रूप में कजरी भी लुप्त होने के कगार पर है। इस लोक संस्कृति की रक्षा इससे जुड़ कर ही की जा सकती है।

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