Powered By Blogger

शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

डोनॉल्ड ट्रंप अगर चुने गए तो भारत के लिए ज़्यादा उपयोगी होंगे

हरिगोविंद विश्वकर्मा
अमेरिका में हो रहे राष्ट्रपति चुनाव को भारत के नज़रिए से देखें तो क़रीब चार दशक से आतंकवाद, ख़ासकर पाकिस्तान स्पॉन्सर्ड दहशतगर्दी, का दंश झेल रहे इस देश के लिए रिपब्लिकन पार्टी उम्मीदवार डोनॉल्ड जॉन ट्रंप डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन ज़्यादा उपयोगी होंगे, क्योंकि ट्रंप प्रत्याशी बनाए जाने से पहले से ही दुनिया से इस्लामिक  आतंकवाद को जड़ से कुचलने के लिए हर मुमकिन अभियान शुरू करने के पैरोकार रहे हैं।

वैसे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में इस बार भारत के साथ द्विपक्षीय संबंध अहम मुद्दा बनकर उभरा है। दुनिया के सबसे ताक़तवर व्यक्ति के चुनाव को भारत के परिपेक्ष्य में देखें तो ट्रंप का भारत के प्रति अप्रोच हिलेरी के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा सकारात्मक नज़र आ रहा है। इस्लामिक टेरॉरिज़्म को जड़ से कुचलने के नारे पर अपने देश की जनता का समर्थन पाने वाले ट्रंप कमोबेश भारत की चर्चा चुनाव प्रचार व प्रेसिडेंशियल डिबेट्स में भी कर रहे हैं और वह भारत को अमेरिका का नैचुरल अलाई मान रहे हैं।

सबसे हैरान करने वाली बात है कि डोलॉल्ड ट्रंप चुनाव में भारत और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशंसक के रूप में उभरे हैं। दरअसल, दुनिया भर के मुसलमानों के ख़िलाफ़ खुलेआम ज़हर उगलने वाले खरबपति ट्रंप जब चुनाव मैदान में उतरे तो उन्हें भारत विरोधी माना जा रहा था, लेकिन जिस तरह वह भारत और भारतीय को ग्रेट कंट्री ऐंड ग्रेट पीपल के रूप में संबोधित कर रहे हैं, उससे लगता है, अगर ट्रंप दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति बनकर ह्वाइट हाऊस पर क़ाबिज़ हुए तो भारत फ़ायदे में रह सकता है।

लास वेगस में हुए अमेरिकी राष्‍ट्रपति चुनाव के तीसरे और आखिरी डिबेट में ट्रंप ने अमेरिका की बदतर अर्थव्‍यवस्‍था के लिए कई साल से शासन करने वाली सीधे डेमोक्रेटिक पार्टी की नीतियों को जिम्‍मेदार ठहराया। इस संदर्भ में उन्‍होंने भारत की तेज़ विकास दर का हवाला देकर कहा, भारत आठ फ़ीसदी की जीडीपी की दर से आगे बढ़ रहा है और अमेरिका एक फ़ीसदी की दर के साथ पिछड़ रहा है। हिलेरी की योजना टैक्‍स को बढ़ाने की है और आपके टैक्‍स को दोगुना करने की है।

70 वर्षीय ट्रंप ने भारत को ग्रेट नेशन क़रार देते हुए कहा कि विश्व सभ्यता तथा अमेरिकी संस्कृति में विलक्षणयोगदान के लिए भारतीय समुदाय की वह प्रशंसा करते हैं। ट्रंप ने कहा, “वैश्विक सभ्यता और अमेरिकी संस्कृति में हिंदू समुदाय ने असाधारण योगदान दिया है। हम हमारे मुक्त उद्यम, कड़ी मेहनत, पारिवारिक मूल्यों और दृढ़ अमेरिकी विदेश नीति के साझा मूल्यों को रेखांकित करना चाहते हैं।

राष्ट्रपति पद पिछले दो चुनाव में यह पहली बार है जब कोई उम्मीदवार भारतीय अमेरिकी सार्वजनिक कार्यक्रम में शरीक हुआ। ट्रंप के फैसले को छोटे लेकिन शक्तिशाली भारतीय-अमेरिकी समुदाय को लुभाने की कोशिश के तौर पर देखा गया है। वैसे हिलेरी ने भी अपने प्रचार दल में बड़ी संख्या में भारतीय-अमेरिकी लोगों को नियुक्त किया है। हालंकि प्यू सर्वे के ताजा सर्वे में कहा गया है कि भारतीय अमेरिकी लोगों का झुकाव डेमोकेट्रिक पार्टी के पक्ष में अधिक है, लेकिन ट्रंप को भरोसा है कि भारतीय मूल के वोट उन्हें मिलेंगे।

इसके लिए ट्रंप काफ़ी होमवर्क किया और उन्होंने भारतीयों को साधने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जमकर तारीफ की है और वादा किया कि अगर सत्ता में आए तो भारत और अमेरिका 'बेस्ट फ्रेंड' बनेंगे। अपने चुनावी कैंपेन के दौरान पहली बार न्यू जर्सी में भारतीय समुदाय को संबोधित करते हुए ट्रंप ने मोदी के आर्थिक सुधारों की भी जमकर तारीफ़ की और कहा कि मोदी की वजह से ही भारत आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है।

डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय पीएम को 'महान शख्स' करार देते हुए कहा, ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन में भारत और अमेरिका सबसे अच्छे दोस्त बनेंगे, क्योंकि दोनों देश मुक्त व्यापार का समर्थन करते हैं। हम दूसरे देशों के साथ अच्छे व्यापारिक करार करेंगे। हम भारत के साथ बहुत सारा बिज़नेस करने वाले हैं। हम दोनों साथ में असाधारण भविष्य के साझीदार बनेंगे। ट्रंप ने मोदी का गुणगान करते हुए कहा कि वह ग्रेट लीडर हैं और वह उनकी तारीफ करते हैं। मोदी ने जो क़दम उठाए, वैसे ही क़दम अमेरिका में भी उठाए जाने ज़रूरी है।

भारत को अविश्वसनीय जनता का अविश्वसनीय देश करार देते हुए ट्रंप कहां, मैं हिंदुओं व भारत का बहुत बड़ा फैन हूं और ट्रंप ऐडमिनिस्ट्रेशन में भारतीय और हिंदू समुदाय वाइटहाउस में हमारे सच्चे दोस्त होंगे। हिंदुओं और इंडो-अमेरिकी लोगों की कई पीढ़ियों ने देश को मज़बूती दी है। भारतीय मूल के लोग कठोर परिश्रम और उद्यमी होते हैं। मेरा भारत में बहुत ज्यादा विश्वास है। 19 महीने पहले मैं वहां था और मैं वहां कई बार और जाने की दिशा में सोच रहा हूं।

इस्लामिक आतंकवाद को जड़ से कुचलने की दिशा में ट्रंप ने भारत को अपना दोस्त क़रार दिया है। ट्रंप ने कहा, इस्लामिक आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में भारत की भूमिका ज़बरदस्त रही हैं। हमारा शानदार दोस्त भारत कट्टरपंथी इस्लामिक आतंकवाद के ख़िलाफ़ अमेरिका के साथ है। भारत को आतंकवाद से ज़ख़्म ही ज़ख़्म मिला है। संसद पर हमला और मुंबई पर आतंकी हमला भारत कभी नहीं भूल सकता। मुंबई एक ऐसी जगह है, जिसे मैं प्यार करता हूं और समझता हूं।

चुनाव नतीजा चाहे जो हो लेकिन धरती के सबसे शक्तिशाली पद के लिए हो रहे चुनाव में ट्रंप को जिस तरह से जनता, ख़ासकर युवाओं का समर्थन मिल रहा है, वह नरेंद्र मोदी के प्रचार की याद दिलाता है, जब दो ढाई साल पहले सेक्यूलर पॉलिटिक्स करने वाली ताक़तों की हर कोशिश के बावजूद गठबंधन के दौर में भारतीय मतदाताओं ने बीजेपी को 282 सीटों का स्पष्ट बहुमत का तोहफ़ा दिया था। यहां सवाल उठता है कि क्या अमेरिकी जनता भी आजकल वैसा ही सोच रही है, जैसा पिछले आम चुनाव में भारत की जनता सोच रही थी?


अमेरिकी जनता दरअसल, ऐसा नेता खोज रही है जो कूटनीति में नहीं, धमकियों से बात करे। जो हर बात पर धौंस जमाने वाली बात करे। ट्रंप इस सांचे में एकदम फिट बैठ रहे हैं। माना जा रहा है कि ट्रंप राष्ट्रपति बन गए तो अमेरिका शांति का दूत नहीं, धौंस का हथियार बन जाएगा। कट्टरपंथी इस्लामी आतंकवाद को अमेरिका के सामने गंभीर समस्या मानते हुए ट्रंप मुस्लिमों का अमेरिका में प्रवेश अस्थायी तौर पर रोकने का बयान दे चुके हैं। ट्रंप ने कहा कि वह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ने में भारत और मुस्लिम देशों के साथ मिलकर काम करेंगे।

रविवार, 23 अक्तूबर 2016

क्या है मुलायम सिंह यादव की प्रेम-कहानी?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
निश्चित तौर पर प्रखर परिवारवादी और समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव अपने राजनीतिक जीवन के सबसे ज़्यादा संकट के दौर से गुज़र रहे हैं। देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार के महाभारत में उनका अपना बेटा ही उनके सामने खड़ा है। इस संकट के बीच उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी में जो कुछ हो रहा है, उससे यही लगता है कि मुलायम सिंह और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के रास्ते अलग-अलग हो गए हैं। देश के सबसे बड़े सूबे में शासन करने वाली पार्टी में जो घमासान चल रहा है, उसे दो तीन महीने पुराना मामला मानना भारी भूल होगी। इसकी जड़ें महीने-दो महीने या साल दो साल नहीं बल्कि तीन दशक से ज़्यादा पुरानी हैं।
                                                                                           
इतना ही नहीं, जो लोग समाजवादी पार्टी में मौजूदा कलह को चाचा-भतीजे यानी अखिलेश यादव और उनकी टीम में सर्वाधिक ताक़तवर मंत्री रहे शिवपाल यादव के बीच की वर्चस्व की लड़ाई मानकर चल रहे हैं, वे यक़ीनन भारी ग़लतफ़हमी में हैं। दरअसल, शतरंज के इस खेल में शिवपाल तो महज़ एक मोहरा भर हैं, जिन्हें अपने बड़े बेटे पर अंकुश रखने के लिए नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव इस्तेमाल कर रहे हैं। सबसे अहम बात यह कि मुलायम अपनी इच्छा से यह सब नहीं कर रहे हैं, बल्कि उनसे यह सब करवाया जा रहा है। मुलायम जैसी शख़्सियत से यह सब कराने की क्षमता किसके पास है। यह भी समझने की बात है।

सबसे अहम बात यह कि मुलायम के जिगरी दोस्त राज्यसभा सदस्य और पॉलिटिकल मैनेजर ठाकुर अमर सिंह इस मामले पर पूरी तरह ख़ामोश हैं, फिर भी समाजवादी पार्टी के मौजूदा संकट में उनका नाम बार-बार आ रहा है। ऐसे परिवेश में आम लोगों के मन में सहज सवाल उठना लाज़िमी है कि आख़िर अखिलेश यादव अपने पिता के अभिन्न मित्र से इतना चिढ़ते क्यों हैं। इसका उत्तर जानने के लिए अस्सी के दौर में जाना पड़ेगा, जब समाजवादी पार्टी या जनता दल का अस्तित्व नहीं था और तब मुलायम सिंह यादव लोकदल के नेता हुआ करते थे।

1967 में बतौर विधान सभा सदस्य राजनीतिक सफ़र शुरू करने वाले मुलायम सिंह अस्सी के दशक तक राज्य के बहुत प्रभावशाली और शक्तिशाली नेता बन गए। चौधरी चरण सिंह के बाद संभवतः वह उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग और यादवों के सबसे ज़्यादा कद्दावर नेता हैं। राजनीतिक सफ़र में नेताओं के जीवन में महिलाएं आती रही हैं। जब मुलायम उत्तर प्रदेश के शक्तिशाली नेता के रूप में उभरे तो उनके जीवन में अचानक उनकी फ़िलहाल दूसरी पत्नी साधना गुप्ता की एंट्री हुई।

मुलायम सिंह और साधना गुप्ता की प्रेम कहानी कब शुरू हुई, इस बारे में अधिकृत ब्यौरा किसी के पास नहीं है। कहा जाता है कि 1982 में जब मुलायम लोकदल के अध्यक्ष बने तब एक दिन उनकी नज़र अचानक पार्टी की नई युवा पदाधिकारी साधना पर पड़ी। 20 साल की तरुणी साधना इतनी ख़ूबसूरत कि जो भी उन्हें देखता, बस देखता ही रह जाता था। मुलायम भी अपवाद नहीं थे। पहली मुलाक़ात में वह उम्र में 23 साल छोटी साधना गुप्ता को दिल दे बैठे। यहीं से मुलायम-साधना की अनोखी प्रेम कहानी शुरू हुई, जो तीस-बत्तीस साल बाद अंततः देश के सबसे ताक़तवर राजनीतिक परिवार में विभाजन की वजह बन रही है।

अस्सी के दशक में साधना गुप्ता और मुलायम सिंह के बीच क्या चल रहा है, इसकी भनक लंबे समय तक किसी को नहीं लगी। मुलायम के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति वाले मामले की जांच के दौरान सीबीआई की स्टेट्स रिपोर्ट में दर्ज है कि साधना गुप्ता और फर्रुखाबाद के चंद्रप्रकाश गुप्ता की शादी 4 जुलाई 1986 को हई थी। अगले साल 7 जुलाई 1987 को प्रतीक गुप्ता (अब प्रतीक यादव) का जन्म हुआ था। बहरहाल, 1962 में जन्मी औरैया जिले की साधना गुप्ता का मुलायम के चलते पति चंद्रप्रकाश गुप्ता से साल 1990 में औपचारिक तलाक हो गया। इसी दौरान 1987 में साधना ने एक पुत्र प्रतीक गुप्ता  को जन्म दिया। कहते हैं कि साधना गुप्ता के साथ प्रेम संबंध की भनक मुलायम की पहली पत्नी और अखिलेश की मां मालती देवी को लग गई। वह बहुत ही आकर्षक और दान-धर्म में यक़ीन करने वाली महिला थीं। यहां यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि मुलायम का पूरा परिवार अगर एकजुट बना रहा है तो इसका सारा श्रेय मालती देवी को ही जाता है। मुलायम राजनीति में सक्रिय थे। उस दौरान वे एक-दूसरे को शायद ही कभी-कभार देख पाते थे, लेकिन मालती देवी अपने परिवार और 1973 में जन्मे बेटे अखिलेश यादव का पूरा ख़्याल रख रही थीं।

नब्बे के दशक (दिसंबर 1989) में जब मुलायम मुख्यमंत्री बने तो धीरे-धीरे बात फैलने लगी कि उनकी दो पत्नियां हैं, लेकिन वह इतने ताक़तवर नेता थे कि किसी की मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं पड़ती थी। अलबत्ता सीबीआई को प्रतीक के एक रिकॉर्ड से पता चला है कि उन्होंने 1994 में अपने घर का पता मुलायम के आधिकारिक निवास को बताया था। बहरहाल, नब्बे के दशक के अंतिम दौर में अखिलेश को साधना गुप्ता और प्रतीक गुप्ता के बारे में पता चला। उन्हें यकीन नहीं हुआ, लेकिन बात सच थी। उस समय मुलायम साधना गुप्ता की कमोबेश हर बात मानने लगे थे। इसीलिए मुलायम के शासन (1993-2007) में साधना गुप्ता ने अकूत संपत्ति बनाई। आय से अधिक संपत्ति का उनका केस आयकर विभाग के पास लंबित है। बहरहाल, 2003 में अखिलेश की मां मालती देवी का बीमारी से निधन हो गया और मुलायम का सारा ध्यान साधना गुप्ता पर आ गया। हालांकि वह इस रिश्ते को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे।

मुलायम और साधना के संबंध की जानकारी मुलायम परिवार के अलावा अमर सिंह को थी। मालती देवी के निधन के बाद साधना चाहने लगी कि मुलायम उन्हें अपनी आधिकारिक पत्नी मान लें, लेकिन पारिवारिक दबाव, ख़ासकर अखिलेश यादव के चलते मुलायम इस रिश्ते को कोई नाम नहीं देना चहते थे। इस बीच साधना 2006 में गुप्ता अमर सिंह से मिलने लगीं और उनसे आग्रह करने लगीं कि वह नेताजी को मनाएं। लिहाज़ा, अमर सिंह नेताजी को साधना गुप्ता और प्रतीक गुप्ता को अपनाने के लिए मनाने लगे। 2007 में अमर सिंह ने सार्वजनिक मंच से मुलायम से साधना को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने का आग्रह किया और इस बार मुलायम उनकी बात मानने के लिए तैयार हो गए।

जो भी हो, अमर सिंह के बयान से मुलायम परिवार में फिर खलबली मच गई। लोग साधना को अपनाने के लिए तैयार ही नहीं थे। बहरहाल, अखिलेश के विरोध को नज़रअंदाज़ करते हुए मुलायम ने अपने ख़िलाफ़ चल रहे आय से अधिक संपत्ति से संबंधित मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट में एक शपथपत्र दिया, जिसमें उन्होंने साधना गुप्ता को पत्नी और प्रतीक को बेटे के रूप में स्वीकार कर लिया। उसके बाद साधना गुप्ता साधना यादव और प्रतीक गुप्ता प्रतीक यादव हो गए। अखिलेश ने साधना गुप्ता के अपने परिवार में एंट्री के लिए अमर सिंह को ज़िम्मेदार माना। तब से वह अमर सिंह से चिढ़ने लगे थे। वह मानते हैं कि साधना गुप्ता और अमर सिंह के चलते उनके पिताजी ने उनकी मां के साथ न्याय नहीं किया।

बहरहाल, मार्च सन् 2012 में मुख्यमंत्री बनने पर अखिलेश यादव शुरू में साधना गुप्ता को कतई घास नहीं डालते थे। इससे मुलायम नाराज़ हो गए और अखिलेश को झुकना पड़ा। इस तरह साधना गुप्ता ने मुलायम के ज़रिए मुख्यमंत्री पर शिकंजा कस दिया और अपने चहेते अफ़सरों को मनपसंद पोस्टिंग दिलाने लगीं। द संडे गार्डियनने सितंबर 2012 में साधना गुप्ता की सिफारिश पर मलाईदार पोस्टिंग पाने वाले अधिकारियों की पूरी फेहरिस्त छाप दी, तब साधना गुप्ता पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आईं।

अब यह साफ़ हो गया है कि मुलायम की विरासत को लेकर चल रहे मौजूदा संघर्ष में अखिलेश की लड़ाई सीधे लीड्स यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने वाले अपने सौतेले भाई प्रतीक यादव से है। लखनऊ में रियल इस्टेट के बेताज बादशाह बन चुके प्रतीक को अपनी माता साधना गुप्ता का समर्थन मिल रहा है। चूंकि साधना नेताजी के साथ रहती हैं और उनकी बात मुलायम टाल ही नहीं सकते। यानी कह सकते हैं कि बाहरवाली से घरवाली बनी साधना गुप्ता की बात टालना फ़िलहाल मुलायम सिंह के वश में नहीं है।

लखनऊ के गलियारे में साधना गुप्ता को कैकेयी कहा जा रहा है। आमतौर पर परदे के पीछे रहने वाली साधना अखिलेश से तब से बहुत ज़्यादा नाराज़ चल रही हैं, जब अखिलेश ने उनके आदमी गायत्री प्रजापति को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया। दरअसल, प्रतीक के बहुत ख़ासमख़ास गायत्री प्रजापति को मुलायम के कहने पर खनन जैसा मलाईदार महकमा दिया गया था। यह विभाग हुक्मरानों को हर महीने दो सौ करोड़ की अवैध उगाही करवाता है। जब इसकी भनक अखिलेश को लगी तो वह प्रतीक के रसूख और कमाई के स्रोतों पर हथौड़ा चलाने लगे। यह बात साधना को बहुत बुरी लगी। नाराज़ साधना गुप्ता को मनाने के लिए ही मुलायम ने पार्टी प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी अखिलेश से छीनकर साधना खेमे के शिवपाल यादव को दे दी। अब उसी के चलते बाप-बेटे यानी अखिलेश और मुलायम आमने-सामने आ गए हैं।

इटावा जिले के सैफई में 22 नवंबर, 1939 को स्व. सुघर सिंह यादव और स्व. मूर्ति देवी के यहां जन्में और पांच भाइयों में तीसरे नंबर के मुलायम सिंह यादव तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उत्तर प्रदेश के लिए कुछ नहीं किया। उन्होंने कुछ किया तो केवल और केवल अपने परिवार के लिए किया। परिवार को उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक रूप से इतना ताक़तवर बना दिया है कि आने वाले साल में उनके कुटुंब के सैकड़ों लोग सांसद या विधायक होंगे। फ़िलहाल मुलायम समेत उनके परिवार में छह सांसद और तीन विधायक समेत 21 लोग महत्वपूर्ण पदों पर क़ाबिज़ हैं। भारतीय राजनीति में वंशवाद का तोहमत कांग्रेस पर लगता है, लेकिन यूपी में मुलायम परिवार ने कांग्रेस को मीलों पीछे छोड़ दिया है।

बहरहाल, इस मुद्दे पर मुलायम सिंह को समर्थन नहीं मिलने वाला, क्योंकि उन्होंने मुसलमानों को ख़ुश करने और अपने परिवार के ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को राजनीति में प्रमोट करने के अलावा कुछ नहीं किया। समाजवादी पार्टी के संस्थापक भी वह भले हों, लेकिन इस पार्टी का भविष्य अखिलेश यादव ही हैं। 2012 के विधान सभा चुनाव में पार्टी को जो जनादेश मिला था, वह मायावती की स्टैट्यू पॉलिटिक्स की नाराज़गी और अखिलेश की ज़मीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं में जान फूंकने से मिला था। राजनीतिक टीकाकार मानते हैं कि मुलायम सिंह यादव के लिए बेहतर होगा कि वह अखिलेश खेमे में रहे, क्योंकि शिवपाल-साधना की इमेज राज्य में अच्छे नेता की नहीं है। आम धारणा भी यही है, कि लूट-खसोट करने के आदी हो चुके शिवपाल-साधना के नैक्सस ने अखिलेश को स्वतंत्र रूप से काम ही नहीं करने दिया।

रविवार, 9 अक्तूबर 2016

अरविंद केजरीवाल - क्या ब्लंडर ने बनाया राष्ट्रीय खलनायक?

किसी भी इंसान को, चाहे वह जिस भी प्रोफेशन में हो, इमेज बनाने में कई साल क्या, कभी-कभी कई दशक लग जाते हैं। कई लोग तो थोड़ी बहुत अच्छी इमेज बनाने में पूरी ज़िंदगी खपा देते हैं। कहने का मतलब, आदमी सालों-साल मेहनत और ईमानदारी से काम करता है, तब जाकर उसकी अच्छे व्यक्ति की इमेज बनती है। उसे एक पहचान मिलती है, लेकिन इतनी मेहनत से बनाई गई इमेज या पहचान को मटियामेट होने में पल भर भी नहीं लगता।

दरअसल, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के साथ आजकल ऐसा ही कुछ हो रहा है। भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगने से आजकल उनकी इमेज राष्ट्रीय खलनायक की बन गई है? जो लोग फेसबुक या ट्विटर जैसे सोशल मीडिया या वॉट्सअप जैसे फोरम से जुड़े हैं, और इन पर पोस्ट हो रही सामग्रियों को नियमित रूप से चेक करते हैं,  क्‍या उन्‍हें गवाह माना जा सकता है कि वाक़ई केजरीवाल इस समय देश के नंबर एक विलेन बन गए हैं?

सोशल वेबसाइट्स पर इन दिनों जितनी नकारात्मक और आपत्तिजनक चुटकुले, कविताएं, व्यंग्य, विचार और दूसरी सामग्रियां केजरीवाल के लिए धड़ल्ले से पोस्ट की जा रही हैं, उस तरह की नकारात्मक सामग्री या विचार कभी किसी दूसरे भारतीय नेता के ख़िलाफ़ नहीं बनाई गई। ऐसा लगता है, पूरा सोशल मीडिया एंटी-केजरीवाल हो गया है।

केजरीवाल के ख़िलाफ़ हो रही टिप्पणियों के लिए चौबीसों घंटे ‘भक्त-भक्त’ और ‘संघ-संघ’ अलापने वाले तथाकथित सेक्युलर, इंटलेक्चुअल्स, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और बीजेपी की धारदार मार्केटिंग को ज़िम्मेदार ठहरा सकते हैं, लेकिन यह अर्द्धसत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि इन दिनों वाक़ई केजरीवाल के बारे में हर दस पोस्ट में से नौ से ज्यादा पोस्ट उनके ख़िलाफ़ होते हैं, जबकि बमुश्किल एक पोस्ट उनका समर्थन करता या उन्हें डिफेंड करता दिखता है।

पहले ऐसा बिलकुल नहीं था। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद दस पोस्ट में आठ केजरीवाल के पक्ष में और दो विपक्ष में होते थे। आप में फूट और केजरीवाल की गाली सार्वजनिक होने के बाद भी दस पोस्ट में पांच उनके पक्ष और पांच विपक्ष होने लगे थे। केजरीवाल के भ्रष्ट लोगों का समर्थन करने और आम मंत्रियों-नेताओं की गिरफ्तारी के बाद भी उनके पक्ष में दस में से चार पोस्ट तो होते ही थे, लेकिन सितंबर में सेना के सर्जिकल का मसला केजरीवाल के लिए आत्मघाती साबित हो रहा है, क्योंकि उनकी लोकप्रियता के आंकड़े चिंताजनक हैं।
सवाल यह है कि अरविंद केजरीवाल के इतने विरोधी कहां से पैदा हो गए?  क्या सर्जिकल स्ट्राइक की सबूत मांगकर केजरीवाल ने वाक़ई ब्लंडर कर दिया? सबसे बड़ी बात कि केजरीवाल के बारे में यह मूड राजधानी दिल्ली से बाहर का है। मुमकिन है सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगने की केजरीवाल की बात दिल्ली के लोगों को भी बुरी लगी होगी, क्योंकि दिल्ली देश का ही हिस्सा है और दिल्ली के लोग भी संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दों पर पूरे देश की तरह ही सोचते हैं।

अगर देश की तरह दिल्ली के लोगों का ऐसा हुआ तो दिल्ली के मुख्यमंत्री के लिए यह सबसे बुरी ख़बर होगी। उनका जो भी जनाधार है, वह दिल्ली में ही है। ऐसे में दिल्ली के लोगों का नाराज़ होना केजरीवाल के लिए आत्मघाती हो सकता है। ज़ाहिर सी बात है, भारतीय सेना के सर्जिकल स्ट्राइक पर पाकिस्तानी लाइन का अनुकरण करते हुए केजरीवाल का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सबूत मांगना, उसके लिए बहुत भारी पड़ गया और उनकी वर्षों की बनाई इमैज को मटियामेट कर दिया।
इसमें दो राय नहीं कि समाजसेवी अण्णा हज़ारे के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जन आंदोलन के समय अरविंद हीरो थे। भ्रष्टाचार से परेशान आम आदमी ने उन्हें नायक का दर्जा दे दिया था, इसीलिए उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव में अभूतपूर्व जनादेश मिला, लेकिन सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में अपरिपक्व बयान देकर केजरीवाल ने जीवन भर की कमाई गंवा दी।

कभी-कभी लगता है कि संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दों पर देश का पॉलिटिकल और इंटलेक्चुअल क्लास अभी परिपक्व नहीं हुआ है। सेना की कार्रवाई का सबूत मांगना उसी अपरिपक्वता को दर्शाता है। दुनिया का हर देश संकट या युद्ध के समय दलगत भावना से ऊपर उठकर एक रहता है, लेकिन भारत में आज भी संवेदनशील मसले पर नेता लेफ़्ट-राइट करते दिखते हैं।

यहां अमेरिका का ज़िक्र करना उचित होगा। शायद लोगों को याद हो, अमेरिका में जब 2001 में आतंकी हमला हुआ था, तो पूरा देश एक होकर अपनी सरकार और जॉर्ज डब्ल्यू बुश के साथ खड़ा था। अपेक्षाकृत उदार अमेरिका में भी उस समय किसी ने सरकार या ख़ुफिया विभाग पर असफल होने का आरोप नहीं लगाया। इसका पॉज़िटिव रिज़ल्ट यह हुआ कि ह्वाइट हाउस को आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने की ताक़त मिली। अमेरिकी सैनिक भी पूरी ताक़त से यह सोचकर लड़े कि उनके देश का हर नागरिक उनके साथ है। यह राष्ट्रीय एकता का गजब की मिसाल थी, जिसका फ़ायदा अमेरिका को मिला।

हमारे देश में तस्वीर उलटी है। यहां अति संवेदनशील राष्ट्रीय मुद्दों भी राजनीतिक विचारधारा के मुताबिक़ अलग-अलग तरीक़े से डिफाइन किया जाता है। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कार्रवाई पर भी राजनीतिक दल एक मत नहीं है। सेना ने आतंकवादियों और उनके शिविर को नष्ट करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक किया, तो उस पर भी राजनीति शुरू है। यहां इस अहम मुद्दे का राजनीतिकरण करने के लिए केवल विपक्ष को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। सत्तारूढ़ बीजेपी और उसके नेता कम ज़िम्मेदार नहीं। बेशक सर्जिकल स्ट्राइक का क्रेडिट नरेंद्र मोदी को दीजिए क्योंकि वह देश के प्रधानमंत्री हैं। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को किस आधार पर क्रेडिट दिया जा रहा है, यह समझ से परे है।

खैर,  बात हो रही थी केजरीवाल की। उनके ऊपर आजकल जितनी आपत्तिजनक सामग्री लिखी जा रही हैं, इससे लगता है उनके प्रति पूरे देश में गहरा आक्रोश हैं। दरअसल, केजरीवाल ने सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत उस समय मांग लिया जब पाकिस्तान भारतीय सेना के ऐक्शन को सिरे से ख़ारिज़ कर रहा था, इसीलिए केजरीवाल के बयान को देश के आम लोगों ने माना कि दिल्ली के मुख्यमंत्री तो पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं।

मीडिया में आई खबरों पर गौर भी किया जाए तो बयान के बाद ही केजरीवाल पाकिस्‍तानी मीडिया में जहां हीरो बन गए, वहीं राष्‍ट्रीय मीडिया में वे खलनायक के रूप में सामने आए!  देखा जाए तो पूरी आम आदमी पार्टी और खुद अरविंद केजरीवाल को भी अपने बयान को लेकर अब अफसोस हो रहा होगा, क्‍योंकि बेहद छोटे राजनीतिक कॅरियर में उन्‍होंने खुद से भी इस तरह की पॉलिटिकल ब्‍लंडर की अपेक्षा नहीं की होगी।

दरअसल, वे खुद भी समझ रहे होंगे की जो कांग्रेस इस मुद्दे पर अपने दिग्‍गज नेताओं से दूरी साध रही थी, तो कम से कम से उन्‍हें अपने स्‍टेटमेंट की टाइमिंग पर सोचना चाहिए था। चुनावों से पहले आप को इस पर मंथन करना होगा और अपने एकमात्र राष्‍ट्रीय चेहरे की इमेज बिल्‍डिंग जरूर करनी होगी, वरना मीडिया से खड़े हुए नेता और पार्टी, दोनों को ही सोशल मीडिया के  आभासीय यथार्थ का पता तो जरूर होगा।

जहां तक सर्जिकल स्ट्राइक की बात है तो समझा जाता है कि सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक का फ़ैसला इसलिए भी लिया था, क्योंकि उसे देश में लोगों के मन में पनप रहे अविश्वास को दूर करना था। उरी आतंकी हमले में डेढ़ दर्जन जवानों की मौत में बाद देश में निराशा का माहौल था। लोगों को लगने लगा था कि आतंकवादी और पाकिस्तान वाक़ई बेलगाम हो गए हैं। जब वे सेना पर हमला करने से नहीं डर रहे हैं तो निहत्थे नागरिकों की क्या औक़ात है? इसलिए लोगों की चिंता को दूर करने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक किया गया और देश का बताया गया कि अपनी सेना पर भरोसा रखें, अगर ज़रूरत पड़ी तो सैनिक पाकिस्तानियों को उनके घर में घुसकर मारने में सक्षम हैं।

अकसर लोग सोचते होंगे कि नेता देशविरोधी बातें क्यों करते हैं? दरअसल, नेताओं के लिए सेना और सीमा कोई ख़ास मायने नहीं रखती। सेना और सीमा किसी देश के नागरिकों के लिए सर्वोपरि होती होती है। लोग उम्मीद करते हैं कि कोई सरकार कुछ करे या न करे कम से कम सरहद को अक्षुण्ण रखेगी। किसी भी मुल्क में देशप्रेम की भावना केवल जनता में होती है। सरहदों से जनता का भावनात्मक लगाव होता है, इसलिए जनता देश की सीमा कम होने के बारे में सोच ही नहीं पाती। पॉलिटिकल क्लास जब तक जनता के रूप में सोचता है, तब उसे सीमाओं से लगाव होता है, लेकिन जब वह सत्ता के बारे में सोचता है तब सीमाओंसे उसका लगाव ख़त्म हो जाता है।

दरअसल, देश के बंटवारे का असर नेताओं पर नहीं होता। किसी भी राष्ट्र का इतिहास देखें, देश हमेशा पॉलिटिकल क्लास यानी सत्तावर्ग बांटता आया है। यही सोच 1947 में भी थी। ताओं का सीमाओं या देश से लगाव होता तो 1947 में विभाजन के समय एकाध नेता को हार्टअटैक आता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आमतौर पर दिल की बीमारी के कारण मरने वाले नेताओं में से किसी को देश के विभाजन के समय दिल का दौरा नहीं पड़ा। जो लाखों लोग मरे वे जनता के बाच के थे। यानी आज़ादी के समय नेता जनता के प्रतिनिधि होते तो देश कभी न बंटने देते। कहते, शासक कोई भी हो, देश धर्म के आधार पर नहीं बंटेगा।


मजेदार बात यह है कि तीन जून उन्नीस सौ सैंतालीस को दो राष्ट्र की अवधारणा मोहम्मद अली जिन्ना ने ही नहीं; महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, जेबी कृपलानी ने भी मंज़ूर की। ये लोग सत्तावर्ग के लोग थे, उन्हें सत्ता चाहिए थी। उसे ले लिया। देश से कोई सरोकार ही नहीं था। वही सोच आज भी है। इसीलिए लोग सेना की कार्रवाई को भी वोटबैंक के चश्मे से देखते हैं। इसीलिए सेना के काम का श्रेय नेता ले रहे हैं, जो नहीं ले पा रहे हैं पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं यानी सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांग रहे हैं। चाहे वे केजरीवाल हों, संजय निरुपम हो, दिग्विजय सिंह हों या भक्त की उल्टी करने वाले वामपंथी बुद्धिजीवी। 

सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

पर्यटन पत्रकारिता - श्रीनगर में चार दिन रहकर कश्मीर समस्या पर लिखना ख़तरनाक ट्रेंड

हरिगोविंद विश्वकर्मा
लेखकीय धर्म यह है कि जब तक आप किसी टॉपिक या सब्जेक्ट को पूरी तरह समझ न लें और मसले के हर ऐंगल को क्रॉस चेक न कर लें, तब तक उस पर लिखने की कोशिश न करें। किसी विषय को बिना समझे या बिना जाने उस पर लिखना ब्लंडर से कम नहीं। ख़ासकर अगर वह टॉपिक या सब्जेक्ट बेहद संवेदनशील हो और सीधे राष्ट्रीय हित से जुड़ा हो, तब तो बिना इतिहास पर नज़र डाले अंदाज़ लगाकर या केवल स्थानीय लोगों से बातचीत कर या फिर किसी वेस्टेड इंटरेस्ट वाले व्यक्ति से मिली सूचना के आधार पर तो कतई कुछ मत लिखिए या मत बोलिए। इससे अर्थ का अनर्थ होने की पूरी गुंज़ाइश रहती है। इससे बतौर लेखक आपकी साख़ पर भी बहुत बुरा असर पड़ सकता है।

भारत में इन दिनों इस तरह का लेखन धड़ल्ले से हो रहा है। फ़ैशन की तरह। जम्मू-कश्मीर का इतिहास-भूगोल न जानने वाले लोग भी कश्मीर पर अकसर लेख लिखने लगे हैं। अख़बार हो, सोशल मीडिया या फिर कुछ साल से फ़ैशन में आया वॉट्सअप, हर फोरम पर लोग धड़ल्ले से क़रीब तीन दशक पुरानी इस समस्या पर लिख रहे हैं। सबसे दुर्भाग्य की बात है कि कश्मीर और कश्मीर समस्या पर ज़्यादातर वे ही लोग लिख रहे हैं जो कभी वहां रहे ही नहीं। कई ऐसे उत्साही लोग भी मिल जाएंगे, जो कश्मीर घूमने जाते हैं और घूमने को जस्टीफाई करने के लिए स्थानीय लोगों से बातचीत के आधार पर भावुक होकर लंबी रिपोर्ट या लेख लिख मारते हैं।

कश्मीर में दो-चार दिन रहकर उस पर लिखने वालों में कई लोग अपने आपको मानवाधिकार के प्रवक्ता के रूप में पेश करते हैं। ऐसे लोग और भी ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं, क्योंकि ये घाटी में स्थानीय लोगों की आंखों में कृत्रिम आंसू देखकर भावुक हो जाते हैं और भावुकता में कभी-कभार या अकसर प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के नाम चिट्ठी लिख देते हैं। चूंकि ये बड़े नाम होते हैं, इसलिए एक बार तो देश के बाक़ी लोग इनके बहकावे में आ ही जाते हैं और इनकी सूचना को सच मानकर कहने लगते हैं - कश्मीर में वाक़ई हालात बहुत ख़राब हैं। वहां भारतीय सशस्त्र सेना वास्तव में खलनायक के रूप में है और स्थानीय लोगों का क़त्लेआम कर रही है, मासूम बच्चों की आंख फोड़ रही है, युवकों की हत्याएं कर रही है और महिलाओं से बलात्कार कर रही है।

दरअसल, यह उसी तरह का मामला है, जैसे कोई बड़ा नेता किसी गंदी बस्ती के विज़िट का प्रोग्राम बनाता है। जब वह निर्धारित समय पर वहां पहुंचता है, तो उसे वहां गंदगी दिखती ही नहीं। वस्तुतः कार्यक्रम बनते ही संबंधित अधिकारीगण रातोंरात उस जगह की साफ़-सफ़ाई करवा देते हैं और चूना वगैरह डलवा कर इलाके को चमका देते हैं। इतना ही नहीं, दौरा करने वाले नेता से बातचीत करने के लिए आर्टिफिशियल आदमी खड़ा कर देते हैं। नेता के सामने वह आर्टिफिशियल आदमी गजब का अभिनय करता है। वह बस्ती का ऐसा वर्णन करता है कि वहां रहने वाला भी न कर पाए। मतलब, नौकरशाही के चक्कर में नेता गंदी बस्ती की असलियत जानने से वंचित रह जाता है।

यही हाल श्रीनगर में चार दिन ठहरने वालों का होता है। कल्पना कीजिए, जिस राज्य में पहाड़ पर रहने वाले लोगों तक पहुंचने के लिए चढ़ने में पूरा दिन का दिन निकल जाता हो, वहां चार दिन में आप कितने लोगों से मिलेंगे और सूबे के बारे में कितना जान पाएंगे। चार दिन में तो आप किसी छोटी-सी बस्ती को भी जान नहीं पाएंगे। ऐसे में एक लाख (1,01,387) वर्ग किलोमीटर से ज़्यादा क्षेत्रफल वाले राज्य और वहां के लोगों की समस्या कितनी जान पाएंगे, यह कोई सहज कल्पना कर सकता है। ज़ाहिर है, आप भी उन्हीं लोगों की तरह आउट ऑफ एजेंडा हो जाएंगे, जो लोग कश्मीर समस्या को हल करने में लंबे समय से पसीना बहा रहे हैं और समस्या है कि 1947 से ही हल नहीं हो रही है।

दरअसल, कश्मीर में चार दिन रह कर ऐसी ही रिपोर्ट बनाने वाले एक बहुत सीनियर पत्रकार ने बिना एक पल सोचे तपाक् से कह दिया, -"राज्य में 6 साल से लेकर 80 साल तक के सभी नागरिक एक सुर से आज़ादी की मांग कर रहे हैं। वे भारत में रहना ही नहीं चाहते।" कल्पना करिए, आपके घर कोई बच्चा अगर छह साल का है, तो हितैषी और दुश्मन के बारे में उसकी समझ और धारणा कितनी साफ़ होगी? वैसे राज्य की जनसंख्या क़रीब सवा करोड़ है, इसमें कश्मीर की आबादी साठ लाख है। श्रीनगर में क़रीब 10 लाख लोग रहते हैं। अब सवाल उठता है, आपने कितने लोगों से बातचीत की और राज्य का मूड कितना समझा जो एक सुर से सब लोग आज़ादी की मांग कर रहे हैंजैसा बेहद गैरज़िम्मेदाराना और आपत्तिजनक स्टेटमेंट दे दिया।

बहरहाल, एक और रिपोर्ट में कहा गया कि पैलेट गन से 500 बच्चों की आंख चली गई। पैलेट गन से पांच सौ नागरिकों की आंख जाना बहुत बड़ी ख़बर है और आंख गंवाने वाले 500 लोग अगर बच्चे हैं, तो घटना और भी ज़्यादा सीरियस हो जाती है। लिहाज़ा, इस तरह की ख़बर लिखने या बोलने से पहले ऑफिशियली कनफ़र्म करना पड़ता है, लेकिन इस ख़बर को बिना कनफ़र्म किए लिख दिया गया और टीवी पर स्टेटमेंट भी दे दिया गया। आंख की रोशनी गंवाने वाले दस-बीस लोगों के नाम, पते और उम्र लिख दिए गए होते तो स्टोरी थोड़ी तो ऑथेंटिक लगती।

खैर, यहां एक प्रसंग का ज़िक्र करना समीचीन हो। 2014 में एक बार महाराष्ट्र के नांदेड़ के एक टीवी रिपोर्टर ने ख़बर भेजी कि सूखे के कारण सैकड़ों लोग अपने गांव से पलायन कर गए हैं। यह बहुत बड़ी ख़बर थी। लिहाज़ा, जैसे ही ख़बर असाइनमेंट पर लैंड हुई, फ़ौरन आउटपुट को फॉरवर्ड कर दी गई। ख़बर चलती, उससे पहले एक सीनियर पत्रकार की नज़र पड़ी। उसने ख़बर होल्ड करवाई और रिपोर्टर से कहा, -पलायन करने वाले लोगों के नाम और गांव समेत सूची या परिवार के किसी सदस्य का नाम भेजिए। रिपोर्ट अटक गई। अंततः तीन दिन तक रिपोर्टर कोई नाम बताने में असमर्थ रहा। मतलब, ख़बर पूरी तरह हवा-हवाई थी। उसने बिना क्रॉस चेक किए ही भेज दी गई थी।

यही हाल दिल्ली या दूसरी जगह से से कश्मीर जाने वाले पत्रकारों का होता है। इसमें उनका दोष नहीं, क्योंकि वे कश्मीर में नेता के नाम पर केवल सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारुक, यासिन मलिक, मसरत आलम, शाबिर अहमद शाह या असिया अंद्राबी (एक आतंकवादी की पत्नी) को ही जानते हैं और घाटी में लैंड करते ही सबसे पहले इन्हीं नेताओं के पास जाते हैं या जाने को कोशिश करते हैं। इन अलगाववादी नेताओं के लोग ही कश्मीर के बारे में इन पर्यटक पत्रकारों को गाइड करते हैं। अब बाहरी पत्रकार को कैसी सूचनाएं मिलेंगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। इसीलिए, कहा जाता है कि अगर आप वाक़ई कश्मीर की हक़ीक़त जानना चाहते हैं तो कम से कम इन आठ-दस नेताओं के पास मत जाइए।

अगर इनके पास जाना ही है तो वापसी के समय जाइए, ताकि ये लोग आपके समझने की बुद्धि को अपने झूठ से हाईजैक न कर सकें। आप वाक़ई कश्मीर समस्या को लेकर बहुत संजीदा हैं तो घाटी में जाकर साल-दो साल रहिए। हर तरह के लोगों से भी मिलिए। श्रीनगर ही नहीं, बारामुला, कुपवाड़ा, गंडरबल, अनंतनाग, कुलगाम, शोपियां, बांडीपुरा और पहलगांव जाइए। आप पहाड़ों पर चढ़िए और वहां रहने वालों के साथ रहिए। आतंकवादी परिवारों से भी मिलिए और उनसे भी बातचीत कीजिए कि उऩका लड़का कैसा था। वह आतंकवादी क्यों बन गया। अगर आप आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर ऐक्ट (एएफएसपीए) की सच्चाई जानना चाहते हैं तो सुरक्षा बलों से भी मिलिए।

जब आप कश्मीर में रहेंगे और घूमेंगे, तब अपने आप अलगाववादी नेताओं के झूठ को समझने लगेंगे। आपको पता चलेगा कि राज्य की 80 फ़ीसदी आबादी को इन आंदोलनों से कोई मतबल ही नहीं। आप यह भी जान जाएंगे कि कश्मीर की आधी से ज़्यादा आबादी कभी जम्मू या लद्दाख नहीं गई है। इसी तरह जम्मू की आधी से ज्यादा आबादी कभी घाटी में नहीं गई है। बहुत लोगों को शायद नहीं पता है, कश्मीर के लोग आज भी बिजली का बिल भरने में आनाकानी करते हैं। राज्य में मीटर लगाने का काम 15 साल पहले शुरू किया गया है। जम्मू व लद्दाख रिजन में मीटर लग गए हैं, लेकिन घाटी में अभी तक मीटर लगाने का काम पूरा कई साल तक नहीं हो सका। श्रीनगर में ज़्यादातर लोग चोरी का या मुफ़्त का बिजली इस्तेमाल करते हैं। सबसे बड़ी बात बिजली विभाग के कर्मचारी भी उनसे मिले हैं। सब लोग मिलकर लूट खा रहे हैं।

यह कटु सच है कि केंद्र राज्य को आंख मूंदकर पैसे देता है। यहां का शासक वर्ग मतलब नेताओं- नौकरशाहों और पुलिस अफसरों का नैक्सस केंद्र सरकार से मिलने वाले पैसे से ऐश करता है। राज्य में शराबबंदी है, मगर हर जगह शराब मिल जाती है। केंद्र ते इतना पैसा देने के बाद भी राज्य में उद्योगधंधा खड़ा नहीं हो सका। यहां पूंजी लगाने के लिए कोई बाहरी आदमी तैयार नहीं होता, क्योंकि धारी 370 आड़े आती है। उद्योग नहीं होगा तो रोज़गार नहीं होंगे। राज्य सरकार की रोज़गार देने की क्षमता कम हो रही है। क़ुदरती तौर पर बेहद समृद्ध होने के बावजूद अब्दुल्ला फैमिली और दूसरे शासकों ने राज्य को इतना दीन-हीन बना दिया है कि यह केंद्र के दान पर बुरी तरह निर्भर है। इसकी माली हालत इतनी ख़राब रहती है कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन का 86 फ़ीसदी हिस्सा केंद्र देता है। राज्य के ख़र्च का 90 फ़ीसदी हिस्सा केंद्र वहन करता है।

दरअसल, कश्मीर सदियों से सैर करने की जगह रही है। लोग यहां सैर-सपाटा और मनोरंजन करने के लिए आते रहे हैं। बाहर से यहां केवल पर्यटक ही आते रहे हैं और वे यहां अच्छी सेवा के बदले स्थानीय सेवादारों को टिप्स देते रहे हैं। टिप्स पूरे ख़र्च के अलावा बख़्शीश के रूप में मिलने वाले पैसे को कहते हैं। उसे लोग खैरात के रूप में देते हैं। इस तरह सदी-दर-सदी और पीढ़ी-दर-पीढ़ी यहां लोगों को टिप्स यानी खैरात की आदत पड़ गई। दूसरी किसी जगह टिप्स लेने वाले कृतज्ञता का इजहार करते हैं, लेकिन कश्मीर में सत्ता वर्ग के लोग टिप्स को अपना अधिकार मानते हैं। मतलब टिप्स भी लेंगे और आंख भी दिखाएंगे। दिल्ली ने पिछले सात दशक में इन्हें जितना पैसा दिया, उससे सत्ता में रहने वालों को अहसानमंद होना चाहिए था, लेकिन ये लोग अब भी देश विरोधी बात करते हैं।

सबसे दुर्भाग्य की बात है, जो इनकी ग़लती बताने की कोशिश करेगा, ये उसका विरोध करने लगते हैं। जो इनके और राज्य के विकास की बात करेगा, उसे अलगाववादी और राज्य की पोलिटिकल लीडरशिप मुस्लिम विरोधी कहने लगती है। अस्सी के दशक में एक बार राज्य का कायाकल्प कर देने वाले पूर्व गवर्नर जगमोहन का 21 अप्रैल 1990 को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को लिखा पत्र पढ़िए। वह पत्र इंटरनेट पर उपलब्ध है। जगमोहन ने 26 साल पहले ही कह दिया था, कश्मीरी लीडरशिप (अलगाववादी और सत्ता सुख भोगने वाले) जो कुछ कर रही है, उससे सावधान रहने की ज़रूरत है। वरना राज्य में हालात नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे।

कई पत्रकार जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह की बात करते हैं। ये लोग पता नहीं किस मन्तव्य से कहते हैं। ऐसे लोगों को पहले जम्मू-कश्मीर के बारे में यूनाइटेड नेशन्स का चार्टर पढ़ना चाहिए। यूएन चार्टर में साफ़ लिखा है कि जनमत सर्वेक्षण से पहले पाकिस्तान को पीओके को खाली करना होगा और भारत को जम्मू-कश्मीर में उतनी ही सेना रखनी होगी, जितनी ज़रूरी है। कोई बताए, क्या पाकिस्तान पीओके को खाली करेगा? ज़ाहिर-सी बात है पाकिस्तान का जब तक अस्तित्व है, वह पीओके से क़ब्ज़ा नहीं छोड़ेगा। इसका मतलब जनमत संग्रह की बात का कोई औचित्य नहीं रह गया, लेकिन इसे बार-बार एक साज़िश के तरह उठवाया जाता है।

जो लोग कश्मीर की आज़ादी की बात करते हैं, उन्हें राज्य के भूगोल की जानकारी नहीं। दरअसल, अपने भौगोलिक स्थित के चलते राज्य का स्वतंत्र देश के रूप में अस्तित्व मुमकिन नहीं। अगस्त 1947 में कुछ समय राज्य आज़ाद था, परंतु बंटवारे के फ़ौरन बाद पाकिस्तान ने कबिलाइयों के साथ क़ब्ज़ा करने के मकसद से हमला कर दिया। मुज़फ़्फ़राबाद और मीरपुर जैसे समृद्ध इलाके उसके क़ब्ज़े में आ गए। कश्मीर को बचाने के लिए राजा हरिसिंह और शेख अब्दुल्ला भागे-भागे दिल्ली आए और 26 अक्टूबर 1947 को राज्य के भारत में विलय के समझौते पर दस्तखत किए गए। इसके बाद कश्मीर भारत का हिस्सा हो गया। मतलब, कश्मीर अगर आज़ाद हो भी जाता है, तो पाकिस्तान उसे आज़ाद नहीं रहने देगा। अगर पाकिस्तान से बच गया तो चीन घात लगाए बैठा है। जैसे उसने तिब्बत पर क़ब्ज़ा कर लिया, वैसे ही कश्मीर पर क़ब्ज़ा कर लेगा। यानी कश्मीर का स्वतंत्र अस्तित्व फिज़िबल नहीं है।

शेख अब्दुला 1947 में कश्मीर के आज़ाद न रह पाने की इस अवस्था को भलीभांति जानते और समझते थे। उन्हें पता था, पाकिस्तान पर पंजाबी मुसलमानों का वर्चस्व रहेगा। लिहाज़ा, अगर वह पाकिस्तान के साथ गए तो पंजाबी मुसलमान उनका वही हश्र करेंगे, जो हश्र उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के नेता शेख मुजीबुर रहमान का किया और जिसके कारण मुजीब को अलग राष्ट्र की मांग करनी पड़ी और जिसके फलस्वरूप 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद बांग्लादेश नाम का नया राष्ट्र बना। इसलिए शेख अब्दुल्लाह ने भारत के साथ रहने की इच्छा जताई और कश्मीर के भारत में विलय का समर्थन किया।

कश्मीर कभी आज़ाद नहीं रह सकता, यह तथ्य अलगाववादी और दूसरे नेता भी भली-भांति जानते हैं। वे यह भी जानते हैं कि कश्मीर कभी भारत से भी अलग नहीं हो सकता। लिहाज़ा, अपनी अहमियत बनाए रखने के लिए वे आज़ादी का राग अलापते रहते हैं। देश के पैसे पर पल रहे ये लोग भारत को अपना देश मानते ही नहीं और देश के बारे में दुष्प्रचार करते रहते हैं। इनकी पूरी कवायद धारा 370 अक्षुण्ण रखने के लिए होती है। अपने इस एजेंडा पर आगे बढ़ने के लिए वे बाहरी पत्रकारों को बेवकूफ बनाते रहते हैं। बाहरी पत्रकार कश्मीर पर लिखने की खुशफहमी में इनके द्वारा मैनेज्ड हो जाते हैं।

शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

कविता- महात्मा गांधी की जयंती पर - इकबलिया बयान

इकबलिया बयान

हां, माई लार्ड
कबूल करता हूं मैं
भरी अदालत में 
मैंने की है हत्या
एक निहत्थे वृद्ध की
ऐसे इंसान की
जो था घनघोर विरोधी
हर तरह की हिंसा का
जो मृदुभाषी था इतना कि
करता था प्रेम
अपनी बकरी तक से
जिसकी अहिंसा बन गई
एक समूचा दर्शन
जिसे पूरी दुनिया
अब कह रही है
महात्मा, महापुरुष
अहिंसा का पुजारी
शांति का दूत
पता नहीं और क्या-क्या
इसीलिए
हैरान होते हैं लोग
क्यों नहीं मिला उसे
शांति का नोबेल पुरस्कार
मगर
नहीं चाहता था मैं
वह मरे
अपनी सहज मौत
इसलिए
वध कर डाला उसका
भून डाला गोलियों से
सबके सामने
मेरा मकसद था
करना खड़ा एक सवाल
उसे मिले संबोधनों पर
उसे दिए विशेषणों पर
ताकि
हर जिज्ञासु सोचे
आखिर क्यों हुई हत्या
उस शख्स की
जो था अजातशत्रु
नहीं था कोई दुश्मन
जिसका धरती पर
और ईमानदारी से लोग करें
अध्ययन और विश्लेषण
उसके कार्यो का
उसकी अहिंसा का
जिसमें मारे गए
युद्ध से भी कई गुना ज़्यादा लोग
और तब
आने वाली पीढ़ी
करे आकलन
कार्यों का उसके
और पता लगाए
क्या वह सचमुच था राष्ट्रप्रेमी
अथवा था
जन्मजात राजभक्त
और फिर सोचें
एक महात्मा, एक फकीर
जिसने जन्म लिया
एक स्टेट के दीवान के घर
जिसने ली शिक्षा
गांव में नहीं, भारत में भी नहीं
बल्कि सात समंदर पार
दुनिया के सबसे मंहगे शहर में
क्या वह वाक़ई था नेता
करोड़ों दरिद्र और अनपढ़ों का
या सैकड़ों भू-स्वमियों का
साधनविहीन गांववालों का
या सुविधा सम्पन्न शहरियों का
जो था पूंजीवाद का विरोधी
लेकिन जिसके क़रीबी थे
देश के सारे पूंजीपति
जिसने त्याग दिया अपना शूट
और बांध लिया लंगोटी
चलाया एक आंदोलन
रोटी और शिक्षा के लिए नहीं
बल्कि केवल सत्ता पाने के लिए
वह भी उस समय, जब
दरिद्रों, अछूतों के लिए पेट था
सबसे बड़ा आंदोलन
तब वह क्या वाक़ई था महात्मा?
या कुछ और था
यह है विषय अनुसंधान का
खोजने का जवाब
मेरे यक्ष प्रश्नों का
मुझे गर्व है
मैं रहा कामयाब
मकसद में अपने
और खड़ा कर दिया
सचमुच एक ज्वलंत सवाल
उसके महात्मापन पर
उसकी अहिंसा पर
अब लोग करेंगे प्रयास देखने का
उसकी अहिंसा के पीछे भी
और चाहेंगे जानना
उसके अनशनों व उपवासों का असली उद्देश्य
मैंने कर दिया अपना काम
अब क़ानून करे अपना काम
मैं बिलकुल तैयार हूं
सहर्ष फ़ांसी के फंदे से
झूलने के लिए
हुक़्म कीजिए
तोड़िए कलम
हे इंसाफ़ के देवता!
-हरिगोविंद विश्वकर्मा