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मंगलवार, 26 सितंबर 2017

रोहिंग्या मुसलमान सहानुभूति के कितने हक़दार?

हरिगोविंद विश्वकर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने पिछले हफ़्ते रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों के बारे में सुप्रीम कोर्ट में जो हलफ़नामा पेश किया है, उसकी भाषा असाधारण रूप से बेहद कठोर है। भाषा से ही पता चल जाता है कि भारत सरकार जेहादी प्रवृत्ति वाले इन उपद्रवी तत्वों के साथ भविष्य में कोई भी  रियायत बरतने नहीं जा रही है। मानवाधिकार से जुड़े लोग भले इसे मानवता विरोधी क़दम क़रार दें, लेकिन राष्ट्र हित में यह उचित, दूरदर्शी एवं प्रशंसनीय क़दम है। केंद्र सरकार के हलफ़नामे में सुप्रीम कोर्ट को इस मसले से दूर रहने की ‘सलाह’ देते हुए दो टूक शब्दों में कहा गया है कि रोहिंग्या का मसला केवल और केवल भारत सरकार का मामला है, लिहाज़ा इस मसले पर किसी जनहित याचिका को बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए। राजनीतिक हलक़ों में माना जा रहा है कि अब तक किसी भी सरकार ने देश की सबसे बड़ी अदालत में इतना कठोर हलफ़नामा पेश करने की हिमाकत नहीं की है।

कथित तौर पर छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण की पैरवी करने वाले वामपंथी विचारक भले ही सरकार के क़दम से सहमत न हों, लेकिन देशहित के लिए सकारात्मक सोच रखने वाला व्यक्ति सरकार के क़दम से बिल्कुल असहमत नहीं होगा। भविष्य को ध्यान में रखा जाए तो केंद्र का क़दम बहुत सही जान पड़ता है। हलफ़नामे में कहा गया है कि फिलहाल देश में40 हज़ार से ज़्यादा रोहिंग्या मुस्लिम अवैध शरणार्थी हैं। इनसे देश की सुरक्षा को बहुत गंभीर ख़तरा है, क्योंकि इनमें से ढेर सारे लोगों का ताल्लुकात पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द और अमन के दुश्मन आईएसआई, इस्लामिक स्टेट, अलक़ायदा, तालिबान, लश्कर, जैश, हिजबुल जैसे आतंकी संगठनों से हैं। इसमें दो राय नहीं कि अपने उपद्रवी और जेहादी स्वभाव के कारण ही रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार (बर्मा) से निकाले गए हैं। इन शरणार्थियों के बारे में अगर दिल्ली में दूसरी सरकार होती तो इतना सख़्त स्टैंड कभी न ले पाती।

दुनिया के सामने खड़े इस्लामिक आतंकवादी ख़तरे को नज़रअंदाज़ करने वाले लोग रोहिंग्या मुसलमान को अल्पसंख्यक समुदाय का मानते हैं। उनके अनुसार रोहिंग्या पर सबसे ज़्यादा ज़ुल्म हो रहा है। सवाल यह उठता है कि आख़िर रोहिंग्या मुसलमानों से म्यांमार को क्या परेशानी है? जो उन्हें वहां से निकाला जा रहा है। यह सब म्यांमार में तब हो रहा है जब वहां शांति नोबेल सम्मान पाने वाली अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता आंग सान सू ची का दल नेशनल लीग फ़ॉर डेमोक्रेसी सत्ता में है। रोहिंग्या मसले पर अपनी महीने भर पुरानी चुप्पी तोड़ते हुए सू ची ने कहा है कि बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमानों के जेहाद में शामिल होने के चलते ही सेना को उनके खिलाफ ऑपरेशन शुरू करना पड़ा।

दरअसल, म्यांमार में इस समय फेथ मूवमेंट ऑफ़ अराकान (एफएमए), अक़ा मुल मुजाहिदीन (एएमएम), हरकत ओल-यक़ीन (एचओवाई) और केबंगकितन मुजाहिद रोहिंग्या (केएमआर) जैसे आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं। इस साल अगस्त में म्यांमार के रखाइन में मौंगडोव सीमा पर रोहिंग्या आतंकियों ने सुरक्षा दस्ते पर हमला करके 9 पुलिस अफसरों की हत्या कर दी। जांच में पता चला कि यह हमला रोहिंग्या आतंकियों ने किया। इसके बाद सेना ने बड़े पैमाने पर ऑपरेशन शुरू किया और मौंगडोव जिले की सीमा सील कर दी। दुनिया में कहीं भी किसी समुदाय के ख़िलाफ़ सैन्य कार्रवाई होती है तो इंपैक्ट बदमाशों पर तो बहुत कम, मासूम लोगों पर ज़्यादा होता है। यही म्यांमार में हो रहा है। बेशक, एक तरफ़ से सारे के सारे रोहिंग्या मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि रोहिंग्या आतंकियों के बौद्धों और हिंदुओं के ख़िलाफ़ जेहाद का विरोध करने की बजाय उस पर मौन धारण करना इनके लिए अब भारी पड़ रहा है। रोहिंग्या सेना पर मानवाधिकार के उल्लंघन का आरोप लगाते हैं। सामूहिक मारकाट के अलावा प्रताड़ना और रेप के भी आरोप हैं। हालांकि सरकार ने इसे सिरे से खारिज कर दिया है।

म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी बौद्ध है। वहां रोहिंग्या मुसलमानों की जनस्ख्या 10 लाख से भी ज़्यादा है। रोहिंग्या मुसलमान मुख्य रूप से अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं। रोहिंग्या सुन्नी मुस्लिम हैं, जो बांग्लादेश के चटगांव में प्रचलित बांग्ला बोलते हैं। हालांकि वे कई पीढ़ियों से रखाइन में रह रहे हैं, इसके बावजूद  म्यांमार सरकार इन्हें नागरिकता देने से मना करती है। सरकार इन्हें प्रॉब्लम क्रिएटर मानती है। जहां तक रोहिंग्या और बौद्धों के बीच विवाद की बात है तो झगड़ा 100 साल पुराना है। यह विवाद सन् 1948 में म्यांमार के ब्रिटिश से आज़ाद होने के बाद समय के साथ गहराती गई। इसी के चलते रखाइन राज्य अशांत है, जबकि म्यांमार में हर जगह शांति है। इसके लिए सरकार रोहिंग्या को ज़िम्मेदार मानती है। सन् 1982 में म्यांमार ने राष्ट्रीयता क़ानून बनाकर रोहिंग्या का नागरिक दर्जा ख़त्म कर दिया और उन्हें देश छोड़ने का आदेश दिया। रखाइन में सन् 2012 से सांप्रदायिक हिंसा हो रही है, जिसमें बड़ी संख्या में जानें गई हैं और लाखों रोहिंग्या विस्थापित हुए। बड़ी संख्या में रोहिंग्या आज भी ख़स्ताहाल शिविरों में रह रहे हैं।

रोहिंग्या मुसलमान मूलतः खानाबदोश प्रजाति के हैं। मुसलमानों के भारत आगमन के बाद धर्मपरिवर्तन का सिलसिला शुरू होने पर इनका धर्म परिवर्तन करवा दिया गया। ये लोग 14 वीं शताब्दी में विस्थापित होकर चटगांव से अराकान योमा में आकर बस गए। इसीलिए इन्हें अराकांस इंडियन भी कहा जाता है। अराकान योमा को अराकान और रखाइन पर्वतमाला भी कहते हैं। यह भारत (असम, नगालैंड व मिज़ोरम) और म्यांमार (रखाइन व अराकान) की सीमा निर्धारित करने वाली पर्वतमाला है, जो अंडमान निकोबार द्वीप समूह तक जाती है। यह रखाइन और इरावदी नदियों के दोआब के बीच है। इतिहासकार मानते हैं कि रोहिंग्या इस्लाम को मानते हैं। इनमें से बहुत से लोग सन् 1430 में अराकान पर शासन करने वाले बौद्ध राजा नारामीखला (जिसका बर्मा में नाम मिन सा मुन था) के राज दरबार में नौकर थे। इस राजा ने मुस्लिम सलाहकारों और दरबारियों को अपनी राजधानी में पनाह दी थी।

म्यांमार में 25 साल बाद पिछले साल चुनाव हुए थे। चुनाव में आंग सान सू ची की पार्टी को अभूतपूर्व जीत मिली थी. हालांकि संवैधानिक नियमों के कारण वह चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रपति नहीं बन पाई थीं. सू ची स्टेट काउंसलर की भूमिका में हैं। अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता उन्हीं के हाथ में है। म्यांमार के राष्ट्रपति के प्रवक्ता ज़ाव हती कहते हैं कि म्यांमार की दुनिया में ग़लत रिपोर्टिंग हो रही है। दरअसल, सू ची भले अपने मुल्क की नेता हैं, लेकिन देश की सुरक्षा सेना के हाथ में है। अगर सू ची अंतराष्ट्रीय दवाब के आगे झुकती हैं तो आर्मी से उऩका टकराव हो सकता है जो जोख़िम भरा है। इससे उनकी सरकार ख़तरे में आ सकती है, क्योंकि म्यांमार में रोहिंग्या के प्रति सहानुभूति नहीं के बराबर है। वहां की आम जनता भी रोहिंग्या को उपद्रवी और समस्या पैदा करने वाली कौम मानती है।

भारत कहता है, रोहिंग्या दलालों के ज़रिए संगठित रूप से म्यांमार से पश्चिम बंगाल के बेनापोल-हरिदासपुर और हिल्ली एवं त्रिपुरा के सोनामोरा के अलावा कोलकाता और गुवाहाटी से भारत में घुसपैठ करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत इन्हें देश में कहीं भी आने-जाने या बसने के मूलभूत अधिकार नहीं दिए जा सकते। ये अधिकार सिर्फ़ अपने नागरिकों के लिए ही हैं। 2012 से देश में उन्होंने अवैध तरीक़ों से प्रवेश किया। कई लोगों ने पैन कार्ड और वोटर आईडी भी बनवा लिए हैं। रोहिंग्या को अकेले भारत डिपोर्ट नहीं कर रहा है। बांग्लादेश भी इन्हें म्यांमार वापस भेज रहा है। हालांकि एमनेस्टी इंटरनेशनल ने बांग्लादेश के क़दम की निंदा करते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन बताया है। सच पूछिए तो रोहिंग्या किसी सिरदर्द से कम नहीं हैं। इन्हें जो देश अपने यहां शरण देगा, कल उसी के लिए यहां समस्या पैदा करेंगे। इसीलिए केंद्र चौकन्ना है, वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहता, जिसे भविष्य में‘ऐतिहासिक भूल’ या हिस्टोरिक ब्लंडर कहा जाए। इस सूरते हाल में रोहिंग्या सहानुभूति के पात्र कतई नहीं हैं।

बुधवार, 6 सितंबर 2017

गौरी लंकेश की हत्या और वामपंथी मीडिया

हरिगोविंद विश्वकर्मा मानव हत्या बेशक अमानवीय, दुखद और निंदनीय वारदात है। हत्या किसी अच्छे नागरिक की हो या फिर बुरे आदमी की, हत्या की भर्त्सना होनी ही चाहिए। दरअसल, हत्या की वारदात में क़ुदरत द्वारा दी हुई बेशकीमती जान चली जाती है। एक इंसान का शरीर ही नष्ट हो जाता है। मानव हत्या को इंसान के जीने के अधिकार का गंभीर और क्रूरतम हनन भी माना जाता है, इसीलिए दुनिया भर के मानवाधिकार समर्थक इसी फिलॉसफी के तहत मानव हत्याओं को ग़लत मानते हैं और उनका विरोध करते हैं। हत्या कमोबेश हर संवेदनशील को विचलित करती है। कोई सभ्य आदमी हत्या के बारे में सोच कर ही दहल उठता है। यही मानसिकता मानव को हत्या की वारदात को लेकर संवेदनशील बनाती है। इसीलिए जो लोग हत्याओं को अंजाम देते हैं यानी अपने जैसे ही किसी इंसान की हत्या करते हैं, वे मानव समाज से ख़ुद ब ख़ुद बाहर हो जाते हैं। हत्यारों को जानवर कहा जाता है, क्योंकि कोई जानवर ही कीसी की हत्या कर सकता है। हर प्राणी की हत्या तो नहीं, हां मानव हत्या को लेकर हर अच्छे नागरिक को संवेदनशील होना ही चाहिए। मीडिया को, ख़ासकर हत्या की वारदात, मारे गए व्यक्ति और हत्यारों की कवरेज करते समय ज़्यादा संवेदनशील होना चाहिए। मानव हत्या पर कोई तर्क-वितर्क नहीं होनी चाहि। एक स्वर से हत्या की भर्त्सना करनी चाहिए। इसी तरह में कन्नड़ पत्रकार और ऐक्टिविस्ट सुश्री गौरी लंकेश की हत्या की भी निंदा की जानी चाहिए। इस दुखद घटना पर विरोध दर्ज कराया जाना चाहिए। गौरी लंकोश कन्नड़ पत्रकार थीं, फिर भी लोग उनकी हत्या पर विरोध दर्ज करवा रहे हैं। वैसे गौरी लंकेश की हत्या की ख़बर जिसने सुनी उसने ही उसकी भर्त्सना की । गौरी लंकेश की हत्या निःसंदेह एक कायराना हरकत है। इस हत्या का हर भारतीय ही नहीं, थोड़ा भी संवेदनशील व्यक्ति समर्थन नहीं कर सकता। कैसे कोई किसी की हत्या का समर्थन कर सकता है। इसलिए जो लोग गौरी की हत्या पर आपत्तिजनक और गैरज़िम्मेदार कमेंट कर रहे हैं, वे लोग भी उतने ही निंदनीय हैं, जितने गौरी के हत्यारे। गौरी को इन पंक्तियों का लेखक भी उनकी हत्या से पहले नहीं जानता था। हो सकता है यह लेखक की अज्ञानता हो। लेकिन एक पत्रकार वह भी महिला पत्रकार की हत्या मन को व्यथित करने वाली बात है और लेखक इस हत्या से ख़ुद भी विचलित है। गौरी लंकेश या किसी व्यक्ति की हत्या पर हो हल्ला मचना स्वाभाविक है, लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। लिहाज़ा, गौरी लंकेश की हत्या की कवरेज करते समय या रिएक्शन देते ऐसा कुछ नहीं किया जाना चाहिए जिससे आम आदमी को लगे कि एक ख़ास वर्ग के लोगों की हत्या को लोकर मीडिया कुछ ज़्यादा ही मुखर हो जाती है। पिछले कुछ लाल के दौरान दुनिया में अनगिनत पत्रकार मारे गए हैं। भारत भी अपवाद नहीं है, यहां भी कलमकारों की आए दिन हत्या होती रहती है। ख़ुद कर्नाटक में भी कई पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। सवाल उठता है कि क्या सरकार ने हत्या के बाद किसी पत्रकार का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ कराया गया है? अगर बड़े और मेनस्ट्रीम पत्रकारों की बात करें तो मुंबई में ही बहुत बड़े पत्रकार ज्योतिर्मय डे (जे डे) की हत्या कर दी गई थी, लेकिन उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ नहीं कराया गया। संयोग से उस समय महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार थी, जैसे आजकल कर्नाटक में कांग्रेस सरकार की है। फिर गौरी लंकेश का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ क्यों? जे डे की हत्या की मीडिया कवरेज हुई थी, परंतु इतनी नहीं जितनी गौरी लंकेश की हत्या की हो रही है। यह भेदभाव क्यों? कर्नाटक की काग्रेस सरकार ने गौरी का अंतिम संस्कार जिस तरह राजकीय सम्मान के साथ करवाया, उसमें हर किसी को राजनीति की बू आ रही है। सुश्री गौरी लंकेश की हत्या के प्रकरण में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि मीडिया, जिसे कई लोग वामपंथी मीडिया करार दे रहे हैं, (यह संकटपूर्ण है कि मीडिया अब मीडिया न रहकर वामपंथी और दक्षिणपंथी मीडिया हो गई है) जिस तरह से गौरी लंकेश की हत्या के लिए बीजेपी और केंद्र सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रही हैं, उससे यह साफ़ लगता है कि इन लोगों ने गौरी के हत्यारों की शिनाख़्त कर ली है कि वे निश्चित रूप से बीजेपी के ही कार्यकर्ता थे। ऐसे में तो कथित वामपंथी मीडिया को सबूत पेश करना चाहिए, ताकि हत्यारों को कठोर सज़ा दिलाई जा सके। इस बात में दो राय नहीं कि बिना सबूत के किसी हत्या के लिए किसी को ज़िम्मेदार ठहराना भी एक तरह का आतंकवाद और गुंडागर्दी है। जो लोग यह कार्य कर रहे हैं, वे भी मानव हत्या जैसा ही काम कर रहे हैं। इस देश में पिछले कुछ साल से अनगिनत पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की हत्या हुई है, लेकिन गौरी की हत्या करते समय केवल और केवल दाभोलकर, पानसरे और कुलबर्गी का ज़िक्र किया जा रहा है, क्योंकि ये लोग वामपंथी विचारधारा के लोग थे। किसी बहस में किसी पैनलिस्ट ने जेडे का नाम नहीं लिया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गौरी की हत्या उस राज्य में हुई है, जहां कांग्रेस का शासन है। लिहाज़ा, सबसे पहले कांग्रेस को कठघर में खड़ा किया जाना चाहिए था, लेकिन यह नहीं किया गया। बीजेपी विरोधी वामपंथी मीडिया गोरी की हत्या के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से बीजेपी पर दोषारोपण कर रही है। कई लोगों ने दमदार तर्क दिया है, कि गौरी लंकेश की हत्या बीजेपी क्यों करवाएगी। कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। बीजेपी सत्ता की प्रबल दावेदार है। ऐसे में वह उस पत्रकार की हत्या क्यों करवाएगी जो उसके ख़िलाफ़ लिख रही थी, क्योंकि कोई भी व्यक्ति उन्हें ही हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठाहरा देगा। जिसका निश्चित तौर पर चुनाव में नुकसान हो सकता है। ऐसे में कम से कम बीजेपी गौरी की हत्या करवाने के बारे में सोच ही नहीं सकती। यह भी नहीं कहा जा सकता कि गौरी लंकेश की हत्या कांग्रेस ने करवाई, क्योंकि हत्यारे अज्ञात हैं। हां, अगर कांग्रेस के अतीत पर नज़र डाले तो वह इस तरह की हत्याएं करवाने में पटु रही है। ऐसे में इस आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि गौरी की हत्या के लिए कहीं न कहीं कांग्रेस ज़िम्मेदार तो है। गौरी लंकेश भाजपा और केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ लिख रही थीं, इसलिए उनकी सुरक्षा बढ़ाने की ज़रूरत थी, यह काम कांग्रेस ने नहीं किया। बहरहाल, हत्या की उच्चस्तरीय और निष्पक्ष जांच की ज़रूरत है। हालांकि सभी वामपंथी पत्रकार और अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाने वाले खालिद उमर को अपना बेटा मानने वाले अपूर्वानंद जैसे कथित बुद्धिजीवी हत्या के लिए बीजेपी को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। अरे भाई, अगर गौरी लंकेश की हत्या बीजेपी द्वारा करवाने के कोई सबूत नहीं है तो कम से कम सबूत आने तक बीजेपी को बख़्श देना चाहिए था। कल को हत्यारे अगर बीजेपी से जुड़े नहीं मिले तो क्या करेंगे? दो तीन साल पहले उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार को समाजवादी पार्टी के मंत्री के गुंडों नेता ने ज़िंदा जला दिया था, तब वामपंथी मीडिया इतनी मुखर नहीं हुई थी। गौरी की हत्या पर मीडिया के मुखर होने का स्वागत करना चाहिए, लेकिन मुखर होने में भी अवसरवाद दिखे तो संदेह होता है। पिछले तीन साल से आम आदमी को कम से कम यह साफ़ लग रहा है कि प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ख़िलाफ़ बोलने वाले व्यक्ति के साथ कुछ होता है या केंद्र सरकार की नीति के ख़िलाफ़ कोई कुछ बोलता है या कोई क़दम उठाता है तो तो मीडिया का एक तबका उसे लपक लेता है। अवार्ड वापसी की मुद्दा या आमिर ख़ान के बयान को मीडिया ने खूब उछाला। उपराष्ट्रपति पद से रिटायर होने के बाद हामिद अंसारी ने जो बयान दिया उसे भी खूब उछाला गया। तो क्या यह कहा जाए कि मीडिया के एक तबके में ऐसे लोग बैठे हैं, जो प्रधानंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पसंद नहीं करते और कोई भी मुद्दा इनके ख़िलाफ़ आता है तो उसे ख़ूब हवा देते हैं। क्या यही निष्पक्ष पत्रकारिता है?