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सोमवार, 16 अप्रैल 2018

भारत में रेपिस्ट को जल्दी फ़ांसी देना मुमकिन ही नहीं!


हरिगोविंद विश्वकर्मा

जब-जब देश में किसी रेप की वारदात होती है, तब-तब मीडिया या सोशल मीडिया से इत्तिफ़ाक रखने वाला कमोबेश देश का हर आदमी उद्वेलित हो जाता है। सोशल मीडिया से लेकर गली-मोहल्ले, सड़क और बस-ट्रेन और संसद तक में यही चर्चा होती है। लोग कैंडिल मार्च और धरना-प्रदर्शन करते हैं। बलात्कारियों को सरेआम सज़ा-ए-मौत देने की पुरज़ोर पैरवी की जाती है। कहीं-कहीं तो रिएक्शन और आक्रोश एक्स्ट्रीम पर होता है, लोग इस तरह रिएक्ट करते हैं जैसे कि उनका बस चले तो तालिबानी सोच वालों की तरह रेपिस्ट्स को फ़ौरन फ़ांसी के फ़ंदे से लटका दें। देश सब दिसंबर 2012 की दिल्ली गैंगरेप के बाद से हो रहा है। उस समय भी जनआक्रोश सड़क से संसद तक पहुंच गया था और दिल्ली सल्तनत को नया रेप क़ानून बनाने का ऐतिहासिक कदम उठाना पड़ा।

पूरे देश को हिलाकर रख देने वाले दिल्ली गैंगरेप को सात साल गुज़र गए, लेकिन अभी तक किसी रेपिस्ट को फ़ांसी की सज़ा नहीं हुई। ऐसे में रेप के मुकदमे की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन का क्या औचित्य? भारत में न्याय-व्यवस्था चार स्तरीय है, पहली निचली अदालत या फास्ट ट्रैक कोर्ट, दूसरी हाई कोर्ट, तीसरी सुप्रीम कोर्ट और चौथी राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका का निपटारा। इसमें कितना समय लगता है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगा लीजिए कि पिछली बार बलात्कार-हत्या के अपराधी धनंजय चटर्जी को कोलकाता के अलीपुर जेल में 14 अगस्त 2004 को फांसी दी गई थी, उसे भी फांसी देने में 14 साल लग गए थे। उसके बाद देश में केवल तीन फ़ांसी हुई लेकिन मौत की सज़ा पाने वाले तीनों अपराधी मोहम्मद कसाब, अफ़ज़ल गुरु और याक़ूब मेमन राष्ट्रद्रोह करने वाले आतंकवादी थे।

2012 के दिल्ली गैंगरेप की शिकार ज्योति सिंह के माता-पिता अभी तक राह देख रहे हैं कि उनकी बेटी के साथ बलात्कार करके उसका शरीर ही नष्ट करने वाले अक्षय ठाकुर, विनय शर्मा, पवन गुप्ता और मुकेश सिंह को कब फ़ांसी के फंदे पर लटकाया जाता है। मुख्य आरोपी ड्राइवर रामसिंह ने सज़ा पाने से पहले ही 11 मार्च 2013 को तिहाड़ जेल में ख़ुदकुशी कर ली थी। 16 दिसंबर की रात पीड़ित लड़की पर सबसे ज़्यादा हैवानियत करने वाला अपराधी मोहम्मद अफरोज़ उर्फ़ राजू भारतीय न्याय-व्यवस्था पर हंसता हुआ 18 दिसंबर 2016 को सुधार घर से बाहर आया, क्योंकि रेप करते समय उसकी उम्र 18 साल से कुछ दिन कम थी यानी वह नाबालिग था।

वस्तुतः, नया क़ानून बनने और फास्ट ट्रैक कोर्ट गठित होने से लगा लोग सीरियस हैं। अपराधियों की खैर नहीं। दिल्ली पुलिस ने रिकॉर्ड समय में केस का आरोप पत्र दाख़िल कर दिया। रोहिणी फास्ट ट्रैक कोर्ट ने 173 दिन यानी छह महीने से भी कम समय में सज़ा सुना दी। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी 180 दिन के अंदर सज़ा पर मुहर लगा दी। उस समय लोकतंत्र के तीनों स्तंभों कार्यपालिका (पुलिस+सरकार), विधायिका (संसद) और न्यायपालिका (निचली अदालत+दिल्ली हाईकोर्ट) की सक्रियता देखकर भरोसा हुआ कि महिलाओं पर अत्याचार को अब सहन नहीं किया जाएगा।

लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। हर कवायदें टांय-टांय फिस्स होने लगीं, क्योंकि देश के सबसे महत्वपूर्ण मुक़दमे पर फ़ैसला देने में देश की सबसे बड़ी अदालत को 1508 दिन या चार साल का समय लग गया। सुप्रीम कोर्ट ने 14 मार्च 2014 के केस का फ़ैसला 5 मई 2017 को दिया। अगर कहें कि बलत्कृत महिला को जल्दी न्याय दिलाने की कोशिश की हवा सुप्रीम कोर्ट ने निकाल दी, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। क़रीब साल भर उस फ़ैसले को भी बीत गया, लेकिन दरिंदों को सज़ा नहीं दी जा सकी। मतलब, आप सरकार में हैं तो चाहे जितना उछल कूद लें, कमेटी बिठा लें, जांच करवा लें और फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बना लें, लेकिन फ़ैसला अदालत मुक़दमे की प्रक्रिया पूरी होने पर ही देगी। अब व्यवस्था ही ऐसी है तो सुप्रीम कोर्ट क्या करे।

दिल्ली गैंगरेप पर बीबीसी के लिए ब्रिटिश फिल्मकार लेस्‍ली एडविन ने 'इंडियाज डॉटर्स' नाम से डॉक्‍यूमेंट्री बनाई थी, जिसमें उन्होंने महिलाओं या लड़कियों के प्रति पुरुष की मानसिकता को बताने की हर संभव कोशिश की थी। इसके लिए उन्होंने तिहाड़ जेल में एक आरोपी का इंटरव्यू भी लिया था। उस इंटरव्यू के कारण डॉक्यूमेंट्री विवाद में आ गई। उस पर प्रसारण से पहले ही बैन लग गया। भारत सरकार के सख़्त होने पर डॉक्यूमेंट्री के कंटेंट को यू-ट्यूब से भी हटाना पड़ा। दिल्ली गैंगरेप की घटना कितनी महत्वपूर्ण थी इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि केंद्र ने महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन अपराध को रोकने के लिए कठोर क़ानून बनाने की घोषणा की। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया। कमेटी ने दिन रात काम किया। उसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी समेत देश-विदेश से क़रीब 80 हज़ार सुझाव मिले। कमेटी ने रिकॉर्ड 29 दिन में 630 पेज की रिपोर्ट 23 जनवरी 2013 को सरकार को सौंप दी।

कमेटी को महिलाओं पर यौन अत्याचार करने वालों को कठोरतम दंड देने की सिफ़ारिश करनी थी। लोगों को उम्मीद थी कि रेपिस्ट को फ़ांसी की सज़ा का प्रावधान होगा। मगर रिपोर्ट निराशाजनक रही। कमेटी ने रेप को रेयर ऑफ़ रेयरेस्ट केस माना ही नहीं, जबकि देश का हर आदमी रेपिस्ट को फ़ांसी देने के पक्ष में था। इसीलिए, वर्मा कमेटी की रिपोर्ट पढ़कर कई महिला संगठनों ने आरोप लगाया कि पुरुष प्रधान समाज में पले-बढ़े और न्याय-व्यवस्था का संचालन करने वाले जस्टिस वर्मा बलत्कृत स्त्री की पीड़ा महसूस करने में असफल रहे, अन्यथा बलात्कारी के लिए फ़ांसी की सज़ा की सिफ़ारिश ज़रूर करते। वस्तुतः कमेटी ने रेप के बाद लड़की की हत्या या मौत को रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर ज़रूर माना और हत्यारे रेपिस्ट के लिए मौत की सज़ा का प्रावधान किया। इसके अलावा यौन अपराध करने वालों को कड़ी सज़ा का प्रावधान किए गए जिसके चलते तरुण तेजपाल जैसे तथाकथित बुद्धिजीवी पुलिस की गिरफ़्त में आए। बहरहाल, 21 मार्च 2013 को लोकसभा ने बलात्कार विरोधी बिल पास कर दिया और इस क़ानून को क्रिमिनल लॉ संशोधन अधिनियम 2013 कहा गया।

जो भी हो, नया अपराध क़ानून के बने क़रीब पांच साल होने वाले हैं, लेकिन इसके तहत अभी तक किसी को सज़ा नहीं हुई है। नए क़ानून के बाद दिल्ली के अलावा मुंबई शक्ति मिल कंपाउंड गैंगरेप समेत कई बलात्कार के आरोपियों को निचली अदालतों की ओर से फांसी की सज़ा सुनाई जा चुकी है, लेकिन सभी मुक़दमे ऊपरी अदालतों में लटके पड़े हैं। बेशक न्यायपालिका के पास वर्कलोड ज़्यादा है। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के एक जज कह चुके हैं कि देश में 65 हज़ार (64,919) आपराधिक मुक़दमे लंबित हैं। वैसे पूरे देश में तीन करोड़ मुकदमे अंडरट्रायल हैं।

संभवतः नए क़ानून के तहत किसी को सज़ा न दे पाने के कारण ही तमाम कोशिश के बावजूद रेप की वारदातें रोके नहीं रुक रही हैं। अगर नेशनल क्राइम ब्यूरो के डेटा पर गौर करें तो नया रेप क़ानून के अस्तित्व में आने के बाद देश में रेप की घटनाएं ज़्यादा तेज़ी से बढ़ी हैं। सन् 2009, 2010, 2011 और 2012 में रेप के मामले क्रमशः 21,397, 22172, 24206 और 24923 थे। 2013 में नया क़ानून बनने के बाद रेप 2013, 2014, 2015 और 2016 में ऊछलकर क्रमशः 33707, 34098, 36,735 और 38,947 हो गया। आजकल रोज़ाना रेप के 101 केस दर्ज हो रहे हैं। यानी 14 मिनट में एक महिला अपनी इज्ज़त गंवा रही है। दिल्ली और मुंबई महिलाओं के लिए सेफ़ मानी जाती है, लेकिन यहां बलात्कार की घटनाएं सबसे ज़्यादा होती है। अकेले दिल्ली में रोज़ाना चार महिलाएं रेप की शिकार होती हैं।

उर्दू के मशहूर शायर ख़्वाज़ा हैदर अली 'आतिश' का शेर “बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जब चीरा तो क़तरा-ए-खूं न निकला।“ इस देश की व्यवस्था की कथनी-करनी में अंतर बयां कर देता है। मतलब, कभी लोग क्रांति करने के लिए उतावले हो जाते हैं और कभी घटना ही विस्मृत कर देते हैं। सरकार भी पीछे नहीं रहती और घोषणा पर घोषणा करने लगती है, यह सोचे बिना ही कि घोषणा पर अमल संभव है या नहीं। इतनी सक्रियता देखकर लगता है कि अब ऐसी वारदातें भविष्य में नहीं होंगी, लेकिन जल्द ही लोग घटना ही भूल जाते हैं और पुलिस कांख में डंडा दबाए फिर से वही ”खैनी खाने” वाली मुद्रा में आ जाती है। उसका यह अप्रोच हर घटना को लेकर रहता है। चाहे वह आतंकी हमला हो या फिर महिलाओं पर यौन हमला यानी गैंगरेप।
समाप्त

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

#मुंबईकागौरव - #राजाबाई #क्लॉक #टॉवर

मुंबई का गौरव - राजाबाई क्लॉक टॉवर

पहले समय देखने की घड़ी उतनी प्रचलन में नहीं थी। घड़ी वही लोग पहन पाते थे, जिनके पास उसे खरीदने की हैसियत होती थी। इसीलिए अंग्रेजों के शासनकाल में हर शहर में कम से कम एक क्लॉक टावर या घड़ी टॉवर या फिर घंटा घर बनाने की शानदार परंपरा शुरू हुई। व्रिटिश काल में ही सन् 1860 से 1890 के बीच कमोबेश हर शहर में क्लॉक टॉवर या घंटाघर बनाया गया। उस समय घड़ी टॉवर या घंटाघर शहर और कस्बे में समय को बताने में अभिन्न भूमिका निभाते थे। सबसे अहम आज पुराने घड़ी टॉवर शहर के प्रमुख लैंडमार्क में तब्दील हो गए हैं।

करीब दो सदी पहले मुंबई में भी लोगों को सही समय क्या है, इसे जानने में बहुत असुविधा होती थी। इसीलिए मुंबई में घंटाघर यानी क्लॉक टॉवर बनाने के कवायद 18 वीं सदी के साठ के दशक में शुरू हुई। सबसे पहले सोचा जाने लगा कि इसे बनाया कहां जाए। चूंकि अध्ययन के दृष्टि से मुंबई विश्वविद्यालय का पोर्ट कैंपस (तब कालीना कैंपस नहीं था) अहम केंद्र था, लिहाज़ा, विश्वविद्यालय परिसर में काउंसिल क्षेत्र में ही क्लॉक टॉवर बनाने की फैसला किया गया।

अपने अंदर एक लंबा इतिहास समेटे राजाबाई क्लॉक टॉवर आज भी मुंबई विश्वविद्यालय परिसर में शान से खड़ा है। ब्रिटिश वास्तुकार सर गिलबर्ट स्कॉट ने इसकी डिजाइनिंग की। राजाबाई क्लॉक टावर लंदन के बिग बेन की प्रतिकृति है। इसके निर्माण की पहली ईंट 1 मार्च 1869 में रखी गई और नवंबर 1878 में यह पूरा हो गया। इसका ग्राउंड फ्लोर पर 17 मीटर बाई 8.5 मीटर के दो साइड रूम हैं। इसकी ऊचाई को चार चरण विभाजित किया गया है। इसकी ऊंचाई लगभग 29 मंजिली इमारत के बराबर है। बहुमंजिली इमारतों के दौर में यह ऊचाई भले कम लगे, लेकिन कभी इतना ऊंचा निर्माण असंभ कार्य माना जाता था।

टॉवर की वास्तुकला विनीशियन और गॉथिक शैलियों का संगम है। यह स्थानीय स्तर पर उपलब्ध बफर रंगीन कुर्ला पत्थर से बनाया गया है। उस समय इसके निर्माण पर पांच लाख 50 हजार रुपए खर्च हुए थे। उस समय यह बहुत बड़ी राशि थी। दरअसल, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के संस्थापक प्रेमचंद रायचंद ने राजाबाई क्लॉक टावर बनाने के लिए एक मोटी धनराशि आर्थिक सहायता के रूप में दी थी। इसीलिए क्लॉक टॉवर का नाम रॉयचंद की मां राजाबाई के नाम पर राजाबाई कलॉक टॉवर रखा गया।

दरअसल, प्रेमचंद रॉयचंद की मां राजाबाई नेत्रहीन थीं। वह जैन धर्म की कट्टर अनुयायी थीं और अपना रात का खाना सूर्यास्त से पहले खा लेती थीं। इस टॉवर के बन जाने के बाद उसमें लगी घड़ी की शाम की घंटी राजाबाई की समय जानने में बड़ी मदद करने लगी। बीच में दर्दीले फिल्मी गीतों की परंपरा शुरू होने पर असफल प्रेमी टॉवर की इस्तेमाल खुदकुशी करने के लिए करने लगे। इसलिए इसे जनता के लिए बंद कर दिया गया।  

जनवरी 2012 में इस ऐतिहासिक की इमारत को संरक्षित करने के लिए टाटा कंसल्टिंग सर्विस ने राजाबाई क्लॉक टॉवर और विश्वविद्यालय लाइब्रेरी की इमारत की मरम्मत इंडियन हेरिटेज सोसाइटी के साथ मिलकर की। बड़ी चुनौतियों में से एक यह थी कि उस घड़ी टावर के संवेदनशील पुनःनिर्माण कार्य तथा मरम्मत कार्य को अंजाम देना जो कि 87 मीटर की ऊंचाई पर चल रही है। बहरहाल मरम्मत कार्य पर कुल 4 करोड़ 20 लाख रुपये का खर्च आया। मुंबई यूनिवर्सिटी को यह धनराशि टीसीएस ने आर्थिक सहायता के रूप में दी। मरम्मत का काम विशेषज्ञ श्रमिकों एवं विशेषज्ञों द्वारा किया गया। जो परिणाम आखिरकार मिला वो एक भव्य भवन का हैजिसकी भव्यता फिर से लौटा दी गई है। ऐसे समय जब मुंबई शहर में अनेक धरोहरें देखभाल के अभाव में खंडहर में तब्दील होते जा रहे हैं। तब राजाबाई टॉवर का उसी शान-शौकत से खड़े रहकर मुंबई का गौरव बढ़ाना महत्वपूर्ण है। वैसे तो मुंबई विश्वविद्यालय भवन को भी गिलबर्ट स्कॉट ने इसका डिजाइन तैयार किया है और यह 15वीं शताब्दी का इटेलियन भवन जैसा दिखता है। लेकिन राजाबाई टॉवर ने उसकी सुंदरता में चार चांद लगा दिया है।